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छठ एक मात्र ऐसा पर्व है जिसमें…न कोई कर्मकांड है, न ही किसी पुरोहित की होती है जरूरत

हर समुदाय और वर्ग के लोग पूरी आस्था और निष्ठा से भाग लेते हैं. जो लोग अपने गांव-कस्बा और शहर से दूर रहते हैं, वे भी इस मौके पर लौट आते हैं. इस तरह देखा जाए, तो यह पर्व घर-परिवार और समाज को जोड़ता है.

आचार्य किशोर कुणाल

महावीर स्थान न्यास समिति के सचिव

सूर्य उपासना की परंपरा दुनिया में वैदिक काल से है. छठ व्रत में मुख्य रूप से सूर्य की ही उपासना की जाती है. मगध में प्राचीन काल से सूर्य की पूजा होती आ रही है. आज पूरे विश्व में महापर्व छठ पूरे विधि-विधान के साथ परंपरागत तरीके से मनाया जाता है. इस पर्व की सबसे बड़ी खासियत उगते सूर्य के पहले डूबते सूर्य को अर्घ देना है. इसमें कोई कर्मकांड भी नहीं है. न ही किसी पुरोहित की जरूरत होती है. हर समुदाय और वर्ग के लोग पूरी आस्था और निष्ठा से भाग लेते हैं. जो लोग अपने गांव-कस्बा और शहर से दूर रहते हैं, वे भी इस मौके पर लौट आते हैं. इस तरह देखा जाए, तो यह पर्व घर-परिवार और समाज को जोड़ता है. अब तो यह बिहारी अस्मिता का पर्याय भी बन गया है.

गुप्त काल में होती थी छठी मइया की पूजा

गुप्त काल में षष्ठीदत्त नाम का प्रचलन था. इससे प्रमाणित होता है कि छठी मइया की पूजा उस समय भी होती थी. वर्षों के गहन अध्ययन के बाद यह पता चला कि जो गुप्तकालीन सिक्के मिले हैं, उनमें षष्ठीदत्त नाम का सिक्का भी है. अब जानते हैं कि षष्ठीदत्त का क्या मतलब है – पाणिनि ने जो नामकरण की प्रक्रिया बतायी है, उसके अनुसार देवदत्त, ब्रह्मदत्त और षष्ठीदत्त का अर्थ इस प्रकार है- देवदत्त का मतलब देवता के आशीर्वाद से जन्म होना, ब्रह्मदत्त का मतलब ब्रह्मा के आशीर्वाद से और षष्ठी देवी के आशीर्वाद से जन्मे हुए पुत्र षष्ठीदत्त हुए. इस तरह षष्ठी देवी यानी छठी मइया की आराधना के बाद जन्मे पुत्र को षष्ठीदत्त कहा गया. पिछले 1900 वर्षों के विवरण से पता चलता है कि उसी समय से सूर्य की उपासना होती आ रही है, जिसे कालांतर में छठ व्रत कहा जाने लगा. षष्ठी देवी अनेक पुराणों में ऐसी देवी मानी गयी हैं, जो बच्चों की रक्षा करती हैं और उन्हें लंबी आयु देती हैं. इसलिए इनकी पूजा का विधान है और आज भी बहुत से परिवारों में संतान प्राप्त करने के लिए भी छठी मैया की पूजा की जाती है.

छठ के विधान का जिक्र 1300 ई. की पुस्तक में

छठ पर्व के विधान का जिक्र मिथिला के प्रसिद्ध निबंधकार चंडेश्वर की 13वीं सदी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कृत्य रत्नाकर’ में किया गया है. उसके बाद मिथिला के दूसरे बड़े निबंधकार रूद्रधर ने 15वीं शताब्दी में लिखे गये ‘कृत्य ग्रंथ’ में चार दिवसीय छठ पर्व का विधान विस्तृत रूप से दिया है. यह वर्णन ऐसा ही है जैसा आज हम लोग छठ पर्व के दौरान करते हैं.

माता पार्वती की पर्याय हैं छठी मइया

छठी मइया पार्वती माता की पर्याय हैं. चूंकि उनका जन्म कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को हुआ, इसलिए छठी मइया के रूप में उनकी पूजा होती है. भविष्य पुराण के अनुसार यह चार दिनों का व्रत होता है. पंचमी तिथि को एक बार भोजन करना चाहिए. षष्ठी को निराहार और कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को भगवान सूर्य की उपासना करनी चाहिए. छठ पर्व के मौके छठी मैया की जो पूजा होती है, उसमें छठी मैया कौन देवी हैं, इसका सही-सही मतलब बहुत से लोगों को नहीं पता है. जैसा कि ऊपर बताया गया है कि छठी मइया माता पार्वती की पर्याय हैं. छठी मैया वास्तव में स्कंदमाता (पार्वती जी) हैं. जैसे सप्तमी तिथि को सूर्य भगवान की उपासना की तिथि है, वैसे ही षष्ठी तिथि को स्कंद यानी की कार्तिकेय भगवान की पूजा की तिथि है. कार्तिकेय का जन्म षष्ठी तिथि को हुआ था और षष्ठी तिथि को ही वह देवताओं के सेनापति बनाये गये थे. इसलिए षष्ठी तिथि उनके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है. नवरात्रि के पांचवें दिन स्कंदमाता के रूप में मां दुर्गा की पूजा होती है. इस प्रकार स्कंदमाता के रूप में पार्वती जी की पूजा सदियों से होती आयी है. सूर्य पूजा का जिक्र ऋग्वेद में मुख्य रूप से किया गया है. इसके अलावा गायत्री मंत्र में भी सूर्य की स्तुति है. रामायण में भी सूर्य के महत्व को बताया गया है. सूर्यवंशी राम जब अपने भाई लक्ष्मण के साथ युद्ध पर जाने से पहले मुनि अगस्त से मिले तो उन्होंने श्री राम को आदित्य ह्दय मंत्र दिया था. बिहार में ही सूर्य शतकम की रचना 7वीं शताब्दी में हुई थी.

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