बच्चों की तस्करी को आधुनिक युग की गुलामी कहा जाता है. यह एक ऐसी समस्या है, जिस पर तभी ध्यान जाता है जब कोई रिपोर्ट जारी होती है. हर साल 30 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र मानव तस्करी के विरोध में एक दिवस मनाता है. इसी के आस-पास भारत की भी चर्चा हो जाती है. इस बार भी एक रिपोर्ट आयी है. एक गैर सरकारी संस्था ने वर्ष 2016 से 2022 के बीच 21 राज्यों के 262 जिलों में तस्करी के मामलों का अध्ययन किया गया है. रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और आंंध्र प्रदेश से सबसे ज्यादा बच्चों की तस्करी हुई. राजधानी दिल्ली में कोविड महामारी के पहले और उसके बाद बच्चों की तस्करी के मामले में 68 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है. रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में सबसे ज्यादा बच्चे होटलों और ढाबों पर काम करते हैं, उसके बाद ऑटोमोबाइल या ट्रांसपोर्ट उद्योगों और वस्त्र-निर्माण उद्योगों में. इससे पहले भी कई रिपोर्टें आयी हैं, जिनमें बताया गया था कि कोविड के बाद से दुनियाभर में बच्चों की तस्करी बढ़ी थी.
भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2021 में हर दिन आठ बच्चे की तस्करी हुई थी. ज्यादातर बच्चों की तस्करी देश के भीतर ही होती है. लेकिन, विदेशों में भी बच्चों की बिक्री होती रही है. भारत से मुख्यतः खाड़ी के देशों और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में बच्चों की तस्करी होती रही है. संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनओडीसी की एक वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में मानव तस्करी के शिकार लोगों में लगभग 20 फीसदी तादाद बच्चों की होती है. अफ्रीका के कुछ हिस्सों में यह संख्या बहुत ज्यादा है. भारत ने वर्ष 2025 तक बाल श्रम को जड़ से मिटाने का संकल्प लिया है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले एक दशक में सरकार और कानून पालन करवाने वाली एजेंसियों के प्रयासों तथा जागरूकता से बाल तस्करी पर काफी रोक लगी है. भारत की आर्थिक सफलता का लोहा दुनिया मानती है. ऐसे में स्कूलों की जगह बच्चों को स्कूलों की जगह सड़कों पर सामान बेचते और ढाबों में काम करते देखना दुखद है. सरकार और समाज की भागीदारी से ऐसे बच्चों की सहायता की व्यवस्था की जानी चाहिए. इस समस्या की जड़ में गरीबी है. बच्चे मजबूरी की वजह से तस्करी का शिकार हो जाते हैं. इसे ध्यान में रख एक व्यावहारिक और ठोस नीति बनायी जानी चाहिए ताकि बाल तस्करी की चर्चा एक रस्म अदायगी भर बन कर ना रह जाए.