16.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

अस्तित्व के बजाय विरोध में कांग्रेस की दिलचस्पी

राम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह का बुलावा कांग्रेस के लिए अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का उत्तर भारतीय वोटरों के बीच जवाब देने का मौका हो सकता था. वह समारोह में शामिल होकर कह सकती थी कि राम सबके हैं, किसी दल विशेष के नहीं.

राम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह का बुलावा कांग्रेस के सामने दो तरह की चुनौतियां लेकर आया था. पहली चुनौती सांप्रदायिकता विरोध की अपनी राजनीति को बचाये रखना थी. कांग्रेसी नेतृत्व और रणनीतिकार शायद ही इसे स्वीकारें. उसके सामने दूसरी चुनौती अपने अस्तित्व को लेकर थी. तटस्थ नजरिये से देखें, तो कांग्रेस ने अपने कथित सांप्रदायिकता विरोधी रुख को बरकरार रखना ही चुना है, भले उसके अस्तित्व पर आशंका के बादल मंडराने लगें. कांग्रेस के रणनीतिकार मानते हैं कि राम मंदिर का आंदोलन सांप्रदायिकता की बुनियाद पर खड़ा हुआ है. पता नहीं, वे यह स्वीकार करते हैं या नहीं, लेकिन यह सच है कि कांग्रेस इसी रुख के कारण उत्तर भारत के अपने गढ़ों से सिमटती चली गयी. जिस उत्तर प्रदेश से उसका केंद्रीय नेतृत्व जुड़ा हुआ है, वहां सिर्फ एक सीट कांग्रेस के कब्जे में है. राज्य की 403 सदस्यों वाली विधानसभा में उसके दो ही विधायक हैं. बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से उसके पास सिर्फ एक सांसद है, जबकि 243 सदस्यीय विधानसभा में 19 विधायक हैं. वैसे विधायकों की संख्या के पीछे उसके सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल का हाथ है. झारखंड में कांग्रेस का एक सांसद और 18 विधायक हैं. यहां भी उसके सहयोगी दलों का योगदान है.

उम्मीद थी कि कांग्रेस प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होकर अपने अस्तित्व पर आये संकट को टालने की कोशिश करेगी, लेकिन उसने कथित सांप्रदायिकता विरोध की राह को चुना है. कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व ऐसा नहीं चाहता था. कांग्रेसी विधायकों ने किसी और दिन राम मंदिर जाने का एलान भी कर रखा है. कांग्रेसी नेता भी अब गाहे-बगाहे बोलने लगे हैं कि राम किसी एक के नहीं, बल्कि सबके हैं. मतलब साफ है कि स्थानीय नेतृत्व राम मंदिर आंदोलन से साथ अलग हुए सवर्ण वोटरों के एक तबके के साथ अपना रिश्ता जोड़ना चाहता है, लेकिन कांग्रेसी आलाकमान और उनके सलाहकारों को शायद यह पसंद नहीं आ रहा है. यह नहीं भूलना चाहिए कि मंदिर को लेकर भले ही आंदोलन सैकड़ों वर्षों से चल रहा हो, लेकिन उसे गति विवादित ढांचे का ताला खुलवाने के बाद ही मिली. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के निर्देश पर नवंबर 1989 में ताला खोला गया था और नौ नवंबर को प्रतीकात्मक शिलान्यास हुआ था. उन दिनों शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने के बाद राजीव सरकार अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोपों का सामना कर रही थी. कुछ वक्त बाद चूंकि आम चुनाव होने थे, लिहाजा आरोपों को थामने और हिंदूवादी वोटरों का साथ पाने के लिए राजीव सरकार ने शिलान्यास का फैसला लिया. लेकिन कांग्रेस का वह दांव उलटा रहा.

राम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह का बुलावा कांग्रेस के लिए अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का उत्तर भारतीय वोटरों के बीच जवाब देने का मौका हो सकता था. वह समारोह में शामिल होकर कह सकती थी कि राम सबके हैं, किसी दल विशेष के नहीं. इस कदम से भाजपा की मुश्किल बढ़ सकती थी. हालांकि भाजपा के पास यह भी कहने का मौका होता कि जिस कांग्रेस ने राम के अस्तित्व को ही नकार दिया था, उसे भी राम की शरण में आना पड़ा है. राजनीति में ऐसी बातें होती रहती हैं, लेकिन असल खेल वोटरों के सामने अपनी अहमियत साबित करना होता है. कांग्रेस चाहती, तो इस मौके का इस नजरिये से इस्तेमाल कर सकती थी. समारोह में न जाने का फैसला कर उसने एक तरह से धारा के खिलाफ जाने का काम किया है. हालिया विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन के बाद जिस तरह का नैरेटिव पार्टी ने पेश किया, उससे लगता है कि उसे उत्तर भारत से ज्यादा उम्मीद नहीं है. तेलंगाना विंध्य पर्वतमाला से दक्षिणी इलाके में पड़ता है. कुछ महीने पहले कर्नाटक में कांग्रेस को जीत मिली थी. तेलंगाना की जीत के बाद कांग्रेस ने विचार दिया कि उत्तर भारत के वोटर जहां सांप्रदायिकता के आधार पर वोटिंग करते हैं, वहीं दक्षिण के वोटर मुद्दों पर मतदान करते हैं. शायद समारोह में शामिल होने से इनकार कर वह एक तरह से दक्षिण के अपने किले को मजबूत करने की कोशिश में है.

राम मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने का आमंत्रण अखिलेश यादव भी ठुकरा चुके हैं. वैसे भी उन्हें अपने वोट बैंक को लेकर कोई कश्मकश नहीं है. यही स्थिति बिहार में लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी की है. इन दिनों सांप्रदायिकता विरोध में जद(यू) भी अपने सुर ऊंचे करने लगा है, जिसका पूरा अस्तित्व भाजपा के सहयोग पर ही टिका और आगे बढ़ता रहा. कांग्रेस अकेली पार्टी है, जिसकी अखिल भारतीय छवि और पहुंच है. इसलिए उसके लिए राम मंदिर के मुद्दे पर दो-टूक जैसी राय रखना आसान नहीं है. उसके कार्यकर्ता भी बदले हालात में ऐसा नहीं चाहते. लेकिन पार्टी का आला नेतृत्व अपने पुराने रुख पर ही कायम है. राम मंदिर प्रतिष्ठा समारोह के आमंत्रण को ठुकराकर कांग्रेस आलाकमान सांप्रदायिकता विरोध का चाहे जितना बड़ा झंडा उठा ले, यह भी सच है कि उसके दक्षिण के एक सिपहसालार सिद्धारमैया समारोह के लिए बुलावा ना मिलने को लेकर परेशान नजर आये थे. साफ है कि कहीं न कहीं पार्टी के दक्षिण के सरदारों को भी लगता है कि हिंदू वोट बैंक को नाराज करना उनके लिए भारी पड़ सकता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें