कांग्रेस के पास ठोस कार्ययोजना नहीं
राहुल गांधी अपनी यात्रा के बाद ऐसा कर सकते थे कि जिन जगहों से वे गुजरे थे, वहां दो-चार दिनों के शिविर आयोजित कर सकते थे. ऐसे कार्यक्रमों से उन लोगों को कांग्रेस से जोड़ा जा सकता था, जो उनकी यात्रा से प्रभावित हुए थे. इससे कांग्रेस में एक नयी ऊर्जा का संचार हो सकता था.
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस नेता राहुल गांधी की गंभीर छवि बनी है. इस यात्रा को लोगों ने भी सकारात्मक ढंग से लिया. उस यात्रा के दौरान मैंने महाराष्ट्र में कई लोगों से बातचीत की थी. वे इस बात से बहुत संतुष्ट दिख रहे थे कि राहुल गांधी पैदल चल कर उनकी बात सुनने आये हैं, जो किसी अन्य नेता ने नहीं किया है. अब इस यात्रा के राजनीतिक असर की बात करें, तो अभी यही दिख रहा है कि लोगों की दिलचस्पी तो बढ़ी है, पर वे अभी इंतजार कर रहे हैं और आगे की गतिविधियों पर उनकी निगाह है.
कांग्रेस के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह उसके संगठन की है. आप की छवि अच्छी हो सकती है, पर उसे वोट में बदलने के लिए अच्छा संगठन जरूरी है. दूसरी बात यह है कि जब तक कांग्रेस चुनाव जीतना शुरू नहीं करती, तब तक लोग उसे गंभीरता से नहीं लेंगे. एक राजनीतिक दल के लिए मुद्दे उठाने के साथ-साथ जीत हासिल करना भी प्रासंगिकता बनाये रखने के लिए जरूरी है. तो, कांग्रेस को संगठन को मजबूत करने और चुनाव जीतने को अपनी प्राथमिकता बनाना होगा.
कर्नाटक का चुनाव एक महत्वपूर्ण अवसर है. यह कांग्रेस के लिए उसी तरह से अहमियत रखता है, जैसे भाजपा के लिए 2017 में उत्तर प्रदेश का चुनाव था. अगर भाजपा उस चुनाव में जीत नहीं पायी होती, तो 2019 के लोकसभा चुनाव में वह शानदार प्रदर्शन नहीं कर पाती. जो विभिन्न संकेत मिल रहे हैं, उनसे लगता है कि कर्नाटक में कांग्रेस आगे है. भाजपा चाहती है कि कर्नाटक विधानसभा में किसी दल को पूरा बहुमत नहीं मिले और वह जोड़-तोड़ कर अपने नेतृत्व में गठबंधन सरकार बना ले.
वहां कांग्रेस के दो प्रमुख नेताओं- सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार- में आपसी मनमुटाव की खबरें आती हैं, पर वे दोनों कह रहे हैं कि वे मिल कर पार्टी को जीत दिलाने की कोशिश में हैं. इस मसले को कांग्रेस को तुरंत ठीक कर लेना होगा, क्योंकि यह चुनाव उसके लिए बहुत मायने रखता है. इसी चुनाव से अगले लोकसभा चुनाव का आधार बनेगा, इसी से यह तय होगा कि भाजपा अखिल भारतीय पार्टी है कि नहीं, दक्षिण में उसकी पैठ रहती है कि नहीं. तो, मनोवैज्ञानिक रूप से इस चुनाव का बड़ा महत्व है.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे अपने स्तर पर कांग्रेस संगठन को बेहतर करने में जुटे हुए हैं. राहुल गांधी अपनी यात्रा के बाद ऐसा कर सकते थे कि जिन जगहों से वे गुजरे थे, वहां दो-चार दिनों के शिविर आयोजित कर सकते थे. ऐसे कार्यक्रमों से उन लोगों को कांग्रेस से जोड़ा जा सकता था, जो उनकी यात्रा से प्रभावित हुए थे. इससे कांग्रेस में एक नयी ऊर्जा का संचार हो सकता था. ऐसा लगता है कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद क्या करना है, उसका राजनीतिक लाभ कैसे लेना है, इस संबंध में कांग्रेस ने कोई कार्ययोजना तैयार नहीं की थी. उसके बाद राहुल गांधी ने अदानी प्रकरण को उठाया है, जो बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इस विषय पर विपक्षी दलों में अाम सहमति का अभाव दिखाई देता है.
चुनाव अभियान को गति देने के लिए विपक्ष के पास ठोस मुद्दों का होना जरूरी है. शरद पवार जैसे कद्दावर नेता का कुछ कहना मायने रखता है. इससे लगता है कि इस मसाले पर विपक्ष में दरार है. पवार विपक्षी एकता से अलग नहीं होंगे, क्योंकि महाराष्ट्र में बहुत कुछ दांव पर लगा है और अनेक आंतरिक सर्वेक्षणों में बताया गया है कि उद्धव ठाकरे की शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन आगे है, पर शरद पवार के बयान से झटका तो लगा ही है तथा लोगों में एक संकेत भी गया है कि मुद्दों पर विपक्ष एकजुट नहीं है. इसी प्रकार, सावरकर पर सवाल उठा कर आप महाराष्ट्र में शिव सेना के साथ एकता नहीं बना सकते हैं.
तो, सबसे अहम सवाल है कि कांग्रेस और विपक्ष का नैरेटिव राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर क्या होगा. जिन राज्यों में कांग्रेस की सीधी टक्कर भाजपा से है, जैसे- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और काफी हद तक कर्नाटक भी, वहां कांग्रेस का संगठन किस मजबूती से खड़ा होता है, यह देखने वाली बात होगी. राजस्थान में पार्टी के भीतर जो पुरानी दरार है, उसे पाटा नहीं जा सका है और वह फिर उभर आयी है. आलाकमान सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का वादा करता रहा.
कहा गया कि अशोक गहलोत को केंद्रीय राजनीति में लाया जायेगा. ऐसा होता, तो कांग्रेस के लिए अच्छा ही होता. पिछले अक्तूबर में यह तय भी हो गया था. इतने लंबे समय से चली आ रही समस्या को हल नहीं कर पाना नेतृत्व की विफलता को दर्शाता है. अब वहां क्या स्थिति बनेगी, अभी इस बारे में केवल कयास ही लगाया जा सकता है. वैसे भी राजस्थान में कांग्रेस की स्थिति ठीक नहीं है. ऐसा लगता है कि वहां पार्टी को अब और अधिक झटका लग सकता है.
यह भी समझा जाना चाहिए कि क्षेत्रीय पार्टियों में विपक्ष के नेता के तौर पर राहुल गांधी की स्वीकार्यता शुरू से नहीं रही है. राहुल गांधी का भारत जोड़ो यात्रा करने और इससे पार्टी में उनके नेतृत्व को मजबूती मिलने से भी विपक्षी एकता में समस्या पैदा हुई है. भले ही राहुल गांधी को विपक्ष का चेहरा घोषित नहीं किया जाए, पर जिस तरह से वे मोदी सरकार पर तीखे हमले कर रहे हैं, उससे वास्तव में वही चेहरा बनकर उभरते हैं. यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि विपक्ष के नेता का मामला भाजपा को ही फायदा पहुंचाता है, विपक्ष को नहीं. विपक्ष को तो भाजपा को एक-एक सीट पर आमने-सामने टक्कर देनी है. और, अगर उन्हें जीत हासिल करनी है, तो उनकी कोशिश यह होनी चाहिए कि हर सीट पर विपक्ष का एक ही उम्मीदवार हो.
पिछले चुनाव के हिसाब से देखें, तो संयुक्त विपक्ष का वोट भाजपा के वोट से ज्यादा है. रही बात नेता की, तो उसका फैसला चुनाव के बाद ही होगा, पहले नहीं. अगर नेता तय करने के मसले में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल पड़ जाते हैं, तो इससे भाजपा को ही फायदा होगा, क्योंकि उसके पास एक मजबूत नेता है और विपक्ष के पास यह स्थिति नहीं है. जहां तक राहुल गांधी की बात है, तो खरगे ने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि विपक्षी एकता में वे किसी तरह की बाधा नहीं बनेंगे.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)