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Rabindranath Tagore Death Anniversary : गुरुदेव की पुण्यतिथि पर पढ़ें, नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचना ‘गीतांजलि’ के कुछ गीत

rabindranath tagore death anniversary : ‘गीतांजलि’ के रचयिता और भारतीय साहित्य को पूरी दुनिया में ख्याति दिलाने वाले साहित्यकार,कवि रविंद्रनाथ टैगोर की आज पुण्यतिथि है. गीतांजलि के लिए उन्हें 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला था. वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जो यूरोपीय नहीं थे और साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था.

rabindranath tagore death anniversary : ‘गीतांजलि’ के रचयिता और भारतीय साहित्य को पूरी दुनिया में ख्याति दिलाने वाले साहित्यकार,कवि रविंद्रनाथ टैगोर की आज पुण्यतिथि है. गीतांजलि के लिए उन्हें 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला था. वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जो यूरोपीय नहीं थे और साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था. रविंद्रनाथ टैगोर की कविताएं गेय होती थीं अर्थात आप उन्हें गा सकते हैं. उनका रविंद्रनाथ संगीत ना सिर्फ बंगाल में प्रसिद्ध है, बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है. आज उनके पुण्यतिथि पर पढ़ें ‘गीतांजलि’ की कुछ कविताएं:-

मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से

मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से

उनसे वंचित कर मुझे बचा लिया तुमने।

संचित कर रखूंगा तुम्हारी यह निष्ठुर कृपा

जीवन भर अपने।

बिना चाहे तुमने दिया है जो दान

दीप्त उससे गगन, तन-मन-प्राण,

दिन-प्रतिदिन तुमने ग्रहण किया मुझ को

उस महादान के योग्य बनाकर

इच्छा के अतिरेक जाल से बचाकर मुझे।

मैं भूल-भटक कर, कभी पथ पर बढ़ कर

आगे चला गया तुम्हारे संघान में

दृष्टि-पथ से दूर निकल कर।

हाँ, मैं समझ गया, यह भी है तुम्हारी दया

उस मिलन की चाह में, इसलिए लौटा देते हो मुझे

यह जीवन पूर्ण कर ही गहोगे

अपने मिलने के योग्य बना कर

अधूरी चाह के संकट से

मुझे बचा कर।

कितने अनजानों से तुमने करा दिया मेरा परिचय

कितने अनजानों से तुमने करा दिय मेरा परिचय

कितने पराए घरों में दिया मुझे आश्रय।

बंधु, तुम दूर को पास

और परायों को कर लेते हो अपना।

अपना पुराना घर छोड़ निकलता हूँ जब

चिंता में बेहाल कि पता नहीं क्या हो अब,

हर नवीन में तुम्हीं पुरातन

यह बात भूल जाता हूँ।

बंधु, तुम दूर को पास

और परायों को कर लेते हो अपना।

जीवन-मरण में, अखिल भुवन में

मुझे जब भी जहाँ गहोगे,

ओ, चिरजनम के परिचित प्रिय!

तुम्हीं सबसे मिलाओगे।

कोई नहीं पराया तुम्हें जान लेने पर

नहीं कोई मनाही, नहीं कोई डर

सबको साथ मिला कर जाग रहे तुम-

मैं तुम्हें देख पाऊँ निरन्तर।

बंधु, तुम दूर को पास

और परायों को कर लेते हो अपना।

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अंतर मम विकसित करो

अंतर मम विकसित करो

हे अंतर्यामी!

निर्मल करो, उज्ज्वल करो,

सुंदर करो हे!

जाग्रत करो, उद्यत करो,

निर्भय करो हे!

मंगल करो, निरलस नि:संशय करो हे!

अंतर मम विकसित करो,

हे अंतर्यामी।

सबके संग युक्त करो,

बंधन से मुक्त करो

सकल कर्म में संचरित कर

निज छंद में शमित करो।

मेरा अंतर चरणकमल में निस्पंदित करो हे!

नंदित करो, नंदित करो,

नंदित करो हे!

अंतर मम विकसित करो

हे अंतर्यामी!

Posted By : Rajneesh Anand

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