देवरा का जाना कांग्रेस के लिए संदेश
जब कांग्रेस दमदार स्थिति में थी, तब भी अवांछित तत्वों को किनारे लगाने में वह ढीली थी. इस मामले में भाजपा बहुत तेज और स्पष्ट है- आप पार्टी के लिए काम करते हैं, पार्टी आपके लिए नहीं काम करती. कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि भाजपा में आप एक व्यक्ति के लिए काम करते हैं. यह आलोचना अपनी जगह सही हो सकती है.
कुछ दिन पहले पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री मिलिंद देवड़ा के कांग्रेस छोड़ने पर राजनीतिक चर्चाओं का दौर चल रहा है. वह शिवसेना के शिंदे गुट में शामिल हुए हैं. इस गुट के नेता एकनाथ शिंदे हैं, जो उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली मूल पार्टी से अलग होकर भाजपा के साथ मिल कर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने. देवरा का जाना कोई उल्लेखनीय घटना नहीं है और शायद उन्होंने यह निर्णय किसी पार्टी से दक्षिण मुंबई की लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के इरादे से लिया है. इस सीट से उनके दिवंगत पिता मुरली देवरा सांसद हुआ करते थे. उनकी मृत्यु के बाद मिलिंद देवरा ने इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया, पर बाद में वह दो बार उद्धव ठाकरे की शिवसेना से हारे. यदि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना का कांग्रेस से गठबंधन होता है, तो इस सीट पर उद्धव दावा कर सकते हैं. ऐसी स्थिति में देवरा को कुछ नहीं मिलता. ऐसे में उनके पार्टी छोड़ने के फैसले को समझा जा सकता है. एक स्तर पर यह अस्तित्व से जुड़ा हुआ है तथा राजनीतिक रूप से प्रासंगिकता बनाये रखने की कवायद है, ताकि पारिवारिक विरासत को बचाया जा सके. इसलिए देवरा के निर्णय को गलत नहीं माना जाना चाहिए और न ही उन्हें इसका श्रेय देना चाहिए.
पार्टी छोड़ने के बाद कांग्रेस के कारोबार विरोधी होने के उनके आरोप को भी समझा जा सकता है. शायद इससे उन्हें और शिंदे गुट को कुछ बड़े कारोबारियों का सहयोग मिल सकता है, लेकिन वर्तमान संदर्भ में यह कह पाना मुश्किल है कि इससे उन्हें वोटों का कितना फायदा होगा. देवरा भी उद्योगपति-व्यवसायी हैं और कुछ बड़े कारोबारी परिवारों के करीबी भी हैं. अतीत में पिता और पुत्र कांग्रेस के लिए धन जुटाने के लिए जाने जाते रहे हैं. मुरली देवरा द्वारा मंच पर लाये गये हीरा व्यापारी पंक्तिबद्ध होकर पार्टी को अच्छा-खासा दान दिया करते थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ फोटो खिंचवाते थे. जब मनमोहन सिंह सरकार में मुरली देवरा पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री हुआ करते थे, तब रिलायंस समूह के प्रमुख मुकेश अंबानी से उनकी निकटता को लेकर ‘हितों के टकराव’ का मुद्दा उठा था. इस मुद्दे को मुकेश अंबानी के भाई अनिल अंबानी ने ही उठाया था, पर कांग्रेस और मनमोहन सिंह ने इस गंभीर मसले पर कोई ध्यान नहीं दिया. मुकेश अंबानी और उदय कोटक ने अलग-अलग 2019 में मिलिंद देवरा की उम्मीदवारी को समर्थन दिया था, पर वह जीत नहीं पाये. हालांकि ऐसे समर्थन से वोटों में वृद्धि होने की अपेक्षा नहीं थी, पर यह इसलिए अजीब था कि आम तौर पर पर्दे के पीछे से राजनीति में दिलचस्पी लेने वाले कारोबारी खुले तौर पर मिलिंद देवरा का समर्थन करने के लिए इच्छुक दिखे. यह तब हुआ था, जब वह कांग्रेस में थे तथा केंद्र एवं राज्य में भाजपा सत्ता में थी और उससे सबसे अधिक दान भी मिलता था.
यह कहना बेमतलब है कि देवरा द्वारा 15 जनवरी को पार्टी छोड़ना उसी दिन मणिपुर से शुरू हुई राहुल गांधी की यात्रा के प्रभाव को कम करने की कवायद थी, लेकिन इस इस्तीफे में कांग्रेस के लिए एक बड़ा संदेश जरूर है और यह ऐसा संदेश है, जिससे पार्टी को मजबूत करने में मदद मिलेगी. पार्टी अपने पुननिर्माण तथा चुनाव से पहले हो रही राहुल गांधी की यात्रा के उद्देश्यों- एकता एवं न्याय- से लोगों को जोड़ने के लिए भरोसेमंद लोगों को चुन सकती है. किसी भी राजनीतिक दल, खास कर लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस, के लिए यह बात लागू होती है कि इसमें कई तरह के कार्यकर्ता शामिल होते रहते हैं और समय के साथ नेतृत्व करने की भूमिका में आ जाते हैं. भाजपा के साथ भी ऐसा ही है. ऐसे लोगों में कुछ अवसरवादी, कुछ हां में हां मिलाने वाले तथा कुछ बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के लोग होंगे. ये धनी हो सकते हैं और इनके अच्छे संपर्क हो सकते हैं तथा इनका उपयोग कर ये पार्टी में आगे जाने की कोशिश कर सकते हैं, ताकि सत्ता का लाभ अपने हितों के लिए उठा सकें. सत्ता और धन जुटाने की क्षमता के अभाव में ऐसे खिलाड़ी असहज हो जाते हैं और पार्टी से अलग हो जाते हैं. हाल के समय में कांग्रेस के साथ ऐसा ही कुछ हुआ है. इससे कुछ मामलों में पार्टी की कमजोरी इंगित होती है, तो कुछ मामलों में मजबूती. कमजोरी है कि पार्टी ऐसे लोगों को संगठन में बनाये रखती है और उन्हें महत्वपूर्ण पद भी देती है, जिसका इस्तेमाल वह लोग अपना दायरा और असर बढ़ाने के लिए करते हैं. ऐसे कुछ दरबारियों के खिलाफ कार्रवाई करने से कांग्रेस हिचकती रही है. इसके अनेक जटिल कारण हैं, जिनमें एक यह है कि पार्टी की छवि भ्रष्ट पार्टी की बन गयी तथा अब वह सत्ता में नहीं है और न ही उसके पास प्रभावित कर पाने की क्षमता है.
जब कांग्रेस दमदार स्थिति में थी, तब भी अवांछित तत्वों को किनारे लगाने में वह ढीली थी. इस मामले में भाजपा बहुत तेज और स्पष्ट है- आप पार्टी के लिए काम करते हैं, पार्टी आपके लिए नहीं काम करती. कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि भाजपा में आप एक व्यक्ति के लिए काम करते हैं. यह आलोचना अपनी जगह सही हो सकती है, लेकिन नये और ऊर्जावान चेहरों को आगे लाने की भाजपा की कोशिश को यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता है. कांग्रेस को समझना चाहिए कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के लिए सुनना अहम है, पर मांगों और धमकियों के दबाव में नहीं आना चाहिए. मसलन, कहा जा रहा है कि देवरा ने जयराम रमेश के माध्यम से कांग्रेस से 2024 के चुनाव में टिकट खोने को लेकर संपर्क साधा था. वह राहुल गांधी से मिलना चाहते थे, लेकिन अगर कांग्रेस और विपक्ष के हित में यह है कि देवरा को टिकट न देकर उस सीट से दो बार जीतने वाले ठाकरे की शिवसेना के सांसद को खड़ा किया जाए, तो क्या किया जाना चाहिए? उत्तर स्पष्ट है कि देवरा को पार्टी के लिए काम करना चाहिए, जहां उनकी क्षमता का आकलन होगा और उस आधार पर टिकट का निर्णय होगा. यह स्पष्ट संदेश सभी कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जाना चाहिए. यदि सभी कार्यकर्ता यह जानेंगे और समझेंगे कि उनके सामने एक राष्ट्रीय स्तर का काम है, जो उनके अपने टिकट के लिए लड़ने से कहीं बहुत बड़ा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)