जायका : तेलों के जायके का जायजा
यह दुर्भाग्य ही है कि हम तरह-तरह के ‘रिफाइन’ तेलों की मरीचिका में फंस कर पारंपरिक रूप से प्रचलित तेलों का जायका तथा तासीर भूल चुके हैं. हम निस्वाद तेलों को ही हर पकवान के लिए उपयोगी समझने लगे हैं.
आम धारणा यह है कि तेल खाना पकाने का माध्यम है- एक चिकनाई घी या चरबी सरीखी और उसके जायके के बारे में हमारा ध्यान नहीं जाता. दिलचस्प बात यह है कि सरसों के तेल के चरपरेपन के कारण उसे कड़ुआ तेल भी कहा जाता है. इससे निजात पाने के लिए उसे तेज आंच पर जलाया भी जाता है. बंगाल, बिहार तथा ओडिशा समेत देश के कई हिस्सों में यही तेज तीखा स्वाद मनभावन और लोकप्रिय है. भरते, चोखे और झाल मूढ़ी आदि में भी इसकी कुछ बूंदें (कच्ची भी) जायका बढ़ाती हैं. बंगाल या ओडिशा में, बिहार अथवा उत्तरप्रदेश और पंजाब तक में कोई यह कल्पना ही नहीं कर सकता कि तली या तरी वाली मछली सरसों के तेल के अलावा किसी और माध्यम में पेश की जा सकती है. उत्तर भारत में गोश्त रांधते वक्त भी यह माना जाता रहा है कि सामिष व्यंजनों का जायका सरसों के तेल में ही निखरता है (सिर्फ अवध वाले घी को सुधार कर या मक्खन का इस्तेमाल करते हैं).
मिठास से भरा ‘नारियल तेल’
हमारी राय में सबसे मिठास भरा तेल नारियल का है, जो केरलवासियों का चहेता है. बीच कहीं तिल तथा मूंगफली का तेल बिराजते हैं. यह क्रमश: तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र एवं गुजरात में इस्तेमाल होते हैं. इस सबका अपना अलग जायका है, जो पूरी-जलेबी तलने से लेकर मिठाइयों को बनाने में अच्छा या बुरा महसूस होता है. मिर्च-मसाले वाले अचार में आम तौर पर सरसों का ही तेल बरता जाता है. हालांकि दक्षिणी भूभाग में स्थानीय उत्पाद का स्वाद ही सबसे पहले स्थान पर रखा जाता है. यह दुर्भाग्य ही है कि हम तरह-तरह के ‘रिफाइन’ तेलों की मरीचिका में फंस कर पारंपरिक रूप से प्रचलित तेलों का जायका तथा तासीर भूल चुके हैं. सोयाबीन, सूरजमुखी, करड़ी, चावल के हंसी और खास किस्म के ताड़ के वृक्ष से मिलने वाले पामोलीन या इनके मिश्रणों का ऐसा महिमामंडन किया गया है कि हम इन निस्वाद तेलों को ही हर पकवान के लिए उपयोगी समझने लगे हैं. वनस्पति का जिक्र यहां जरूरी नहीं.
जैतून का तेल कर रहा आकर्षित
हाल के दिनों में हिंदुस्तानियों का ध्यान जैतून के तेल ने आकर्षित किया है. इसे बड़े पैमाने पर भूमध्यसागरीय देशों में इस्तेमाल किया जाता है और सेहत के लिए सबसे फायदेमंद समझा जाता है. इसकी गुणवत्ता की श्रेणियां ‘कौमार्य’ के अनुसार निर्धारित की जाती हैं- वर्जिन तथा एकस्ट्रा वर्जिन ऑलिव ऑयल. इतालवी खाने की कल्पना इस तेल के सुवासित स्वाद के अभाव में नहीं की जा सकती. इसका फलों जैसा जायका जबान पर चढ़ जाये, तो फिर उतरता नहीं. यह दूसरे तेलों की तुलना में कम तापमान पर वाष्पशील होता है, अतः अनेक भारतीय व्यंजनों के लिए उपयोगी नहीं समझा जाता. तेलों के जायकों को बिगाड़ने वाली एक और चीज है दो-तीन तेलों को मिला कर उसमें विटामिन मिलाना. विज्ञापनों में प्रचार किया जाता है कि गंध-स्वाद रहित खाना पकाने का माध्यम ही बेहतर होता है. हमारी राय में ऐसे तेल कागज के फूलों जैसे हैं, जिनसे खुशबू आ नहीं सकती, फिर जायका कहां शेष रह सकता है.