अब प्रकृति हमें चैन से नहीं जीने देने वाली है. जिस तरह से हमने पृथ्वी एवं प्रकृति के साथ व्यवहार किया है, उसका दंड तो भोगना ही पड़ेगा. दुनिया में अपना देश पारिस्थितिकीय दृष्टि से अलग है. यहां एक तरफ दक्षिण में समुद्र है, वहीं उत्तर में हिमालय और बीच में मरुस्थलीय भूभाग है. ये भौगोलिक स्थितियां इसे संवेदनशील भी बनाती हैं. इसी संदर्भ में भारत और हिमालय की संवेदनशीलता के प्रति चिंता भी स्वाभाविक है. कई तरह की आपदाओं ने हमें घेरना शुरू कर दिया है. मानसून की बाढ़ के लिए तो हम तैयार रहते थे, पर अब बेमौसमी बाढ़ ने नये सिरे से घेर लिया है. ये सारी दुनिया में दिखता है. पर एक ही आपदा ऐसी है, जो सबसे भारी तबाही वाली है. वह है भूकंप, जो चेतावनी का अवसर भी नही देता. पिछले अनुभवों के अनुसार, आने वाले समय में हिमालय या उत्तर भारत में एक बड़े भूकंप की आशंका है. भूकंप एक ऐसी भूगर्भीय क्रिया है, जिसकी समझ अभी तक वैज्ञानिकों के पास नहीं है. अगर ऐसा होता, तो तुर्की, भुज या नेपाल में आये भूकंपों से कुछ हद तक बचा जा सकता था. तमाम कयासों को दरकिनार तो नहीं किया जा सकता है, लेकिन उनको समझते हुए अपनी तैयारी ऐसी होनी चाहिए कि हम कम से कम अपने जीवन को सुरक्षित रख सकें.
ऐसे बहुत से देश हैं, जिन्होंने कई तरह के भयावह भूकंपों को झेला है. रूस में 1952 में आये भूकंप में करीब दो हजार लोग मारे गये थे. साल 1960 में चिली में 12 हजार से ज्यादा लोगों की जान गयी. नौ की तीव्रता के भूकंप कई बार आ चुके हैं, जिसमें इंडोनेशिया भी है. साल 2004 में इसी के कारण भारी सुनामी भी आयी थी. जापान में 2011 आये भूकंप में 18 हजार लोगों की जान गयी थी. असल में कई तरह की प्लेट पृथ्वी के भूगर्भ में हैं, जो मैग्मा के ऊपर तैरती हैं. इनमें 12 बड़ी क्रश प्लेट कहलाती हैं और छोटी 20 के करीब हैं. इन प्लेट के नीचे भी पतली लेयर है, जिसे स्टेनोस्फीयर कहते हैं, जो मैग्मा के ऊपर तैरती रहती है. अब जब कभी किन्हीं कारणों से मैग्मा में उछाल आता है या प्लेट आपस में टकराती हैं, तो जो भी कोना खाली दिखता है, वहीं से ऊर्जा बाहर निकलती है और वही भूकंप का स्रोत हो जाती है. वैसे भूकंप की स्थिति हमेशा बनी रहेगी, पर इनसे कुछ सबक भी लिये जा सकते हैं. जो संवेदनशील क्षेत्र हैं, वहां पर लोग कुछ न कुछ एहतियात बरतते ही हैं.
एक सीख तो यह लेनी चाहिए कि पृथ्वी के गर्भ पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है. मतलब भूकंप मनुष्य की तमाम समझ और शक्तियों की सीमाओं से बाहर है. यह तय है कि भूकंप कभी भी और कहीं भी आ सकता है. इसकी तीव्रता क्या होगी, यह भी हम नहीं जान सकते, परंतु भूकंपों में होने वाले नुकसान को कम करना सीधे मनुष्य के नियंत्रण में है. पृथ्वी का आवरण कितना सुरक्षित हो, उस पर हमारा सीधा नियंत्रण है. यह बात हर तरह की आपदा में नुकसानों को कम करने में सहायक होगी. मतलब, हम किस तरह के ढांचागत विकास कैसे करने जा रहे हैं, यह मनुष्य के हाथ में है. हर आपदा में इन्हीं पर और इनसे ही चोट पहुंचती है. अब अगर हम आज बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर रहे हैं, तो वे सभी तरह की आपदाओं के लिए संवेदनशील हैं. आज की सबसे बड़ी बहस और बातचीत यह होनी चाहिए कि आज आपदाएं कहीं पर किसी भी रूप में आ सकती हैं, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि पृथ्वी की सतह के साथ हमारा क्या व्यवहार है, उससे ही नुकसान तय होंगे. पृथ्वी के आवरण को हम कितना सुरक्षित रखते हैं, वही हमारे जान-माल को बचाने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करेगा.
हमें यह भी अवश्य समझ लेना चाहिए कि हम पृथ्वी की ऊपरी सतह, जिसे अर्थ क्रस्ट भी कहते हैं, को अब हम जितना कमजोर बना देंगे या उसके ऊपर होने वाले विकास को समुचित विज्ञानी समझ व साधनों के साथ खड़ा नहीं करेंगे, तो आपदाएं, जो आनी ही आनी हैं, उनके कहर से नहीं बच सकेंगे. कहने का मतलब है कि पृथ्वी के आवरण की ही बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है. इसे इस दृष्टि से भी देखा जा सकता है कि जितना वनाच्छादित क्षेत्र में रहेंगे, उतना पृथ्वी के आवरण को ज्यादा नुकसानों से बचा पायेंगे. वनों की भूमिका सुरक्षा के रूप में समझी जा सकती है क्योंकि काष्ठ में, चाहे तूफान हो या भूकंप, हर तरह के वाइब्रेशन को रोकने की क्षमता होती है.
बढ़ते ढांचागत विकास, आबादी या अन्य सुविधाओं के चलते हम पृथ्वी के ऊपर मनमाने बोझ लाद रहे हैं, जो कहीं न कहीं आने वाले समय में हमारी ही जान के लिए दुश्मन बन जायेंगे. इसलिए जरूरी है कि पृथ्वी के गर्भ व पर्यावरण को हम प्राथमिकता के साथ समझें, अन्यथा यह अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा.