राम के जरिये लोक में बहती सहज धारा
राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा ने कमंडल और मंडल को साथ ला दिया है. राम के जरिये लोक में बहती सहज धारा इस बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण बन गयी है. इसका यह मतलब नहीं कि प्राण-प्रतिष्ठा के बाद देश में रामराज्य आ जायेगा.
क्या कमंडल की राजनीति अपनी परिणति तक पहुंच गयी है? अयोध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है. वर्ष 1989 में हिमाचल प्रदेश के पालनपुर में भाजपा द्वारा राम मंदिर को लेकर प्रस्ताव पारित करने को कमंडल की राजनीति कहा जाने लगा. चूंकि तब तक राजनीति और मीडिया की सोच पर वामपंथी वैचारिकी का वर्चस्व था, इसलिए कमंडल की राजनीति का विशेषण थोपना आसान रहा. अगले साल आजादी की 44वीं सालगिरह के ठीक हफ्ता भर पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 11 साल से भारत सरकार के किसी आलमारी में पड़ी मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू कर दिया. इस फैसले को तब मंडल की राजनीति के रूप में जाना गया. उसकी तर्ज पर राम मंदिर का राजनीतिक आंदोलन कमंडल की राजनीति के दायरे में कैद कर दिया गया. इनमें आपसी प्रतिस्पर्धा रही, तो राजनीति की एक धारा ऐसी भी थी, जो कमंडल की राजनीति की खुलकर विरोधी थी, लेकिन वह मंडल की धारा से भी कम से कम खुले रूप में सहमत नहीं थी. इस धारा की सबसे बड़ी प्रतिनिधि कांग्रेस थी. भले ही अधूरे मन से कांग्रेस ने कमंडल की राजनीति की शुरुआत की, लेकिन अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की अपनी सोच के चलते वह लगातार असमंजस में रही. फरवरी 1986 में राम मंदिर का ताला खुलवाना कांग्रेस की जल्दबाजी की राजनीति थी. लेकिन बाद में वह इसका श्रेय लेने से भी हिचकने लगी और देखते ही देखते अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की अपनी वैचारिक सोच के दबाव में इस राजनीति की कट्टर विरोधी बन गयी. रही बात मंडल की राजनीति की, तो उसे एक पूर्व कांग्रेसी ने लागू जरूर किया, पर समाजवादी धारा की उस पारंपरिक सोच का ही मूर्त रूप थी, जो खुद को ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ के नारे से अभिव्यक्त करती थी. दोनों राजनीति का प्रभाव देखते ही देखते इतना विस्तारित हुआ कि समूची राजनीति इन्हीं दो वैचारिकी के घेरे में आ गयी. मंडल के साथ समाजवादी धारा की राजनीति के भी दो धड़े हो गये. कमंडल यानी राम मंदिर के लक्ष्य वाली राजनीति इतनी ताकतवर होती गयी कि पहले उसकी धुर विरोधी रहीं समाजवादी धारा से फूटकर निकली पार्टियों, मसलन समता पार्टी, जनता दल (यू), इंडियन नेशनल लोकदल, बीजू जनता दल, लोक शक्ति और लोक जनशक्ति आदि को उसकी ही छांव में अपना अस्तित्व नजर आने लगा.
कमंडल की राजनीति का प्रमुख चेहरा भाजपा रही है. समाजवादी धारा की राजनीति के कुछ दल अपने तात्कालिक लाभों और सत्ता के लिए भाजपा की छतरी के नीचे से छिटकते और वापस आते रहे. पर इससे एक बात साफ है कि इन दलों ने वोट के लिए भले ही खुले तौर पर मंदिर को स्वीकार नहीं किया, लेकिन उसके प्रति अपनी मौन सहमति जताते रहे. कमंडल और मंडल की राजनीति से कांग्रेस लगातार दूर होती गयी. इसका असर यह हुआ कि वह सिमटती चली गयी. मंडल और कमंडल की राजनीति के चलते भारत में मोटे तौर पर दो तरह का वोट बैंक उभरा. मंडलवाद की वजह से पिछड़ी जातियां ताकतवर हुईं, लेकिन इसने हिंदू समाज में विघटन को बढ़ावा दिया. इससे पिछड़ावाद को बढ़ावा मिला. शुरू में पिछड़ावाद के सिद्धांतकारों ने कमंडल की राजनीति को सवर्णवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया. इसे सैद्धांतिक जामा भी पहनाया और इसे स्थापित करने में कामयाब भी रहे. हालांकि कमंडल की राजनीति हकीकत में हिंदू समाज में विघटन की बजाय एकत्व को बढ़ावा देती रही. इस संदर्भ में कमंडल की राजनीति ने एक तरह से भारत को जातीय विघटन और इससे उपजे संकुचित मानस को खत्म करने की कोशिश ज्यादा की.
कालांतर में कमंडल की राजनीति ने मंडल की राजनीति को भी खुद में समाहित कर लिया. जिस भाजपा को कुछ साल पहले तक समाजवादियों और कम्युनिस्टों की ओर से बाभन-बनिया की पार्टी का तमगा हासिल था, वहां अब सवर्ण जातियों का वर्चस्व रहा ही नहीं. भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अब पिछड़ी जातियों के पास है. बाबासाहब अंबेडकर भी भाजपा के आराध्य हैं. पिछड़ी जातियों के नायक अब भाजपा के भी नायक हैं. कह सकते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर की स्थापना के बाद भारत में विघटनवाद की राजनीति को पहली बार बड़ी चोट लगी है. राम मंदिर का मूर्त रूप लेना एक तरह से कमंडल की राजनीति की स्वीकार्यता का स्थापन भी है. कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है. हालांकि उसके यहां भी कई ऐसे हैं, जिन्हें कमंडलवादी सोच स्वीकार्य होने लगी है. हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू का प्राण-प्रतिष्ठा के दिन राम मंदिर में जाना, भूपेश बघेल का राम वनगमन पथ को अपना राज रहते मान्यता देना, कमलनाथ का दावा करना कि ताला उनकी सरकार ने खुलवाया, उत्तर प्रदेश कांग्रेस के समूचे नेतृत्व का राम मंदिर के मुख्य पुजारी की कुटिया में जाकर खिचड़ी खाना आदि एक तरह से कमंडलवादी राजनीति में अपने को समायोजित करने की कोशिश ही है. तो आखिर क्या वजह है कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इसमें समाने की कोशिश नहीं कर रहा? क्या उसका अपना कोई निजी एजेंडा है, क्या उस पर कोई दबाव है? इनका जवाब कांग्रेस नेतृत्व ही दे सकता है.
कांग्रेस ने ऐसी गलती मंडल की राजनीति को लेकर भी की. उसने मंडलवाद की धारा में खुद को समायोजित करने की कोशिश भी नहीं की. मंडलवाद की ओर जब वह बढ़ी, तो उसी वक्त कमंडलवाद का प्रमुख चेहरा भाजपा भी दौड़ पड़ी, जिसमें भाजपा बहुत आगे निकल चुकी है. मंडलवादी राजनीतिक तत्वों की भले ही सहज स्वीकृति कांग्रेस को मिली है, लेकिन मंडलवादी सोच वाला लोक उसके साथ वैसे खड़ा नजर नहीं आ रहा है. कमंडल की राजनीति एक तरह से समाज को जोड़ने की राजनीति रही है. राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा ने कमंडल और मंडल को साथ ला दिया है. राम के जरिये लोक में बहती सहज धारा इस बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण बन गयी है. इसका यह मतलब नहीं कि प्राण-प्रतिष्ठा के बाद देश में रामराज्य आ जायेगा. विघटनवादी वैचारिकी के सहारे जिनकी राजनीति चलती है, वे ताकतें चुप नहीं बैठेंगी. बेशक राम मंदिर ने उनके मनोबल को चोट जरूर पहुंचायी है. उत्तर, पूर्व और पश्चिमी भारत में जिस तरह राम मंदिर के लिए लोक में लहर दिख रही है, अगर वह ऐसे ही कायम रह पायी, तो विघटनवादी ताकतों के लिए बड़ी चोट होगी. उम्मीद करना चाहिए कि समायोजन की यह धारा पूर्णिमा के समुद्री ज्वार की तरह ना हो. लोकहित में इसकी उम्र का लंबा होना जरूरी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)