रैंकिंग से गायब हिंदी पट्टी के शिक्षा संस्थान
इस तरह की रैंकिंग की व्यवस्था में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे हिंदी पट्टी के शिक्षा संस्थानों को बमुश्किल जगह मिलती है. रैंकिंग की इस व्यवस्था के लिए हिंदी पट्टी पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुकी है.
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने इस सप्ताह भारत के शीर्ष कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की सालाना रैंकिंग जारी की. इसे दो संदर्भों में देखा जाना चाहिए. एक तो यह कि यह एक अंतरराष्ट्रीय चीज है. अक्सर सुनने में आता है कि फलां रैंकिंग में भारत के फलां संस्थान को फलां स्थान मिला. इसकी न्यायसंगतता को लेकर कई वर्ष पहले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बहस हुई, जिसमें यह मुद्दा उठा कि मूल्यांकन करने वाली रैंकिंग संस्थाओं में आवेदन शुल्क रखा जाना कितना जायज है, क्योंकि यदि आवेदन के लिए फंड न हो, तो इस प्रक्रिया में शामिल नहीं हुआ जा सकता.
मगर रैंकिंग सारी दुनिया में होती है और उसमें कोई बुराई नहीं है. जैसे, भारत में यूजीसी की एक समिति ने भी रैंकिंग शुरू की है, जिसमें रैंकिंग के हिसाब से फंडिंग दी जाती है. यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में रैंकिंग की बड़ी अहमियत है जहां इनके ही आधार पर तय होता है कि किस संस्थान को कितनी फंडिंग मिलेगी या टैक्स देना होगा. भारत में पहले इसकी कोई जरूरत नहीं थी और सीधे सरकार से यूजीसी के जरिये पैसा मिलता था, मगर कुछ साल पहले उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक नयी व्यवस्था बनी है. इसमें एक फंड बनाया गया है और सभी विश्वविद्यालयों से कहा जा रहा है कि वे वहां से कर्ज लें, उससे पढ़ाई की व्यवस्था करें, और फिर उस कर्ज को लौटाएं. तो विदेशों की तरह, इसके लिए भी शिक्षण संस्थानों की रैंकिंग की जरूरत पड़ेगी.
और सरकार ने अभी जो फंड बनाया है दस हजार करोड़ रुपये का, उसमें से निजी संस्थान भी कर्ज ले सकते हैं. ऐसे में यदि उनको भी रैंकिंग में शामिल कर लिया जायेगा, तो वे भी अपनी साख के अनुसार कर्ज ले सकते हैं. और इसलिए, ऐसा लग रहा है कि धीरे-धीरे उच्च शिक्षा निजीकरण की ओर अग्रसर होती जायेगी. यह बैंकों के क्रेडिट स्कोर जैसा है जहां ग्राहकों के क्रेडिट स्कोर के आधार पर उनको कर्ज दिया जाता है. देखा यह भी जा रहा है कि रैंकिंग और ग्रेडिंग के काम में अब प्राइसवॉटर हाउस जैसी बड़ी निजी संस्थाएं भी उतर पड़ी हैं. ग्रेडिंग की एक अलग इंडस्ट्री खड़ी हो रही है.
यह प्रक्रिया सभी राज्यों में शुरू हो चुकी है. गुजरात में पहले ही शुरू हो चुका है. दिल्ली में भी हो रहा है, यहां जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय के विरोध की वजह से यह प्रक्रिया धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है, मगर यह रुकेगी नहीं. तो जैसे स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में देखने को मिल रहा है, वैसे ही भारत में अब तक सरकार पर निर्भर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी निजी क्षेत्रों की भागीदारी बढ़ती जायेगी. और, भारत को उच्च शिक्षा का एक वैश्विक बाजार बनाने की तैयारी भी हो रही है. इसी सिलसिले में पिछले दिनों विदेशी उच्च शिक्षा संस्थानों को भारत में पढ़ाने की अनुमति दी गयी. साथ ही, यह भी संभव है कि भारत इस क्षेत्र में तीसरी दुुनिया के देशों के लिये शिक्षा का एक हब बन जाए, जैसा कि मेडिकल क्षेत्र में हुआ, जब पड़ोसी और अन्य देशों से लोग चिकित्सा के लिए भारत आने लगे. उच्च शिक्षा के निजीकरण की दिशा में बढ़ने का खतरा यह है कि इससे जिनके पास ज्यादा पैसा होगा, उनके लिए अच्छे संस्थानों में पढ़ाई का मौका ज्यादा रहेगा और आगे चलकर जो कुलीन तबका है, उसका संस्थानों और सत्ता-केंद्रों में दबदबा बढ़ जायेगा. इससे सामाजिक असमानता बढ़ सकती है.
इस तरह की रैंकिंग की व्यवस्था में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे हिंदी पट्टी के शिक्षा संस्थानों को बमुश्किल जगह मिलती है. रैंकिंग की इस व्यवस्था के लिए हिंदी पट्टी पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुकी है. और इसकी वजह यह है कि पूरी हिंदी पट्टी में शिक्षा की व्यवस्था लगभग ध्वस्त हो चुकी है. हिंदी पट्टी के कॉलेजों में बस दाखिला होता है और परीक्षा होती है, पढ़ाई नहीं होती. ऐसे में रैकिंग का कोई मतलब ही नहीं है. हालांकि, यदि रैंकिंग में इन इलाकों के संस्थानों को भी शामिल कर लिया जाए, तो इससे उनकी बड़ी भलाई हो जायेगी. मुझे लगता है कि हिंदी पट्टी के छात्रों को इस बात के लिये आंदोलन करना चाहिए कि उनके संस्थानों की भी रैंकिंग करवायी जाए.
केवल यह न बताया जाए कि ऊपर के शिक्षा संस्थान कौन हैं, बल्कि सबसे नीचे कौन हैं, यह भी बताया जाए. इसलिए कुल मिलाकर रैकिंग कोई बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं है क्योंकि उसकी मंशा निजीकरण है. लेकिन, यदि यह होती भी है, तो उसमें इस बात की भी पड़ताल की जानी चाहिए कि अगर कोई शिक्षा संस्थान बेहतर नहीं कर रहा है, तो उसके साथ क्या परेशानी है. मेरा तो सुझाव है कि हिंदी पट्टी के राज्यों को भी अपनी रैंकिंग करवानी चाहिए जिससे इस बात का मूल्यांकन हो सके कि उनके यहां कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की क्या स्थिति है. उच्च शिक्षा की दशा में यदि सुधार करना है, तो पहले रैंकिंग को ही सुधारने की जरूरत है. बजाय यह बताने के कि शीर्ष कॉलेज कौन हैं और कौन सा संस्थान किस नंबर पर है, यह बताया जाना चाहिए कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में क्या कमियां हैं. यानी उच्च शिक्षा की व्यवस्था और उसकी दशा को समझने के लिये यदि कोई रैंकिंग की जाती है, तो वह बहुत अच्छी बात होगी.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)