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मिस्र की दोस्ती से अफ्रीका में जमेंगे भारत के पैर

मिस्र को भारत से स्वेज नहर क्षेत्र में निवेश, खाद्यान्न सुरक्षा के लिए गेहूं, सूचना प्रौद्योगिकी में मदद तथा खेती तथा कुटीर उद्योगों के लिए सहायता की जरूरत है. मिस्र भारत की मदद से ब्रिक्स व एससीओ जैसे संगठनों का सदस्य बनना चाहता है.

प्रोफेसर एके पाशा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मिस्र दौरे को भारत में मिस्र के राजदूत ने द्विपक्षीय रिश्तों के लिए एक अहम मोड़ बताया है. अरब गणराज्य मिस्र या एआरई या मिस्र अरब जगत का सबसे बड़ा देश है. इसकी सभ्यता 5000 साल से भी ज्यादा पुरानी है. वैसे तो मिस्र 1922 में ही ब्रिटेन से आधिकारिक तौर पर आजाद हो गया था, मगर उसे असल स्वतंत्रता 1952 में मिली, जब ब्रिटेन की शह वाली राजशाही को उखाड़ फेंका गया. गमाल अब्दुल नासिर के नेतृत्व में मिस्र ने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया और भारत, सोवियत संघ तथा अन्य विकासशील देशों के साथ विदेश संबंध बनाये. भारत ने आजाद होने के साथ ही मिस्र से कूटनीतिक रिश्ता बनाया.

वर्ष 1955 के बांडुंग सम्मेलन से नासिर-नेहरू की दोस्ती शुरू हुई. दोनों नेता एक-दूसरे के देश गये और भारत ने मिस्र के साथ मित्रता और सहयोग के लिए एक संधि की. नेहरू की सलाह पर मिस्र ने चीन को मान्यता दी, और अस्वान बांध के निर्माण से जब अमेरिका और ब्रिटेन ने हाथ खींच लिया, तो सोवियत संघ से मदद ली. भारत ने 1956 के स्वेज संकट के समय मिस्र को राजनीतिक और कूटनीतिक मदद दी. कर्नल नासिर ने 1955 में स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया था जिसके बाद ब्रिटेन, फ्रांस और इजराइल ने मिस्र पर हमला कर दिया. 1952 की क्रांति के बाद से मिस्र ने हर क्षेत्र में विकास किया. कर्नल नासिर, अनवर सादात और होस्नी मुबारक के शासनकाल में वहां आर्थिक योजनाकरण, भूमि सुधार, मजबूत निजी क्षेत्र, शिक्षा, कृषि, उद्योग तथा महत्वपूर्ण सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में काफी काम हुआ. इन नेताओं ने मिस्र में धर्मनिरपेक्षता को भी बढ़ावा दिया. हालांकि, वह भारत की तरह मजबूत लोकतंत्र नहीं बन सका.

भारत को कश्मीर और भारतीय मुसलमानों को लेकर पश्चिम एशियाई देशों में पाकिस्तानी दुष्प्रचार का सामना करने के लिए मिस्र की मदद की जरूरत थी. दोनों ही देशों ने समान संख्या में युद्ध झेले हैं. मिस्र को इजराइल के विरुद्ध 1948, 1956, 1967, 1973 में लड़ाइयां लड़नी पड़ीं. भारत ने 1947, 1962, 1965, 1971 के युद्धों के अलावा 1998 में कारगिल संघर्ष झेला. हालांकि, भारत ने गुटनिरपेक्षता की राह कभी नहीं छोड़ी और 1991 तक सोवियत संघ के नजदीक रहा. वहीं, पहले सोवियत संघ के करीबी रहा मिस्र 1973 से अमेरिका के निकट आ गया. साथ ही, भारत ने जहां मिश्रित अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र को नहीं त्यागा, वहीं मिस्र ने योजनाकरण को त्याग निजी उद्यमों को बढ़ावा दिया और वहां फौजी तानाशाह सत्ता में रहे.

राजनीतिक तौर पर, जहां भारत में 2014 से हिंदू राष्ट्रवादी दल भाजपा के नेतृत्व वाला गठबंधन सत्ता में है, वहीं मिस्र में इस्लामी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड का प्रभाव है और उससे जुड़े मोहम्मद मोर्सी थोड़े समय के लिए राष्ट्रपति रहे और उस दौरान भारत भी आए. मिस्र के आर्थिक संसाधन सीमित हैं. जैसे, उसे स्वेज नहर से आय होती है, वह कुछ निर्यात भी करता है और पिरामिडों तथा खूबसूरत समुद्र तटों से उसे पर्यटन से भी कमाई होती है. उसके पास कुछ तेल और गैस के भंडार भी हैं. भारत के लिए भी स्वेज नहर महत्वपूर्ण है, क्योंकि पश्चिम को होनेवाला अधिकतर निर्यात इसी मार्ग से होता है. भारत और मिस्र के बीच लगभग 10 अरब डॉलर का सालाना कारोबार होता है. मिस्र को भारत से स्वेज नहर क्षेत्र में निवेश, खाद्यान्न सुरक्षा के लिए गेहूं, सूचना प्रौद्योगिकी में मदद तथा खेती तथा कुटीर उद्योगों के लिए मदद की जरूरत है. मिस्र भारत की मदद से ब्रिक्स और एससीओ जैसे संगठनों का सदस्य बनना चाहता है. भारत भी चीन के प्रभाव वाले इन क्षेत्रीय संगठनों में पाकिस्तान के प्रवेश को रोकने के लिए तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट के लिए मिस्र से मदद चाहता है.

भारत अफ्रीका में अवसरों के सिलसिले में भी मिस्र की सहायता चाहता है और उसके साथ नजदीकी संबंधों से भारत के राष्ट्रीय हितों को भी लाभ पहुंचेगा. भारत में अरब-अफ्रीका सहयोग पर ध्यान देने के लिए एक अलग मंत्रालय गठित होना चाहिए. नया मंत्रालय अफ्रीकी देशों में ऐसी विकास परियोजनाओं में भारत की हिस्सेदारी का समन्वय कर सकता है, जिनकी संख्या बढ़नी तय है. साथ ही, भारत और अरब-अफ्रीकी देशों के उच्च-स्तरीय दौरों की संख्या बढ़ाने की भी जरूरत है. भारत के शीर्ष नेताओं के उत्तर अफ्रीका-अरब देशों के दौरे कम और काफी अंतर पर हुए हैं. पिछले 10 से ज्यादा वर्षों में किसी भी बड़े भारतीय नेता का पश्चिमी अरब का दौरा नहीं हुआ है.

भारत को अरब-अफ्रीका देशों को गरीबी से लड़ने के लिए आर्थिक मदद देने के अलावा देश में विकसित तकनीक भी देनी चाहिए. अरब-अफ्रीका कूटनीति में भारत के निजी क्षेत्र की भूमिका अहम हो सकती है. टाटा, इंफोसिस, सत्यम समेत अनेक कंपनियां पहले ही इस क्षेत्र में मौजूदगी बना चुकी हैं. भारत सरकार भी अपनी अरब-अफ्रीका नीति में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी को बढ़ावा दे रही है. भारत और अरब-अफ्रीका के देश गरीबी दूर करने और बुनियादी ढांचे को किफायत के साथ मजबूत करने के प्रयासों में एक समान चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. आर्थिक सहयोग तथा साझा हिस्सेदारियों से ऐसी चुनौतियों को अवसर में बदला जा सकता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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