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Bakrid 2023: ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक पर्व है ईद-उल-अजहा

Bakrid 2023: ईद-उल-अजहा को आम बोल चाल की भाषा में बकर-ईद कहा जाता है, जो इस्लाम धर्म के मानने वालों के लिए एक अहम त्योहार है. इस त्योहार को मनाने के पीछे एक बड़ा पवित्र इतिहास है.

Bakrid 2023: ईद-उल-अजहा का पर्व संदेश देता है कि मनुष्य ईश्वर की कृति है और इसके पास जो कुछ भी धन-दौलत है, वे सभी ईश्वर की देन हैं. इसीलिए इंसान को हमेशा अल्लाह के प्रति समर्पित रहना चाहिए, क्योंकि अल्लाह को बंदे का समर्पण ही सबसे अधिक पसंद है और यही उसकी सबसे बड़ी इबादत है. ईद-उल-अजहा को आम बोल चाल की भाषा में बकर-ईद कहा जाता है, जो इस्लाम धर्म के मानने वालों के लिए एक अहम त्योहार है. इस त्योहार को मनाने के पीछे एक बड़ा पवित्र इतिहास है. यह इस्लाम धर्म के उद्भव के पूर्व से प्रचलित है. हजरत इब्राहीम (अ0स0) को ईश्वर ने स्वप्न दिया कि अपनी सबसे अजीज चीजों की कुर्बानी दो. हजरत इब्राहीम जिन्हें खलीलुल्लाह (ईश्वर का मित्र) कहा जाता है, उन्होंने उस स्वप्न के आलोक में अपनी पसंदीदा चीजों की कुर्बानी दी. लेकिन पुन: स्वप्न आया कि अपनी सबसे अजीज (प्यारी) चीजों की कुर्बानी दो. अब हजरत इब्राहीम के लिए परीक्षा की घड़ी थी कि उनके के लिए सबसे प्यारी चीज उनका इकलौता बेटा हजरत इस्माईल थे.

हजरते हाजरा की कोख से हजरत इस्माईल का जन्म हुआ था

ज्ञातव्य हो कि हजरत इब्राहीम को अल्लाह ने बुढ़ापे में 85 साल की आयु में एक मात्र संतान हजरते हाजरा की कोख से हजरत इस्माईल का जन्म हुआ था. इसलिए यह पुत्र न केवल उनके जीवन का आखिरी सहारा था, बल्कि उनके लिए ईश्वर का वरदान भी था. अब हजरत इब्राहीम ने ईश्वर के इशारे पर अपने बेटे हजरत इस्माईल को ही कुर्बान करने को तैयार हो गये और जब हजरत इस्माईल की गर्दन पर तेज धारदार छुरी चलाने लगे तो ईश्वर ने हजरत इब्राहीम के समर्पण को कबूल करते हुए हजरत इस्माईल की जगह दुम्बा (एक प्रकार का जानवर) रख दिया और उसकी कुर्बानी हो गयी. हजरत इस्माईल सही-सलामत जीवित रहे, इस्लाम धर्म में हजरत इब्राहीम की इसी सुन्नत की अदायगी के लिए ईद-उल-अजहा का त्योहार मानाया जाता है.

ईद-उल-अजहा का संदेश

दरअसल, ईद-उल-अजहा का संदेश यह है कि मनुष्य ईश्वर की कृति है और इसके पास जो कुछ भी धन-दौलत है, वे सभी ईश्वर की देन हैं. इसीलिए इंसान को हमेशा अल्लाह के प्रति समर्पित रहना चाहिए, क्योंकि अल्लाह को बंदे का समर्पण ही सबसे अधिक पसंद है और यही सबसे बड़ी इबादत है. ईद-उल-अजहा हर साल इस्लामी कैलेंडर के अनुसार, जिलहिज्जह के महीने की दसवीं से बारहवीं तारीख अर्थात तीन दिनों तक कुर्बानी दी जा सकती है. लेकिन ईद-उल-अजहा की नमाज मात्र एक दिन दसवीं जिलहिज्जह को ही पूरी की जाती है और उसी दिन पूरी दुनिया के इस्लाम धर्मावलंबी मक्का में अपना हज अदा करते हैं. कुर्बानी के जानवर के लिए भी इस्लाम धर्म ने कई शर्तें रखी हैं. जानवर हलाल चौपाया हो, बीमार न हो, अपंग न हो और देखने में भी सेहतमंद व तंदुरूस्त (स्वस्थ) हो. ज्ञात हो कि कुर्बानी सभी मुसलमानों पर फर्ज (अनिवार्य) नहीं है. जो अर्थिक दृष्टि से सबल हैं, उन्हें ही कुर्बानी देने का हुक्म है. कुर्बानी के जानवर का मांस भी केवल कुर्बानी देने वाले के लिए नहीं होता, बल्कि जानवर के पूर्ण मांस को तीन हिस्सों में बांटा जाता है. एक हिस्सा जिस व्यक्ति ने अपने पैसे से कुर्बानी दी है, उसके लिए है, दूसरा हिस्सा निर्धन लोगों के बीच बांटने के लिए है और तीसरा हिस्सा अपने सगे-संबंधी एवं मित्रों के बीच तकसीम करने का आदेश है. अर्थात कुर्बानी ईश्वर के प्रति समर्पण एवं समाजिक सरोकार का भी पाठ पढ़ाता है.

ईद-उल-अजहा का ऐतिहासिक पक्ष

ईद-उल-अजहा का एक ऐतिहासिक पक्ष यह भी है कि इसी ईद-उल-अजहा के दिन हज जैसी इबादत पूरी की जाती है. इस्लाम में कुरआन और हदीस के आलोक में ही त्योहार मनाये जाते हैं और इस्लाम धर्मावलंबी का आचरण (इबादत) भी अल्लाह के फरमान (कुरआन) और हदीस (हजरत मोहम्मद स0अ0 के उपदेश) की रोशनी में ही पूर्ण समझा जाता है. हजरत इब्राहीम की सुन्नत की अदायगी हर इस्लाम धर्मावलंबी के लिए अनिवार्य है. यह त्योहार इंसान को कठिन परीक्षा के समय में धैर्य के साथ रहना, विवेक से कदम उठाना और ईश्वर के प्रति समर्पित रहने का संदेश देता है, साथ ही सामाजिक सरोकार का पैगाम भी देता है. मनुष्य केवल अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी इस दुनिया में आया है, इसका संदेश भी ईद-उल-अजहा में छुपा हुआ है. कुरआन में साफ तौर पर कहा गया है –

‘‘अल्लाह तक तुम्हारी कुर्बानियों का गोश्त (मांस) या खून हरगिज नहीं पहुंचता, बल्कि तुम्हारा तकवा (समर्पण) पहुंचता है’’.

– (कुरआन सूरह हज, आयत 37)

हजरत मोहम्मद (स0अ0) ने फरमाया- ‘‘बेशक अल्लाह तुम्हारे जिस्मों और तुम्हारी सूरतों को नहीं देखता, बल्कि तुम्हारे दिलों को देखता है’’.

– (हदीस- सही मुस्लिम, 2564)

कुर्बानी केवल धनवान या आर्थिक दृष्टि से सबल लोगों के लिए ही फर्ज है, इसलिए यदि कोई सबल व्यक्ति कुर्बानी नहीं देता है, तो इसका अर्थ है कि वह इस्लाम धर्म की नाफरमानी करता है, क्योंकि हदीस में साफ तौर पर फरमाया गया है –

‘‘जिसको कुर्बानी देने की गुंजाइश हो और वह कुर्बानी न दे, तो वह हमारी ईदगाह में न आये’’.

– (सही इब्ने माजह – 2549)

अर्थात् इस्लाम धर्म में त्योहार केवल उत्साह या तफरीह नहीं है, बल्कि प्रत्येक त्योहार का अपना एक इतिहास है और वह इतिहास कुरआन और हदीस दोनों की रोशनी में प्रचलित है. हज़रत मोहम्मद (स0अ0) ने हजरत इब्राहीम की सुन्नत अर्थात कुर्बानी देने को फर्ज बताया, इसलिए हर एक इस्लाम धर्मावलंबी जो आर्थिक दृष्टि से सबल है, उस पर कुर्बानी फर्ज है. यह त्योहार यह भी संदेश देता है कि अल्लाह ने यदि मनुष्य को इस काबिल बनाया है कि वह दूसरों के लिए सहारा बन सके और दूसरों के दुखों को दूर कर सके, तो उसके लिए उसे हर पल स्वेच्छा से तैयार रहना चाहिए. धर्म मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने का सबक देता है और हमारे धार्मिक त्योहार अपने सुखी जीवन में दूसरों को भी शामिल करने अर्थात खुशियां बांटने का संदेश देता है. कुरआन में फरमाया गया है –

‘‘बेशक मेरी नमाज, मेरी कुर्बानी, मेरा जीना और मेरा मरना सब सिर्फ अल्लाह के लिए है, जो सारे जहान का मालिक है’’

– (सूरह इन्आम, आयत 162)

कवि डॉ इकबाल ने इस त्योहार के मूल संदेश को इस पंक्ति में पेश करने की कोशिश की

उर्दू के एक महान कवि डॉ इकबाल ने इस त्योहार के मूल संदेश को इस पंक्ति में पेश करने की कामयाब कोशिश की है-

आज भी हो जो इब्राहीम का ईमां पैदा

आग कर सकती है अंदाजे गुलिस्तां पैदा

हकीकत यह है कि दुनिया के सभी धर्मों में जो त्योहार पारंपरिक तौर पर प्रचलित हैं, उन सबों का एक मात्र संदेश यह है कि ईश्वर ने मनुष्य को परोपकारी उद्देश्य से दुनिया में पैदा किया है और उसे ईश्वर के प्रति समर्पण के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए, ताकि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के लिए सहयोगी बन सके और मानव समाज अमन-व-शांति का गहवारा बन सके.

प्रो मुश्ताक अहमद

प्रधानाचार्य, सीएम कॉलेज, दरभंगा

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