अस्सी के दशक में जब एंग्री यंगमैन वाली फिल्मों का दौर था, फिल्मकार बासु चटर्जी ने एक ऐसी फिल्म बनायी, जिसमें न कोई हीरो था, न हीरोइन. सवा घंटे की इस फिल्म में हत्या के एक मुकदमें में अदालत की ओर से बनायी गयी समिति के 12 लोग हैं, जो एक कमरे में जमा होकर एक युवक के गुनाह- बेगुनाही पर जिरह कर रहे हैं. युवक पर आरोप है कि उसने अपने बूढ़े पिता की हत्या की है. पूरी फिल्म एक कमरे से शुरू होकर, उसके भीतर चल रहे संवादों के साथ, उसी में समाप्त हो जाती है. आप फिल्म समाप्त होने पर ही उठते हैं और हैरत में पड़ जाते हैं कि कैसे 12 चेहरे और उनके बीच का संवाद दर्शकों को बांधे रखता है! फिल्म अच्छी थी या बुरी ये सोचने की कोई वजह नहीं बचती. बस जिंदगी से बावस्ता ऐसे सवाल रह जाते हैं, जो जरूरी तो हैं पर जिनकी तरफ ध्यान हीं नहीं दिया जाता. इन सवालों की तरफ ले जानेवाली यह फिल्म थी -‘एक रुका हुआ फैसला’. फिल्मकार बासु चटर्जी में ही इस फिल्म को बनाने का हुनर और साहस हो सकता था.
छोटे बजट में, बिना बड़े सितारों के एक्शन विहीन फिल्म के लिए भी कैसे दर्शकों के मन में एक खास जगह बनायी जा सकती है, यह सलीका हिंदी सिनेमा के जिन चंद फिल्मकारों में रहा है, उनमें बासु चटर्जी भी शामिल थे. साहित्य से गहरे जुड़ाव ने शायद उन्हें इस तरह के सिनेमा का रास्ता सुझाया हो, पर किताबों में दर्ज कहानियों को परदे पर बांध लेनेवाले आकर्षण के साथ उतारना आसान नहीं होता. लेकिन, उन्होंने ऐसी कई कहानियों को बखूबी परदे पर उतारा. ‘स्वामी फिल्म उन्होंने शतरचंद्र के उपन्यास पर बनायी थी, इसकी पटकथा लिखी थी हिंदी की प्रसिद्ध कथाकार मन्नू भंडारी ने. मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर उन्होंने ‘रजनीगंधा’ फिल्म और राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश’ पर इसी नाम से फिल्म बनायी.
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राजस्थान के अजमेर में 10 जनवरी, 1930 को जन्मे और आगरा में पले-बढ़े बासु चटर्जी ने फिल्म निर्देशन की पढ़ाई नहीं की थीं. उन्होंने अपने आस-पास की दुनिया को देख और समझ कर सिर्फ आम आदमी का सिनेमा रचा. ब्ल्ट्जि पत्रिका से कार्टूनिस्ट के तौर पर करियर शुरू करनेवाले बासु का फिल्मनिर्देशन के क्षेत्र में आना हुआ फिल्म सोसायटी आंदोलन से जुड़ाव के चलते. इस आंदोलन ने उन्हें दुनिया भर के सिनेमा को देखने और जानने का मौका दिया. साहित्य प्रेमी बासु में सिनेमा की गहरी समझ यहीं से विकसित हुई. इसी समझ से उन्होंने ऐसी फिल्में बनायीं, जो मनोरजंक तो थीं, लेकिन उनकी बुनावट में फैंटसी नहीं, यथार्थ के धागों का इस्तेमाल हुआ था. बासु चटर्जी की पहली फिल्म राजेंद्र यादव के उपन्यास पर आधारित ‘सारा आकाश थी. इस ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म के लिए उन्हें फिल्मफेयर का बेस्ट स्क्रीनप्ले अवार्ड मिला. इसके बाद उनके निर्देशन में एक सी एक उम्दा फिल्में आती गयीं.
उन्होंने ‘पिया का घर’,‘रजनीगंधा’, ‘छोटी सी बात’,‘चितचोर’,‘चमेली की शादी’, ‘अपने पराये’, ‘खट्टा मीठा’ जैसी लोकप्रिय फिल्मों समेत हिंदी व बांग्ला भाषा में तकरीबन 35 फिल्मों का निर्देशन किया. कुछ की कहानी और स्क्रीनप्ले भी उन्होंने खुद ही लिखे. ‘छोटी सी बात’ और ‘कमला की मौत’के लिए भी उन्हें बेस्ट स्क्रीनप्ले का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला. ‘स्वामी’ के लिए फिल्मफेयर के बेस्ट डायरेक्टर अवॉर्ड से नवाजे गये. 2007 में आइफा ने उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट अवाॅर्ड से नवाजा. दूरदर्शन के धारावाहिक ‘रजनी’ और ‘व्योमकेश बख्शी’ की लोकप्रियता में भी बासु चटर्जी के बेहतरीन निर्देशन की भूमिका रही है.
बासु निर्देशित ‘एक रुका हुआ फैसला’,‘जीना यहां’ और ‘कमला की मौत’ ऐसी फिल्में हैं, जो आज के समय के हिसाब से भी मौजू लगती हैं. इन फिल्मों के विषय, द्वंद, कहानियां और किरदार हमारी जिंदगी के थे और अब भी हैं. कुछ बदला है तो ये कि बासु चटर्जी आज हमे अलविदा कह गये हैं. लेकिन, आम जिंदगी पर बनी उनकी फिल्में हर दौर में दर्शकों के दिलों को छूती रहेंगी.
रिपोर्ट : प्रीति सिंह परिहार
posted by: Budhmani Minj