फ़िल्म -गणपत ए हीरो इज बोर्न
निर्माता -पूजा फिल्म्स
निर्देशक-विकास बहल
कलाकार-टाइगर श्रॉफ़,कृति सेनॉन,अमिताभ बच्चन,गौहरख़ान,
प्लेटफार्म-सिनेमाघर
रेटिंग-डेढ़
गणपत फ़िल्म अपनी घोषणा के साथ ही सुर्ख़ियों में रही है क्योंकि यह हिन्दी सिनेमा की पहली ऐसी फ़िल्म करार दी जा रही थी, जो डिस्टोपियन दुनिया में रची गई साइंस फिक्शन फ़िल्म थी. डेस्टोपियन का गूगल में अर्थ दूढ़ेंगे, तो ऐसी जगह जहां अन्याय और पीड़ा है. फ़िल्म देखते हुए आपको यही महसूस होगा. आप ख़ुद को ठगा हुआ महसूस करेंगे. जिस फ़िल्म को फ़्यूचरिस्टिक फ़िल्म कहा जा रहा था, वो वर्तमान के साथ ठीक से न्याय नहीं कर पायी है. बेहद कमज़ोर कहानी और लचर ट्रीटमेंट ने फ़िल्म को पूरी तरह से बोझिल बना दिया है.
फ़िल्म की कहानी की शुरुआत ऐसी होती है कि विश्वयुद्ध जैसा कुछ हुआ है, जिसने भयानक तबाही मचाई और पूरी दुनिया को एक जगह ला दिया है, लेकिन उस जगह पर अमीर और ग़रीब के दो भागों में बंट गये हैं. ग़रीब के पास पेट भरने तक को रोटी तक नहीं है. अमीर 90 के दशक में वीडियो गेम जैसी दिखने वाली दुनिया में अय्याशी कर रहा है. सिर्फ़ डांस कर रहे हैं या रिंग की फाइट देख रहे है अमीर और गरीब के बीच में एक लोहे की दीवार है .ग़रीबों के मुखिया दलपती (अमिताभ बच्चन) की भविष्यवाणी है कि उनका पोता गणपत (टाइगर श्रॉफ़) इस दीवार को तोड़ेगा और ग़रीबों को उनका हक़ दिलाएगा, लेकिन गणपत गुड्डू के तौर पर अमीरों की दुनिया में ऐयाशी कर रहा है. उसे अपने दादा और पिता के बारे में कुछ मालूम नहीं है .स्क्रीनप्ले में एक बेतुका सा ट्रैक जोड़कर गुड्डू को ग़रीबों की बस्ती में पहुँचा दिया जाता है. जहां उसे अपनी पहचान के साथ-साथ अपने पॉवर को भी पाता है. क्या वह ग़रीबों को उनका हक़ दिला पाएगा. यह सब कैसे होता है. यही आगे की कहानी है .
फ़िल्म की खूबियों की बात करें तो सिवाय एक्शन के ऐसा कुछ भी नहीं है, जो ठीक ठाक बन पड़ा है .किसी भी फ़िल्म का मुख्य आधार कहानी होता है, लेकिन यहां कहानी पूरी तरह से बे सिर पैर की है,जिससे कोई कनेक्शन से अंत तक फ़िल्म से जुड़ नहीं पाता है. सबकुछ नक़ली है .ग़रीबों के हालात से ना तो आपको सहानुभूति होती है और ना ही अमीरों से नफ़रत .लॉजिक पूरी तरह से ग़ायब है. कहानी टाइम पीरियड क्या है. मेकर्स ने ये भी बताना ज़रूरी नहीं समझा है. गणपत को ग़रीब बस्ती के लोग ऐसे ही अपना मसीहा मान लेते हैं और जिस तरह से गणपत को अपने अतीत के बारे में मालूम पड़ता है. वह और भी बेतुका है. उसके जन्म से पहले उसकी मां और दादा मर गये थे, ऐसे में तस्वीर देखकर वह उन्हें अपना परिवार कैसे मान लेता है. यह बात समझ नहीं आती है .फ़िल्म में एक दो ट्विस्ट भी जोड़े गए हैं लेकिन वह भी फ़िल्म इस बोझिल फ़िल्म को कम बोझिल नहीं बना पाये हैं, क्योंकि यह ट्विस्ट आसानी से समझ आ जाते हैं.फ़िल्म अपनी घोषणा के साथ ही साइंस फिक्शन फ़िल्म कही जा रही थी, लेकिन फ़िल्म का वीएफ़एक्स बहुत ही कमज़ोर है. सिल्वरसिटी की दुनिया 90 के दशक की वीडियो गेम की दुनिया से मेल खाती है. फ़िल्म का गीत संगीत भी बेहद कमज़ोर रह गये हैं. टाइगर की एंट्री पर बैकग्राउण्ड में एक गीत बजता रहता है. थोड़े समय बाद उससे चिढ़ होने लगती है. संवाद सहित दूसरे पहलुओं में भी फ़िल्म बेहद कमज़ोर है.
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अभिनय की बात करें तो टाइगर श्रॉफ़ इस फ़िल्म में एक्शन के साथ साथ डांस, कॉमेडी सभी इमोशन को दिखाया है,लेकिन ये सभी पहलू तभी निखरते हैं, जब फ़िल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले अच्छा हो. कृति फ़िल्म में रफ़ एंड टफ अंदर में दिखी हैं, उनकी कोशिश ज़रूर अच्छी है. अमिताभ बच्चन मेहमान भूमिका में दिखें हैं. उन्हें ऐसे महत्वहीन किरदारों को करने से बचना चाहिए. गौहर ख़ान कुछ दृश्यों में बस झलक दिखला गई है. बाक़ी के किरदारों को करने के लिए कुछ ख़ास नहीं था.