जीडीपी की वृद्धि दर उत्साहजनक है

अर्थव्यवस्था में सुधार की सबसे बड़ी वजह यह है कि जो बड़े उद्योग या कारोबार हैं, वो संकट से तेजी से बाहर आ गये हैं, उन्होंने अपना मुनाफा बढ़ा लिया है. मगर इसके लिए कंपनियों ने छंटनी और कर्मचारियों के वेतनों में कटौती जैसे उपाय अपनाये. ऐसा सारी दुनिया में हो रहा है और भारत उससे अलग नहीं है.

By Abhijeet Mukhopadhyay | June 8, 2023 7:46 AM

भारत के केंद्रीय बैंक रिजर्व बैंक ने पिछले दिनों उम्मीद जतायी कि बीते वित्तीय वर्ष की अंतिम तिमाही के नतीजे उत्साहजनक रहे हैं और इसलिये पिछले वित्तीय वर्ष 2022-23 में देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृद्धि दर सात प्रतिशत से ऊपर रह सकती है. मगर आरबीआइ ने अभी इस वर्ष के लिए जीडीपी की वृद्धि या अर्थव्यवस्था की विकास दर के अपने अनुमान को 6.4 प्रतिशत ही रखा हुआ है. उसका अनुमान है कि जब आंकड़ों में संशोधन होगा तो यह सात प्रतिशत से ज्यादा हो जायेगा.

आरबीआइ ने जीडीपी के बढ़ने की वजह अर्थव्यवस्था के बड़े बुनियादी कारकों में तेजी को बताया है. उसका मानना है कि देश में उत्पादन और विनिर्माण अपनी क्षमता के अनुरूप बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं. इस क्षमता में कोविड महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से गिरावट आ गयी थी. अभी हालांकि इस बारे में कोई आंकड़े सामने नहीं आये हैं, लेकिन आरबीआइ ने विनिर्माण उद्योगों के हवाले से कहा है कि देश के उद्योग- धंधे अपनी क्षमता के 75 प्रतिशत से ऊपर काम कर रहे हैं. उसी के आधार पर आरबीआइ ने पिछले वर्ष जीडीपी के सात प्रतिशत से ऊपर चले जाने का अनुमान व्यक्त किया है. मगर यह अभी अनुमान है. इसकी पुष्टि तभी होगी जब राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) अंतिम आंकड़े जारी करेगा.

आरबीआइ ने जो अनुमान व्यक्त किया है वह विश्व बैंक के अनुमान से बहुत अलग नहीं है. विश्व बैंक ने 2023-24 के लिये भारत की विकास दर के 6.6 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया था. बाद में उसने इसमें संशोधन किया और अब इसे घटाकर 6.3 प्रतिशत कर दिया है. उन्होंने इस कटौती की वजह महंगाई, यानी मुद्रास्फीति के दर में वृद्धि बताया है. दरअसल, मुद्रास्फीति बढ़ने पर उसे नियंत्रित करने के लिए बैंकोंं को ब्याज दर बढ़ाना पड़ रहा है. इससे कर्ज महंगा हो जाता है. वह चाहे कोई व्यक्ति हो, उद्योग हो, या कंपनी, सबके लिए कर्ज महंगा हो जाता है. तो इस वजह से एक जोखिम की स्थिति तो रहती ही है, क्योंकि कर्ज महंगा होने से उत्पादन पर असर पड़ता है और उसमें थोड़ी कमी आती ही है. और इससे खपत भी प्रभावित होने लगती है, क्योंकि एक तो सामान तैयार नहीं रहता, और फिर रोजगार पर भी असर दिखाई देेने लगता है. हालांकि अभी ऐसी स्थिति नहीं है, क्योंकि अभी कोविड जैसे कारणों से मार खायी हुई अर्थव्यवस्था उबर रही है.

मगर यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि अर्थव्यवस्था में सुधार की सबसे बड़ी वजह यह है कि जो बड़े उद्योग या कारोबार हैं, वो संकट से तेजी से बाहर आ गये हैं, उन्होंने अपना मुनाफा बढ़ा लिया है. मगर इसके लिए कंपनियों ने छंटनी और कर्मचारियों के वेतनों में कटौती जैसे उपाय अपनाये. ऐसा सारी दुनिया में हो रहा है और भारत उससे अलग नहीं है. इसके अलावा, इन उद्योगों को सरकार से भी राहत या सब्सिडी दी गयी है. इन वजहों से ये कंपनियां संकट से बाहर निकल गयी हैं. लेकिन, यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि भारत की अर्थव्यस्था में सबसे बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र का है जहां काम करने वाले लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है.

कृषि के अलावा सेवा क्षेत्र और टेक्सटाइल जैसे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों में भी अधिकतर काम असंगठित तरीके से ही होता है. और वहां सुधार नहीं हो सका है. हम इसे विडंबना भी कह सकते हैं कि देश की जीडीपी तो बड़े उद्योगों और संगठित क्षेत्र पर निर्भर रहती है, लेकिन छोटे स्तर के व्यवसाय या उद्यमों में सबसे ज्यादा लोगों के जुड़े होने के बावजूद जीडीपी में उनके योगदान का हिस्सा बड़ा नहीं होता.

अर्थशास्त्र में इसे ‘के शेप’ का सुधार कहा जाता है, जिसमें कुछ क्षेत्र तो तेजी से ऊपर जाते हैं, मगर कुछ क्षेत्र नीचे जाते रहते हैं. ऐसा नहीं है कि सरकार का ध्यान इन छोटे उद्यमों पर नहीं है, उन्हें निर्यात या उत्पाद से संबंधित प्रोत्साहन देकर मदद भी दी जा रही है. लेकिन, सवाल यह है कि क्या वो काफी हैं, और शुरुआती रुझान से यही लगता है कि वह काफी नहीं है. जरूरत इस बात की है कि जो छोटे संस्थान हैं, उन्हें मदद दी जायेगी ताकि वे मजबूत हों. इससे दो फायदे होंगे. पहला, कि ज्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा, और दूसरा, कि लोगोंं के पास नौकरी की वजह से पैसे रहने से खपत बढ़ेगी.

भारत की आर्थिक सेहत में असमानता की स्थिति का अनुमान इस बात से भी लगता है कि कार उद्योग में महंगी गाड़ियों की बिक्री बहुत तेजी से बढ़ गयी है, वह कोविड के पहले की स्थिति में या उससे भी ऊपर हो गयी है. लेकिन, दोपहिया वाहनों की बिक्री में बढ़ोतरी नहीं हो रही है. टू-व्हीलर की कीमतें बहुत अधिक नहीं होतीं, और खास तौर पर छोटे कस्बों और गांवों में इनकी बिक्री आर्थिक स्थिति का एक संकेतक होती हैं. मगर अभी ऐसा लग रहा है कि वो संकेतक नीचे है, और लगातार नीचे जा रहा है. जो दर्शाता है कि अर्थव्यवस्था के बड़े समूह तो बहुत जल्दी, छह से आठ महीनेे में, उबर गये थे, मगर निचला तबका अभी भी संकट से नहीं निकल सका है.

हालांकि, दुनियाभर में, पश्चिमी देशों और चीन आदि की अर्थव्यवस्था की जो हालत है, उसे देखते हुए भारत की अर्थव्यवस्था सात की जगह यदि छह से लेकर 5.5 प्रतिशत तक की गति से भी बढ़ती है, तो भी उसकी सेहत को अच्छा कहा जायेगा. लेकिन, यह विकास दर बरकरार रहेगा, यह मान लेना सही नहीं रहेगा क्योंकि इसमें कई तरह के जोखिम और चुनौतियां भी मौजूद रहती हैं.

एक सवाल लोगों के मन में यह भी उठता है कि 2008 में आयी वैश्विक मंदी के समय भारत और चीन जैसी अर्थव्यवस्थाओं का बड़ा नाम हुआ था, तो क्या अब भी वही स्थिति बरकरार है, जहां बाहर की अर्थव्यवस्थाओं के मुश्किल में होने से भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. लेकिन उस समय से तुलना की जाए, तो ऐसा लगता है कि अभी भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में भले ही बड़े दावे किये जा रहे हैं, मगर उद्योगों के भीतर वैसा उत्साह नहीं है. पिछली बार जब दुनिया पर संकट आया था तो उद्योगों का मनोबल मजबूत था. तो यदि ऐसी स्थिति आती है कि दुनिया की बड़े देशों की अर्थव्यवस्थाएं यदि नीचे जाना शुरू करती हैं, तो उनके बीच एक अकेले भारत की अर्थव्यवस्था ऊपर जाती रहेगी, ऐसी स्थिति अभी लगती नहीं है. भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में जो सकारात्मक आंकड़े सामने आ रहे हैं उनकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले छह से आठ महीनों में भारत का निर्यात अच्छा रहा है. लेकिन, यदि बाहर मंदी आती है, तो भारत के निर्यात पर भी असर पड़ना स्वाभाविक है.

(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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