गालिब का है अंदाज-ए-बयां और
गालिब ने फारसी में भी लिखा और उर्दू में भी. लेकिन पजीराई मिली उन्हें उर्दू कलाम से. गालिब को जितनी दफा पढिए, वो अलग-अलग शेड में नजर आते हैं. मिसाल के तौर पर 'दीवान-ए-गालिब' का पहला शे‘र ही लीजिए.
मिर्जा गालिब के अंदाज-ए-बयां पर अपने मुल्क और मुल्क के बाहर शोध होता रहा है, जिक्र होता रहा है. मगर गालिब ने अपने अंदाज-ए-बयां को लेकर खुद ही कहा था- ‘हैं दुनिया में और भी सुखनवर बहुत अच्छे/ कहते हैं कि गालिब का है अंदाज-ए-बयां और.’ तो एक बड़ा व अहम सवाल है कि क्या गालिब का अंदाजे बयां औरों से मुख्तलिफ था? यकीनन मिर्जा गालिब अपने लबो-लहजा को लेकर, अपने फिक्रो-फलसफा को लेकर, अपनी सोच के दस्तरस को लेकर औरों से मुख्तलिफ थे. मेरे ख्याल में मिर्जा गालिब उर्दू अदब में सबसे जहीन व अजीम-तरीम शाइर हैं. उर्दू अदब के जितने भी शोअ’रा हुए हैं, उसमें मिर्जा गालिब मेरे सबसे अजीज हैं और मेरे लिए ही नहीं, बल्कि उर्दू अदब के जितने भी खिदमतगार हैं, उनके लिए भी मिर्जा गालिब बहुत अजीज हैं. क्योंकि गालिब का अंदाज-ए-बयां बिला शुबहा औरों से मुख्तलिफ है. गालिब जिंदगी के कई मकामात पे याद आते हैं, मिर्जा गालिब उर्दू अदब का एक ऐसा नाम है, जो हमें बताता है कि दर्द-ओ-अलम के वक्त भी जिंदगी का लुत्फ उठाना न भूलें. इसलिए उर्दू का हर खिदमतगार यह नाम बड़ी अकीदत से लेता है.
गालिब जितने मकबूल हैं, उतने मुश्किल भी हैं. उनके अश’आर जितने आसां हैं, उतने ही दुश्वार भी हैं, क्योंकि गालिब में इश्क भी है, गम भी है, मायूसी भी है, तंज भी है. और आखिर में है तसव्वुफ. ये तसव्वुफ का जो मसअ’ला है, वो ता हयात उनके साथ चलता है. हर लम्हा उनके साथ चलता है और इसलिए वे कहते हैं, ‘ये मसाइले तसव्वुफ, ये तेरा बयान गालिब/ तुझे हम वली समझते, जो न बादाख्यार होता.’ एक तरफ तसव्वुफ है और दूसरी तरफ खुद पे तंज भी कसते हैं, और यही गालिब की खुसूसियत है. गालिब इश्क करना सिखाते हैं, तो इश्क पे हंसना भी सिखाते हैं. गालिब की खुसूसियत यह है कि वो अपने अहद, अपने समय का शाइर होते हुए भी अपने अहद का शाइर नहीं है. गालिब आने वाले दिनों का शाइर है और शायद यही वजह है कि आज उनकी पैदाइश से सवा दो सौ साल गुजर जाने के बाद भी उनकी मकबूलियत में रत्तीभर भी कमी नहीं आयी है. यह हकीकत है कि गालिब अपने समय में जितने मकबूल नहीं थे, उतने आज हैं, बल्कि उससे ज्यादा हैं. लगता है, वो अभी-अभी हमसे गुफ्तगू करने आये हैं.
गालिब ने फारसी में भी लिखा और उर्दू में भी. लेकिन पजीराई मिली उन्हें उर्दू कलाम से. गालिब को जितनी दफा पढिए, वो अलग-अलग शेड में नजर आते हैं. मिसाल के तौर पर ‘दीवान-ए-गालिब’ का पहला शे‘र ही लीजिए. इसे जितनी बार पढिए, उतनी बार उसके मअ’नी अलग-अलग ढंग से खुलते नजर आते हैं. ‘नक्श फरियादी है किसकी शोखि-ए-तहरीर का/ कागजी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का.’ इस शे’र में गजब का रहस्य है और इस शे’र की तासीर बहुत दूर तक जाती है. ये फिक्र-ओ-फन और नजरिया-ए-हयात का इक तअ’रूफ है. गालिब कहते हैं कि ये दुनिया फानी है और वे खुदा से गुफ्तगू करते नजर आते हैं. फारस में बादशाह के यहां फरियादी कागज का पैरहन पहनकर जाते थे और जो हुक्म होता था, वो उनके कागजी पैरहन पर लिख दिया जाता था. गालिब कहते हैं कि पूरी दुनिया इसी तरह फरियादी बनकर खड़ी है और सब ने कागजी पैरहन पहन रखा है. और जिस तरह ये पैरहन उतर जाते हैं, उसी तरह ये जिस्म भी साथ छोड़ देता है.
गालिब में वेदांत का दर्शन भी झलकता है. इसलिए उर्दू के बड़े अदीब और नक्काद अब्दुर्ररहमान बिजनौरी ने कहा था कि हिंदुस्तान में दो ही मुकद्दस किताबें हैं- एक वेद और दूसरा दीवान-ए-गालिब. नामवर सिंह भी कहा करते थे कि उनके सिरहाने तीन किताबें हमेशा रहती हैं- एक रामचरित मानस, दूसरा गीता और तीसरा दीवान-ए-गालिब. जरा गालिब के तसव्वुफ और उनके नजरिये पर नजर डालिए कि कितना बड़ा कैनवस है. ‘जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद/ फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है/ जान तुम पर निसार करता हूं/ मैं नहीं जानता दुआ क्या है.’ तो गालिब के अश’आर के मअ’नी बहुत दूर तक जाते हैं. वो गालिब जो कहते हैं, ‘मुद्यत हुई यार को मेहमां किये हुए/ जोशे-कदह से बज्म चरागां किये हुए.’ और वही गालिब दुनिया से सवाल भी करते हैं यह कहते हुए, कि ‘हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है/ तुम्ही कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या है.’ फाका-मस्ती में रहने वाले गालिब कर्ज लेकर भी पीते रहे और कहते रहे, ‘कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे/ कि हां, रंग लावेगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन.’ कर्ज और मुफलिसी में जीने वाले गालिब एक अहम सवाल छोड़ जाते हैं, ‘बस, कि दुश्वार है हर काम का आसां होना/ आदमी को भी मयस्सर नहीं इसां होना.’ गालिब के यौमे पैदाइश पे उन्हें खिराज-ए-अकीदत