उत्तराखंड के सिलक्यारा सुरंग से सुरक्षित बचाये गये श्रमिकों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात की. उन्होंने बताया कि शुरुआत में सभी ने जिंदा बचने की उम्मीदें छोड़ दी थीं. पूर्वी सिंहभूम जिले के डुमरिया प्रखंड निवासी रंजीत लोहार ने उत्तराखंड से फोन पर प्रभात खबर को 17 दिनों तक जिंदगी के लिए जद्दोजहद की आपबीती बतायी. रंजीत ने बताया कि किस तरह उन्होंने सुरंग में शुरुआती दिन में पत्थरों से रिस रहे पानी को चाट कर जीवित रहने की कोशिश की. शुरुआत के कुछ दिन में हम जिंदा बचने की उम्मीद छोड़ चुके थे. हमने प्यास बुझाने के लिए पत्थरों से रिस रहा पानी चाटा और मुढ़ी पर जिंदा रहे. सुरंग के अंदर 17 दिन 17 वर्षों की तरह बीते. घटना के बाद 18 घंटे तक भूखे रहना पड़ा. पानी के पाइप से हमने कागज पर लिखकर अंदर फंसने की जानकारी दी. शुरुआत के दिनों में पानी का पाइप हमारा लाइफलाइन था. हमने हौसले को हारने नहीं दिया. एक-दूसरे की ताकत बने रहे.
रंजीत ने बताया कि 12 नवंबर को दीपावली को लेकर सारे मजदूर काफी उत्सुकता के साथ टनल के बाहर निकल रहे थे. इतने में शाम करीब चार से साढ़े चार के बीच टनल के अंदर एक जोरदार आवाज आयी और अंधेरा छा गया. उस वक्त टनल के अंदर तीन ठेकेदारों के 41 मजदूर थे. सभी बाहर जाने का रास्ता तलाशने लगे, लेकिन कहीं से भी रास्ता नहीं दिखायी पड़ा. हादसे की खबर किसी तरह ठेकेदार तक पहुंची. जिसके कई घंटे के बाद टनल में रोशनी आयी. इसके बाद टनल धंसने की बात सामने आयी. ऐसा लगा, मानो जिंदगी खत्म हो गयी. यहां से बाहर निकल पायेंगे या नहीं, इसकी चिंता हम सबों को सता रही थी. इस दौरान सभी मजदूरों ने एक-दूसरे को हिम्मत दिया. टनल के अंदर क्या रात-दिन दोनों एक समान थे. शुरुआती दिनों में मजदूर अपने साथ जो भोजन लेकर टनल के अंदर गये थे, वह मिल बांट कर खाया. टनल के अंदर बोरे व मोटे तिरपाल थे. उसी में सो जाते थे. पानी व बिजली की व्यवस्था थी. मजदूरों का मन लगाने के लिए प्रशासन की ओर से ताश की पत्ती, लूडो व अन्य सामग्री भेजी गयी थी. जिसे खेल कर मजदूरों ने 17 दिन बिता दिये. मोबाइल का नेटवर्क नहीं था. टनल में किसी तरह की परेशानी नहीं थी. बस डर समाया था. पाइप के जरिये हम तक भोजन पहुंच रहा था. हमलोगों से बाहर उपस्थित एक्सपर्ट से हमेशा बात होती थी. हमारे परिजन सुरंग के बाहर थे, उनसे बात होती थी. 15 दिन बाद घर वालों से बात करायी गयी. हम जहां फंसे थे, वहां लगभग 2 किलोमीटर का सुरंग था. जगह की कमी नहीं थी. सुबह-शाम हम लोग सुरंग के अंदर टहलते थे, ताकि हताश न हो, कोई तनाव में न आये. हमारा भोजन हजम हो जाये. बाहर से जो खाना मिलता था, सभी मिलकर खाते थे. सबकुछ आसान नहीं था. सभी को उम्मीद थी कि हम लोग सुरक्षित बाहर निकलेंगे और 17वें दिन हम मजदूरों को नयी जिंदगी मिली.