लखनऊ: रंग जामुनी पर साइज में जामुन से कुछ बड़ा और आकर में लगभग गोल. स्वाद, कुछ खट्टा मीठा और थोड़ा सा कसैला. इस फल को कहा जाता है ‘पनियाला.’ चार-पांच दशक पहले यह गोरखपुर का खास फल हुआ करता था. नाम के अनुरूप इसके स्वाद को याद कर इसे देखते ही मुंह में पानी आ जाता था. पर अब यह लुप्त होने के कगार पर है. सरकार ने खत्म हो रहे पनियाला के संरक्षण की योजना बनायी है.
हॉर्टिकल्चर विशेषज्ञ पद्मश्री डॉक्टर रजनीकांत ने बताया कि उत्तर प्रदेश के जिन खास 10 उत्पादों की जियोग्राफिकल इंडिकेशन (GI Tagging) पंजीकरण प्रक्रिया शुरू हुई है, इसमें गोरखपुर का पनियाला भी है. नाबार्ड के वित्तीय सहयोग से गोरखपुर के एक एफपीओ और ह्यूमन वेलफेयर एसोसिएशन के तकनीकी मार्गदर्शन में इन सभी उत्पादों का आवेदन जीआई पंजीकरण के लिए चेन्नई भेजा जा रहा है. जीआई टैग मिलने पर यह टेराकोटा के बाद यह गोरखपुर का दूसरा उत्पाद होगा. इससे पहले 2019 में गोरखपुर के टेराकोटा को जीआई टैग मिल चुका है.
औषधीय गुणों से भरपूर पनियाला के लिए जीआई टैग संजीवनी साबित होगा. इससे लुप्तप्राय हो चले इस फल को दोबारा पहचान मिलेगी. भविष्य में यह भी टेरोकोटा की तरह गोरखपुर का ब्रांड होगा. जीआई टैग किसी क्षेत्र में पाए जाने वाले कृषि उत्पाद को कानूनी संरक्षण प्रदान करता है. जीआई टैगिंग से कृषि उत्पादों के अनाधिकृत प्रयोग पर अंकुश लगाया जा सकता है.
जीआई टैगिंग किसी भौगोलिक क्षेत्र में उत्पादित होने वाले कृषि उत्पादों का महत्व बढ़ा देता है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जीआई टैग को एक ट्रेडमार्क के रूप में देखा जाता है. इससे निर्यात को बढ़ावा मिलता है, साथ ही स्थानीय आमदनी भी बढ़ती है. विशिष्ट कृषि उत्पादों को पहचान कर उनका भारत के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात और प्रचार प्रसार करने में आसानी होती है.
जीआई टैगिंग का लाभ न केवल गोरखपुर के किसानों को बल्कि देवरिया, कुशीनगर, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, बस्ती, संतकबीरनगर, बहराइच, गोंडा और श्रावस्ती के बागवानों को भी मिलेगा. क्योंकि ये सभी जिले समान एग्रोक्लाईमेटिक जोन (कृषि जलवायु क्षेत्र) में आते हैं. इन जिलों के कृषि उत्पादों की खूबियां भी एक जैसी होंगी.
पनियाला के पेड़ 4-5 दशक पहले तक गोरखपुर में बहुतायत में मिलते थे. लेकिनपर अब यह लगभग लुप्तप्राय है. यूपी स्टेट बायोडायवरसिटी बोर्ड की ई-पत्रिका के अनुसार मुकम्मल तौर पर यह ज्ञात नहीं है कि यह कहां को पेड़ है, पर बहुत संभावना है कि यह मूल रूप से उत्तर प्रदेश का ही है.
2011 में एक हुए शोध के अनुसार इसके पत्ते, छाल, जड़ों एवं फलों में एंटी बैक्टिरियल प्रॉपर्टी होती है. इस कारण इस फल के इस्तेमाल से पेट के कई रोगों में लाभ मिलता है. स्थानीय स्तर पर पेट के कई रोगों, दांतों एवं मसूढ़ों में दर्द, इनसे खून आने, कफ, निमोनिया और खरास आदि में भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है. फल लिवर के रोगों में भी उपयोगी पाए गए हैं. फल को जैम, जेली और जूस के रूप में संरक्षित कर लंबे समय तक रखा जा सकता है. लकड़ी जलावन और कृषि कार्यो के लिए उपयोगी है.
पनियाला परंपरागत खेती से अधिक लाभ देता है. कुछ साल पहले करमहिया गांव सभा के करमहा गांव में पारस निषाद के घर यूपी स्टेट बायो डायवरसिटी बोर्ड के आर दूबे गये थे. पारस के पास पनियाला के नौ पेड़ थे. अक्टूबर में आने वाले फल के दाम उस समय प्रति किग्रा 60-90 रुपये थे. प्रति पेड़ से उस समय उनको करीब 3300 रुपये आय होती थी. अब तो ये दाम दोगुने या इससे अधिक होंगे. लिहाजा आय भी इसी अनुरूप होगी. खास बात ये है कि पेड़ों की ऊंचाई करीब नौ मीटर होती है. लिहाजा इसका रखरखाव भी आसान होता है.
ऐसी दुर्लभ चीजों में रुचि लेने वाले गोरखपुर के वरिष्ठ चिकित्सक डॉक्टर आलोक गुप्ता के मुताबिक पनियाला गोरखपुर का विशिष्ट फल है. शारदीय नवरात्री के आस-पास यह बाजार मे आता है. सीधे खाएं तो इसका स्वाद मीठा एवं कसैला होता है. हथेली या उंगलियों के बीच धीरे धीरे घुलाने के बाद खाएं तो एकदम मीठा.