ब्रिक्स में बढ़ती अन्य देशों की दिलचस्पी
ब्रिक्स बनने से पहले विकासशील देशों की आवाज उठाने के लिए कोई प्रभावी वैश्विक मंच नहीं था. ब्रिक्स बनने के बाद विकासशील देशों के मुद्दों को थोड़ी बहुत आवाज मिलनी शुरू हुई. शायद इसीलिए अब और कई विकासशील देश ब्रिक्स की सदस्यता लेने हेतु इच्छुक हैं.
हाल ही में दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में ब्रिक्स समूह का शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ. सम्मेलन की खास बात यह रही कि अब संगठन में छह और देशों – अर्जेंटीना, यूएई, ईरान, सऊदी अरब, इथियोपिया और मिस्र को शामिल करने का निर्णय लिया गया है. ‘ब्रिक’ गोल्डमैन सैक्स के अर्थशास्त्री जिम ओ’नील द्वारा 2001 में गढ़ा गया एक शब्द है, जिसमें भविष्यवाणी की गयी थी कि चार देश- ब्राजील, रूस, भारत और चीन (ब्रिक) वर्ष 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर हावी हो जायेंगे. हालांकि ब्रिक औपचारिक रूप से 2009 में अस्तित्व में आया, जब इसका पहला शिखर सम्मेलन हुआ, लेकिन ऐसे समूह के गठन की चर्चा 2006 में शुरू हो गयी थी. बाद में, 2011 में दक्षिण अफ्रीका भी ब्रिक में शामिल हो गया, जिसके बाद इस समूह को ब्रिक्स के नाम से जाना जाता है.
मुल्कों के समूह बना कर आपसी सहयोग को आगे बढ़ाना अंतरराष्ट्रीय जगत में कोई नयी बात नहीं है, लेकिन ब्रिक्स की स्थिति अलग है. यह देशों का एक गुट मात्र नहीं है. वास्तव में यह उन देशों का समूह है, जो अमेरिका और पश्चिम के देशों के वैश्विक व्यवस्था में कायम दबदबे और आर्थिक ताकत को चुनौती दे रहे थे. वर्तमान में जो पांच देश ब्रिक्स में शामिल हैं, वहां की अर्थव्यवस्था में तेजी से संवृद्धि हो रही है. वहीं, विकसित देशों की समृद्धि थम चुकी है. यही कारण है कि वैश्विक जीडीपी में ब्रिक्स के इन पांच सदस्य देशों की हिस्सेदारी, जो वर्ष 2011 में केवल 20.51 प्रतिशत थी, वर्ष 2023 तक बढ़ कर 26.62 प्रतिशत हो गयी है.
गौरतलब है कि ब्रिक्स बनने से पहले विकासशील देशों की आवाज उठाने के लिए कोई प्रभावी वैश्विक मंच नहीं था. ब्रिक्स बनने के बाद विकासशील देशों के मुद्दों को थोड़ी बहुत आवाज मिलनी शुरू हुई. शायद इसलिए अब और कई विकासशील देश ब्रिक्स की सदस्यता लेने हेतु इच्छुक हैं. छह नये सदस्यों के आने के बाद विस्तृत ब्रिक्स समूह वैश्विक जीडीपी के 29.6 प्रतिशत और वैश्विक जनसंख्या के 46 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधित्व करने लगेगा. गौरतलब है कि चीन और रूस को छोड़ शेष सभी देश व्यापार घाटे की समस्या से जूझ रहे हैं. अभी तक अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भुगतान अधिकांशतः अमेरिकी डॉलर में ही होता रहा है. व्यापार घाटे से जूझते हुए ये देश कई बार भुगतानों की समस्याओं का भी सामना करते रहे हैं. इस समस्या का कुछ हद तक समाधान घरेलू मुद्रा में भुगतान से हो सकता है.
भारत ने भी अंतरराष्ट्रीय व्यापार का भुगतान रुपये से करने की ओर कदम बढ़ाया है, और 19 देशों के साथ उल्लेखनीय प्रगति भी हुई है, लेकिन विकासशील देशों को घरेलू मुद्रा से अंतरराष्ट्रीय व्यापार करने में विशेष सफलता नहीं मिली है. पिछले कुछ समय से ब्रिक्स में देसी मुद्राओं में अंतरराष्ट्रीय भुगतान के बारे में वार्ताएं चल रही हैं. यही नहीं ब्रिक्स देशों के बीच अपनी मुद्रा शुरू करने की कवायद भी चल रही है. इस नयी मुद्रा से ब्रिक्स देशों केआपसी व्यापार में वृद्धि होगी और डॉलर की कीमत में परिवर्तन की ऊंची लागत से भी बचा जा सकेगा. यह इतना आसान नहीं होगा, लेकिन शुरुआती तौर पर ब्रिक्स देश आपस में घरेल मुद्राओं में व्यापार करने के इच्छुक दिखाई दे रहे हैं. ऐसे समाचार हैं कि हाल में संपन्न शिखर सम्मेलन में भारत, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील ने देसी मुद्राओं में व्यापार की तरफ कदम बढ़ाएं हैं. भारत ने रूस के साथ भी कुछ मात्रा में रुपयों में व्यापार भुगतान की शुरुआत की है. ब्रिक्स के विस्तार से अंतरराष्ट्रीय व्यापार में देसी मुद्राओं में भुगतान को बल मिलेगा. इससे डॉलर का एकाधिकार कम करने में सहायता मिलेगी. यही नहीं ब्रिक्स देशों के बीच आपसी व्यापार बढ़ने से इन देशों की आर्थिक संवृद्धि को भी बल मिल सकता है.
वास्तव में यह विकासशील देशों के बीच आपसी संबंध और सहकार बढ़ाने में काफी हद तक मददगार हो सकता है. एक जमाना था, जब दुनिया द्विध्रुवीय थी. दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ के समर्थकों में बंटी हुई थी. भारत समेत कई मुल्क किसी गुट में नहीं थे. सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय हो गयी, लेकिन वर्तमान में अमेरिका के प्रभाव में कमी, और दूसरी तरफ भारत, चीन और कुछ अन्य विकासशील देशों की उभरती ताकत के कारण एक बहुध्रुवीय विश्व का उदय हो रहा है, लेकिन अब भी कुछ देश कुछ बड़ी ताकतों के पीछे खड़े दिखाई देते हैं. ब्रिक्स यूरोप और अमेरिकी प्रभाव से मुक्त एक शक्तिशाली समूह के रूप में उभरता दिखाई देता है, लेकिन जिन छह मुल्कों को ब्रिक्स में शामिल किया जा रहा है, उनमें से कुछ अमेरिका के प्रभाव में हैं. कुछ मुल्क ऐसे भी हैं, जो पहले अमेरिका के प्रभाव में थे, अब उसके प्रभाव में नहीं रहे. उधर चीन का भी प्रभाव बढ़ा है और कुछ देश अब उसके प्रभाव में भी दिखाई दे रहे हैं. भारत और चीन के आपसी संबंधों में कड़वाहट है. ऐसे में अलग-अलग देशों की अलग-अलग निष्ठाओं के कारण ब्रिक्स समूह कैसे एकरूपता से काम कर पायेगा, इसके बारे में संदेह भी व्यक्त किये जा रहे हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)