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Sawan Somvar 2020 : रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए ही रची थी शिवताण्डव-स्तोत्र, आइए समझें इसकी विशेषता

Sawan Somvar 2020, shiv tandav stotram : भगवान शिव की महिमा और उनकी शक्तियों का थाह लगाना किसी के वश में नहीं. भोलेनाथ जितने विशाल और व्यापक हैं, उतने ही वे भक्तों के लिए दायलु भी हैं. ज्योतिषाचार्य कहते हैं कि शिव को मनाने के लिए और उनसे विशेष कृपा पाने के लिए अद्भुत फलदायी है ‘शिवताण्डव-स्तोत्र’ का पाठ. यह इतना प्रभावी है कि इसके पाठ से रावण ने कैलाशपति को प्रसन्न कर उनसे विशेष कृपा और शक्तियां हासिल की थीं. भगवान शिव के परम भक्त रावण द्वारा की गयी यह विशेष स्तुति छंदात्मक है और इसमें बहुत सारे अलंकार हैं. भक्तों के लिए शिवताण्डव-स्तोत्र का पाठ बेहद चमत्कारी और कल्याणकारी है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 20, 2020 9:45 AM

ह म रावण को चाहे जिस रूप में देखें, पर उसके पाण्डित्य पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता! हां, जहां गुण रहता है, वहीं अवगुण भी होता है न! सृष्टि सत्त्व, रज, तम; इन्हीं तीनों गुणों के मेल से बनी है और कमोबेश सबमें इन तीनों का रहना ही रहना है. किसी में सत्त्व अधिक रजोगुण और तमोगुण कम-कम. किसी में तमोगुण ही ज्यादा से ज्यादा तथा रजोगुण कम एवं सत्त्व की मात्रा नाममात्र. हैं तो तीनों ही न! रावण में रजोवृत्ति सर्वाधिक थी. तमोवृत्ति का स्थान दूसरा और सात्त्विकता तीसरे स्थान पर थी. वह भी वेदमार्गी ही था, परंतु उस पर यह कथन चरितार्थ होता है- ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’, अर्थात् आचरण से ढीला व्यक्ति चाहे कितना भी कर ले, वेद (ज्ञान) उसे पवित्र नहीं कर सकता. उसकी कामुकता उसके सारे वैदुष्य पर कालिख ही पोतती गयी और सीताहरण ने उसके पाप के घड़े को लबालब भर दिया.

खैर, हम रावण की शिवभक्ति की ओर चलें. वह पक्का शिवभक्त था. वह कैलास पर जाकर नाना विधियों से शिवाराधन करता रहा, फिर भी जब कृपा प्राप्त न हुई, तो वह हवनकुंड में स्वयं को आहूत करने को तत्पर हो गया. यह देख महादेव प्रकट हो गये. उन्होंने वर मांगने को कहा तो उसने कहा –

प्रसन्नो भव देवेश! लंकां च त्वां नयाम्यहम्।

सफलं कुरु मे कामं त्वामहं शरणं गतः।।

(शिवपुराण,कोटिरुद्रसंहिता-28.11)

अर्थात्, हे देवेश! प्रसन्न होइए. मेरी कामनाएं पूर्ण कीजिए. मुझ शरणागत पर कृपा कर लंका चलिए. मैं ले चलने को तत्पर हूं. अब तो वह नकार नहीं सकते थे, तो शर्त रख दी कि ठीक है, परंतु मुझे ले जाने में कभी भूमि पर मेरा लिंग मत रखना. अगर रखा, तो वह वहीं स्थापित हो जायेगा. टस से मस नहीं होगा –

भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि यत्र वै।

स्थास्यत्यत्र न सन्देहो यथेच्छसि तथा कुरु।। (वहीं 28.15)

कहते हैं, शर्त मान वह ले चला, पर लघुशंका के वेग को न सह सकने के कारण रास्ते में दिखे एक गोप को संभाल रखने को देकर मूत्रोत्सर्ग करने लगा. असह्य भार के कारण वह ग्वाला जमीन पर रख चला गया. रावण की लाख कोशिशों के बाद भी शिवलिंग अटल-अचल रहा. ‘वैद्यनाथ’ नाम से वह लिंग आज भी पूजित एवं महिमामय है.

वह शिवलिंग नहीं आ सका तो क्या हुआ, उसने आराधना नहीं छोड़ी. वह समान लिंग निर्माण कराकर लंका में भी शिवभक्ति की अपनी गंगा प्रवाहित करता रहा. वह शक्तिमान कवि भी था, इसलिए स्वयं स्तोत्र भी रच डाला. वह जितना भावविह्वल हो गाता, उतना ही भगवान भी रीझते. जब कल्याण रूप शिव ही प्रसन्न रहें, तो कौन उसका बाल बांका कर सकता था? सभी उसके शारीरिक एवं बौद्धिक शक्ति के चाकर होते गये. जब सब कुछ सहज-सुलभ होता जाये और बड़े-से-बड़े शत्रु भी नतमस्तक हो जायें, तो अंततः घमंड हो ही जाता है. रावण भी राक्षसी वृत्तियों में सनते-सनते पापिष्ठ होता गया.

खैर, रावण की शिवभक्ति बेमिसाल थी. उसके द्वारा किया जानेवाला स्तवन भी बेजोड़ रहा. वह स्तुतिगान कर ही पूजावसान करता. वह जब गाता तो वातावरण में गजब का समां बंध जाता. ऐसा लगता, मानो जड़-चेतन ही नर्तन करने लगे हों. सब विभोर हो शब्दसौष्ठव और भावसौष्ठव दोनों का समान मेल देख कारयित्री और भवयित्री प्रतिभाओं का भूरिशः अभिनंदन करने लगते. वह नित्य विधि-विधान से पूजा पूर्ण कर भावार्पण में शुरू हो जाता –

जटाटवी- गलज्ज्वल- प्रवाहपावितस्थले गलेsवलम्ब्य लम्बितां भुजंग- तुंगमालिकाम्।

डमड्डम- डमड्डमन्- निनादवड् डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्’।।

अर्थात्, जिनकी जटा रूपी वन से निकली गंगाजी के प्रवाह से स्नात एवं पवित्र सर्पों की माला गले में लटकी है, जिन्होंने डमरु की डम-डम ध्वनियों से तालबद्ध प्रचंड नर्तन किया है; वह कल्याणमय शिव हमारे कल्याण की वृद्धि करें.

यहां ‘ताण्डव’ आया है. कहते हैं, इस नृत्य के प्रवर्तक ताण्डु मुनि हैं और उन्हीं के नाम पर ताण्डव नृत्य कहा गया है. प्रवर्तक होंगे तो होंगे, पर शिव तो सभी प्रवर्तकों के प्रवर्तक हैं- ‘ईशानः सर्वविद्यानाम्’(शिव सभी विद्याओं के स्वामी हैं). कहते हैं, शिव के ताण्डव और पार्वती के लास्य को क्रमशः पुरुषप्रधान, स्त्रीप्रधान नर्तन मानकर अर्धनारीश्वर व वागर्थ की तरह ताल शब्द बना है. महेश्वर संहार के भी देवता हैं, अतः नटराज की इस कला में प्रलय का रूप भी देखा जाता है. यहां लंकेश भी दूसरे पद्य में घोर-अघोर दृश्य उपस्थित करते स्तवन करता है –

जटाकटाह- सम्भ्रम- भ्रमन्निलिम्प- निर्झरी विलोल- वीचि- वल्लरी- विराजमान- मूर्द्धनि।

धगद्-धगद्-धगज्वलल्- ललाटपट्ट- पावके किशोर- चन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम।।

अर्थात्, जिनका मस्तक जटारूपी कड़ाह में घूमती गंगा की चंचल तरंगों से सुशोभित है, जिनके ललाट से दिव्याग्नि धक् धक् करती जल रही है, जिनके सिर पर बालचंद्र विराजमान है, वह अपने प्रति मेरी भक्ति-अनुरक्ति में वृद्धि करें.

पता नहीं, रावण ने इस स्तोत्र में कितने पद्य रचे थे, क्योंकि पंद्रह से सत्रह तक मिले हैं. क्षेपक भी हो सकते हैं, फिर भी इसकी छान्दस योजना अतीव हृदयावर्जक है. इसे ओज और माधुर्य के साथ भी गाया जा सकता है. इसके छंद का नाम ‘पंचचामर’ है. ‘छन्दोमंजरी’ के अनुसार, ‘प्रमाणिका- पदद्वयं वदन्ति पंचचामरम्’। यानी, यह वार्णिक छंद है और सोलह-सोलह वर्णों के चार चरण होते हैं. इसकी वर्णयोजना की सबसे बड़ी विशेषता है कि एक ह्रस्व, एक दीर्घ अक्षर क्रमशः आते-जाते हैं.

हम रावण को चाहे जिस रूप में देखें, पर उसके पाण्डित्य पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता! हां, जहां गुण रहता है, वहीं अवगुण भी होता है न! सृष्टि सत्त्व, रज, तम; इन्हीं तीनों गुणों के मेल से बनी है और कमोबेश सबमें इन तीनों का रहना ही रहना है. किसी में सत्त्व अधिक रजोगुण और तमोगुण कम-कम. किसी में तमोगुण ही ज्यादा से ज्यादा तथा रजोगुण कम एवं सत्त्व की मात्रा नाममात्र. हैं तो तीनों ही न! रावण में रजोवृत्ति सर्वाधिक थी. तमोवृत्ति का स्थान दूसरा और सात्त्विकता तीसरे स्थान पर थी. वह भी वेदमार्गी ही था, परंतु उस पर यह कथन चरितार्थ होता है- ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’, अर्थात् आचरण से ढीला व्यक्ति चाहे कितना भी कर ले, वेद (ज्ञान) उसे पवित्र नहीं कर सकता. उसकी कामुकता उसके सारे वैदुष्य पर कालिख ही पोतती गयी और सीताहरण ने उसके पाप के घड़े को लबालब भर दिया.

खैर, हम रावण की शिवभक्ति की ओर चलें. वह पक्का शिवभक्त था. वह कैलास पर जाकर नाना विधियों से शिवाराधन करता रहा, फिर भी जब कृपा प्राप्त न हुई, तो वह हवनकुंड में स्वयं को आहूत करने को तत्पर हो गया. यह देख महादेव प्रकट हो गये. उन्होंने वर मांगने को कहा तो उसने कहा –

प्रसन्नो भव देवेश! लंकां च त्वां नयाम्यहम्।

सफलं कुरु मे कामं त्वामहं शरणं गतः।।

(शिवपुराण,कोटिरुद्रसंहिता-28.11)

अर्थात्, हे देवेश! प्रसन्न होइए. मेरी कामनाएं पूर्ण कीजिए. मुझ शरणागत पर कृपा कर लंका चलिए. मैं ले चलने को तत्पर हूं. अब तो वह नकार नहीं सकते थे, तो शर्त रख दी कि ठीक है, परंतु मुझे ले जाने में कभी भूमि पर मेरा लिंग मत रखना. अगर रखा, तो वह वहीं स्थापित हो जायेगा. टस से मस नहीं होगा –

भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि यत्र वै।

स्थास्यत्यत्र न सन्देहो यथेच्छसि तथा कुरु।। (वहीं 28.15)

कहते हैं, शर्त मान वह ले चला, पर लघुशंका के वेग को न सह सकने के कारण रास्ते में दिखे एक गोप को संभाल रखने को देकर मूत्रोत्सर्ग करने लगा. असह्य भार के कारण वह ग्वाला जमीन पर रख चला गया. रावण की लाख कोशिशों के बाद भी शिवलिंग अटल-अचल रहा. ‘वैद्यनाथ’ नाम से वह लिंग आज भी पूजित एवं महिमामय है.

वह शिवलिंग नहीं आ सका तो क्या हुआ, उसने आराधना नहीं छोड़ी. वह समान लिंग निर्माण कराकर लंका में भी शिवभक्ति की अपनी गंगा प्रवाहित करता रहा. वह शक्तिमान कवि भी था, इसलिए स्वयं स्तोत्र भी रच डाला. वह जितना भावविह्वल हो गाता, उतना ही भगवान भी रीझते. जब कल्याण रूप शिव ही प्रसन्न रहें, तो कौन उसका बाल बांका कर सकता था? सभी उसके शारीरिक एवं बौद्धिक शक्ति के चाकर होते गये. जब सब कुछ सहज-सुलभ होता जाये और बड़े-से-बड़े शत्रु भी नतमस्तक हो जायें, तो अंततः घमंड हो ही जाता है. रावण भी राक्षसी वृत्तियों में सनते-सनते पापिष्ठ होता गया.

खैर, रावण की शिवभक्ति बेमिसाल थी. उसके द्वारा किया जानेवाला स्तवन भी बेजोड़ रहा. वह स्तुतिगान कर ही पूजावसान करता. वह जब गाता तो वातावरण में गजब का समां बंध जाता. ऐसा लगता, मानो जड़-चेतन ही नर्तन करने लगे हों. सब विभोर हो शब्दसौष्ठव और भावसौष्ठव दोनों का समान मेल देख कारयित्री और भवयित्री प्रतिभाओं का भूरिशः अभिनंदन करने लगते. वह नित्य विधि-विधान से पूजा पूर्ण कर भावार्पण में शुरू हो जाता –

जटाटवी- गलज्ज्वल- प्रवाहपावितस्थले गलेsवलम्ब्य लम्बितां भुजंग- तुंगमालिकाम्।

डमड्डम- डमड्डमन्- निनादवड् डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्’।।

अर्थात्, जिनकी जटा रूपी वन से निकली गंगाजी के प्रवाह से स्नात एवं पवित्र सर्पों की माला गले में लटकी है, जिन्होंने डमरु की डम-डम ध्वनियों से तालबद्ध प्रचंड नर्तन किया है; वह कल्याणमय शिव हमारे कल्याण की वृद्धि करें.

यहां ‘ताण्डव’ आया है. कहते हैं, इस नृत्य के प्रवर्तक ताण्डु मुनि हैं और उन्हीं के नाम पर ताण्डव नृत्य कहा गया है. प्रवर्तक होंगे तो होंगे, पर शिव तो सभी प्रवर्तकों के प्रवर्तक हैं- ‘ईशानः सर्वविद्यानाम्’(शिव सभी विद्याओं के स्वामी हैं). कहते हैं, शिव के ताण्डव और पार्वती के लास्य को क्रमशः पुरुषप्रधान, स्त्रीप्रधान नर्तन मानकर अर्धनारीश्वर व वागर्थ की तरह ताल शब्द बना है. महेश्वर संहार के भी देवता हैं, अतः नटराज की इस कला में प्रलय का रूप भी देखा जाता है. यहां लंकेश भी दूसरे पद्य में घोर-अघोर दृश्य उपस्थित करते स्तवन करता है –

जटाकटाह- सम्भ्रम- भ्रमन्निलिम्प- निर्झरी विलोल- वीचि- वल्लरी- विराजमान- मूर्द्धनि।

धगद्-धगद्-धगज्वलल्- ललाटपट्ट- पावके किशोर- चन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम।।

अर्थात्, जिनका मस्तक जटारूपी कड़ाह में घूमती गंगा की चंचल तरंगों से सुशोभित है, जिनके ललाट से दिव्याग्नि धक् धक् करती जल रही है, जिनके सिर पर बालचंद्र विराजमान है, वह अपने प्रति मेरी भक्ति-अनुरक्ति में वृद्धि करें.

पता नहीं, रावण ने इस स्तोत्र में कितने पद्य रचे थे, क्योंकि पंद्रह से सत्रह तक मिले हैं. क्षेपक भी हो सकते हैं, फिर भी इसकी छान्दस योजना अतीव हृदयावर्जक है. इसे ओज और माधुर्य के साथ भी गाया जा सकता है. इसके छंद का नाम ‘पंचचामर’ है. ‘छन्दोमंजरी’ के अनुसार, ‘प्रमाणिका- पदद्वयं वदन्ति पंचचामरम्’। यानी, यह वार्णिक छंद है और सोलह-सोलह वर्णों के चार चरण होते हैं. इसकी वर्णयोजना की सबसे बड़ी विशेषता है कि एक ह्रस्व, एक दीर्घ अक्षर क्रमशः आते-जाते हैं.

पूजावसान- समये दशवक्त्र- गीतं यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।

तस्य स्थिरां रथ- गजेन्द्र- तुरंगयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः’।।

अर्थात्, गोधूलि वेला में भगवान शंकर की पूजा कर जो कोई भक्तिपूर्वक रावणकृत इस स्तोत्र का पाठ करता है, उस पर प्रसन्न हो महादानी महेश्वर उसे विविध वाहन, समस्त साधन तथा स्थिर लक्ष्मी प्रदान करते हैं. जब इस स्तोत्र की इतनी महिमा है, तो हम भी क्यों न लाभान्वित हों! यदि यह रावणकृत है और आज भी प्रचलन में है, तो प्रमाणित हो जाता है कि अतिप्राचीन काल से अब तक यह दवा कारगर रही है, फिर थोड़ा उच्चारण में कठिन होने से हम इससे वंचित क्यों रहें?

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