जैन धर्म के 24 तीर्थकरों में प्रथम ऋषभनाथ हैं, तो अंतिम भगवान महावीर. इनमें भगवान पार्श्वनाथ 23वें तीर्थकर थे, जो इस संसार में धर्म नीतियों का प्रकाश लेकर आये और ऐसे जीवन मूल्यों की स्थापना की. इनके माध्यम से धर्म एक नये रूप में प्रस्तुत हुआ. उनकी साधना की कसौटी थी- ‘शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण’. उन्होंने हमें बताया कि बिना पवित्रता धर्म आचरण नहीं बन सकता. उन्होंने मनुष्य को कर्मवीर बनने का संदेश दिया, पुरुषार्थ से भाग्य बदलने का सूत्र दिया.
आज से करीब तीन हजार वर्ष पूर्व इसी वास्तविक और विशुद्ध धर्म को जैन धर्म के तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ ने स्थापित कर यह उपदेश दिया था. उन्होंने उपासनापरक और क्रियाकांड युक्त धर्म को महत्व न देकर जीवंत धर्म की प्रतिस्थापना की. वे अज्ञान-अंधकार, आडंबर एवं क्रियाकांड के मध्य क्रांति का बीज बन कर पृथ्वी पर जन्मे थे.
तब तापस परंपरा में वे क्रांति की ज्वाला की तरह प्रकट हुए थे. उनका जीवन जहां तापस युग का अंत था, तो दूसरे बौद्धिक साधना का प्रारंभ. जैन पुराणों के अनुसार, तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे. पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलतः ही वे तेईसवें तीर्थंकर बने.
भगवान पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व (कल्पसूत्र के अनुसार भगवान महावीर से लगभग 250 वर्ष पूर्व) पौष कृष्ण एकादशी के दिन वाराणसी में इक्ष्वाकु वंश के राज परिवार में हुआ था. पिता राजा अश्वसेन वाराणसी के राजा थे तथा माता का नाम वामादेवी था. वह बाल्यकाल से ही ज्ञानी थे.
कुछ मतों के अनुसार, कालक्रम में जब वे युवावस्था में पहुंचे, तो कुशस्थल नगर की राजकुमारी प्रभावती के साथ उनका विवाह हुआ. हालांकि वह संसार से अनासक्त थे, लेकिन पिता के आग्रह के कारण विवाह का प्रस्ताव स्वीकार किया.
30 वर्ष की अवस्था में एक दिन राजसभा में ‘ऋषभदेव चरित’ सुनकर इन्हें वैराग्य हो गया. तत्पश्चात् भगवान पार्श्वनाथजी गृह त्याग कर संन्यासी हो गये. वे पदार्थ छोड़ परमार्थ की यात्रा पर निकल पड़े. उन्होंने जीवन शुद्धि के लिए कठोर तप किया. पौष माह की कृष्ण एकादशी को आपने दीक्षा ग्रहण की. 83 दिनों तक कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन चैत्र कृष्ण चतुर्थी को सम्मेद पर्वत पर ‘घातकी वृक्ष’ के नीचे कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई.
श्रावण शुक्ल की सप्तमी को पारसनाथ पहाड़ (झारखंड) पर निर्वाण हुआ. इस पहाड़ को ‘सम्मेद शिखर’ कहा जाता है. साधना क्रम में ध्यान करते हुए उन्होंने एक अपूर्व संकल्प लिया- ‘‘वृक्ष से टूटकर गिरी हुई टहनी की तरह मैं अपने साधना काल में निष्चेष्ट रहूंगा. ध्यानावस्था में मुझे कितना ही उपसर्ग क्यूं न सहना पड़े, लेकिन मैं स्थिर व अचल रहूंगा.’’
कैवल्य के पश्चात्य भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह) की शिक्षा दी. अज्ञानता के अंधकार में भटक रहे मनुष्य को धर्म का मार्ग दिखाया. 70 वर्षों तक तीर्थंकर पर्याय का पालन करते हुए उन्होंने अपने मत और विचारों का प्रचार-प्रसार किया तथा सौ वर्ष की आयु में देह त्याग दी.
जैन धर्मावलंबियों अनुसार भगवान पार्श्वनाथ का प्रतीक चिह्न सर्प, चैत्यवृक्ष- धव, यक्ष- मातंग, यक्षिणी- कुष्माडी हैं. इनके शरीर का वर्ण नीला, जबकि इनका चिह्न सर्प है.
भगवान पार्श्वनाथ की धर्म-देशना से लाखों आत्माओं ने अपना कल्याण किया है. पार्श्वनाथ के संघ में दस गणधर-एक हजार कैवल्य ज्ञानी, सात सौ पचास मन-पर्याय ज्ञानी, चौदह सौ अवधिज्ञानी, सोलह हजार साधु, अड़तीस हजार साध्वियां, एक लाख चौंसठ हजार श्रावक (गृहस्थ जैन धमर्णोपासक) और तीन लाख सत्ताइस हजार श्राविकाएं थीं. उनके अनुयायियों में स्त्री और पुरुष को एक समान महत्व प्राप्त था.
भगवान पार्श्वनाथ ने तर्क समेत एक मान्यता के विरोध में नारा दिया- ‘‘दूसरे प्राणी की लाश पर होकर मुक्ति के द्वार तक तुम नहीं पहुंच सकते’’. उस समय तापस परंपरा के साधु अपने शरीर को तो बहुत कष्ट देते थे, लेकिन उनकी साधना पद्धति में विवेक का अभाव था. वैचारिक चेतना के अभाव में ऐसे साधुओं ने ‘देहदुखं महाफलं’ को अपनी साधना का सार माना हुआ था. पार्श्वनाथ ने समझाया कि जिस तप में विवेक न हो, जिस तपस्या के पीछे प्रकाश न हो, वह तपस्या मात्र अंधेरा है.
उन्होंने अहिंसा की व्याप्ति को व्यक्ति तक विस्तृत कर सामाजिक जीवन में प्रवेश दिया, जो अभूतपूर्व क्रांति थी. उनकी पावन जयंती के अवसर पर हम भगवान पार्श्वनाथ के दिये संदेश के अनुरूप हम संकल्प लें कि – ‘‘हर व्यक्ति के प्रति सहज करुणा और कल्याण की भावना रखेंगे.’’