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ऊंची ब्याज दरें अभी रहेंगी

भारत में आज महंगाई दर 5.02 प्रतिशत है, इसलिए वास्तविक ब्याज दर अब भी धनात्मक है, जबकि अमेरिका व कई विकसित देशों में ब्याज दर मंहगाई की दर से भी कम होने के कारण वास्तविक ब्याज दर ऋणात्मक हो गयी. मतलब जब तक महंगाई पूरी तरह से थम नहीं जाती, तब तक अमरीका व यूरोप में ब्याज दरों में जल्दी कमी नहीं आयेगी.

अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने सितंबर 2023 में फेडरल फंड ब्याज दर को 5.25 से 5.50 प्रतिशत की सीमा में रखा है. इससे पहले 11 बार फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों को लगातार बढ़ाया था. आज की ब्याज दर पिछले 22 वर्षों की अधिकतम दर पर है. हालांकि यूरोपीय केंद्रीय बैंक ने भी अक्तूबर 2023 के लिए बीज ब्याज दर को पूर्ववत चार प्रतिशत ही रखने का निर्णय किया है, लेकिन यह ब्याज दर पिछली 10 बार से लगातार बढ़ती हुई इस स्तर पर पहुंची थी. बढ़ती ब्याज दरों से हर क्षेत्र में लोगों पर प्रभाव पड़ा है. अमेरिका में गिरवी दर (मोर्टगेज रेट) आठ प्रतिशत पहुंच चुका है. औसत ब्याज दर क्रेडिट कार्ड पर 20 प्रतिशत, नयी कार ऋण पर 7.62 प्रतिशत और विद्यार्थियों के लिए सरकारी ऋण पर 5.5 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. हालांकि अक्तूबर में अमेरिकी और यूरोपीय केंद्रीय बैंक ने ब्याज दर नहीं बढ़ा कर अर्थव्यवस्था के लिए कुछ राहत का संकेत दिया है, लेकिन सरकारी हलकों और विशेषज्ञों के बीच यह सहमति दिखती है कि निकट भविष्य में ब्याज दरों के गिरने के आसार नहीं हैं. ऐसा इसलिए है कि पूर्व में रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण तेल और खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट के कोई आसार दिख रहे और अब इस्राइल-फिलिस्तीन युद्ध के कारण महंगाई की स्थिति और खराब हो सकती है.

ब्याज दरों की दृष्टि से दुनिया में दो प्रकार के देश पाये जाते थे. एक वे देश, जहां ब्याज दरें शून्य से अधिकतम 3-4 प्रतिशत तक होती थीं और दूसरे वे देश, जहां ये दरें छह से 12 प्रतिशत या उससे भी अधिक होती थीं. पहली श्रेणी में अधिकतर विकसित देश और दूसरी श्रेणी में अधिकतर विकासशील देश थे, लेकिन विकसित देशों में बढ़ती ब्याज दरों ने यह अंतर समाप्त कर दिया है. यूं तो ऊपरी तौर पर नीतिगत ब्याज दर उस देश के केंद्रीय बैंक द्वारा निर्धारित की जाती है, जैसे भारत में रिजर्व बैंक, अमेरिका में फेडरल रिजर्व आदि, पर किसी भी देश में ब्याज दर का निर्धारण उस समय की महंगाई दर से प्रभावित होता है. नीतिगत ब्याज दर को सामान्य तौर पर बैंक दर कहते हैं. इसके कई अन्य संस्करण, जैसे रेपोरेट, रिवर्स रेपोरेट आदि भी उपयोग में आते हैं. मोटे तौर पर बैंक दर वह ब्याज दर होती है, जिस पर उस देश के व्यवसायिक बैंक केंद्रीय बैंक से ऋण ले सकते हैं. ये नीतिगत ब्याज दरें विभिन्न प्रकार की ब्याज दरें, जैसे जमा पर ब्याज दर, उधार पर ब्याज दर आदि को प्रभावित करती हैं. यदि महंगाई दर ज्यादा हो और ब्याज दर कम हो, तो ऐसे में बचतों की राशि को जमा करने वाले लोगों को नुकसान होगा, क्योंकि उनकी जमा का वास्तविक मूल्य कम हो जायेगा. इसलिए अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार नीतिगत ब्याज दर महंगाई की दर से ज्यादा होनी चाहिए, ताकि जमा करने वालों को प्रोत्साहित करने हेतु कुछ लाभकारी ब्याज प्राप्त हो सके. उदाहरण के लिए, यदि महंगाई दर छह प्रतिशत है, तो वास्तविक ब्याज दर तीन प्रतिशत रखने के लिए जमा पर ब्याज दर कम से कम नौ प्रतिशत होनी चाहिए. इसलिए महंगाई की स्थिति में नीतिगत ब्याज दरों में वृद्धि जरूरी हो जाती है.

महंगाई के साथ-साथ अमीर मुल्कों में मंदी की आशंकाएं भी बढ़ती जा रही हैं. ब्याज दरों के बढ़ने से तमाम प्रकार की मांगें भी प्रभावित हो सकती हैं. क्रेडिट कार्ड पर ब्याज दर बढ़ने से घरेलू सामान की खरीद प्रभावित होने की आशंका है. जहां अमेरिका में इंफ्रास्ट्रक्चर, खास तौर पर सड़क इंफ्रास्ट्रक्चर, पर निवेश के प्रयास जोर पकड़ रहे थे, बढ़ती ब्याज दरें उस पर भी असर डाल सकती है. महंगाई और ब्याज दरों में वृद्धि से विकासशील देश भी अछूते नहीं हैं. खाद्य मुद्रास्फीति और ईंधन मुद्रास्फीति से विकासशील देश भी प्रभावित हैं. इसलिए विकासशील देशों के केंद्रीय बैंकों ने भी नीतिगत ब्याज दरों को लगातार बढ़ाया है. ब्रिक्स देशों में ब्राजील में यह दर 12.75, दक्षिण अफ्रीका में 8.25, रूस में 15, चीन में 3.45 और भारत में 6.5 प्रतिशत है. इंडोनेशिया में यह छह और मैक्सिको में 11.25 प्रतिशत है. ऊंची महंगाई दरों के चलते किसी भी प्रमुख देश में ब्याज दरें घटने के समाचार नहीं हैं. भारत में आज महंगाई दर 5.02 प्रतिशत है, इसलिए वास्तविक ब्याज दर अब भी धनात्मक बनी हुई है, जबकि अमेरिका और कई विकसित देशों में ब्याज दर मंहगाई की दर से भी कम होने के कारण वास्तविक ब्याज दर ऋणात्मक हो गयी है. इसका मतलब यह है कि जब तक महंगाई पूरी तरह से थम नहीं जाती, तब तक अमेरिका और यूरोप में ब्याज दरों में जल्दी कमी नहीं आयेगी.

भारत भी दुनिया की महंगाई से अछूता नहीं है, फिर भी ईंधन और खाद्य मुद्रास्फीति में भारत सबसे अधिक अछूता है. भारत अमेरिका और यूरोपीय देशों के अवरोधों के बावजूद रूस से सस्ते पेट्रोलियम पदार्थ खरीदने में सफल रहा है. पिछले समय में भारत रूस से पूर्व की तुलना में 50 गुना से भी ज्यादा तेल खरीद रहा है. इसकी कीमत भी अंतरराष्ट्रीय बाजार की तुलना में मात्र 60 प्रतिशत ही है और उसका भुगतान भी काफी हद तक डॉलर में नहीं, रुपये में किया जा रहा है. भारत में खाद्य पदार्थों का पर्याप्त उत्पादन हो रहा है, जिसका फायदा भारत को ही नहीं, पूरी दुनिया को हो रहा है. हमारे देश में खाद्य मुद्रास्फीति कई मुल्कों से काफी कम है. इसलिए जहां पूर्व में भारतीय मुद्रास्फीति अमेरिका और यूरोप की तुलना में काफी अधिक हुआ करती थी, पिछले वर्ष उससे कम रही है. उदाहरण के लिए, पिछले साल अमेरिका में मुद्रास्फीति 8.2 प्रतिशत और यूरोप में 9.9 प्रतिशत रही थी, जबकि भारत में यह सिर्फ 6.70 प्रतिशत ही थी.

शायद यही कारण है कि दुनिया में जहां मंदी दस्तक दे रही है, भारत बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज अर्थव्यवस्था बनकर उभरा है. कृषि और सहायक गतिविधियों के अच्छे कार्य निष्पादन और स्वतंत्र विदेश नीति के चलते देश के आर्थिक हितों के संरक्षण के कारण भारत में मुद्रास्फीति काबू में है. हमें समझना होगा कि अपने देश को हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाते हुए, विदेशों पर निर्भरता, खास तौर पर आपूर्ति शृंखला में, न्यूनतम करते हुए और अन्य मुल्कों के साथ बराबरी के रिश्तों के साथ आगे बढ़ते हुए, ब्याज दर कम रखते हुए, दुनिया के समक्ष चुनौतियों से इतर अपनी अर्थव्यवस्था को हम आगे बढ़ा सकते हैं, लेकिन यह भी सच है कि दुनिया को अभी कुछ समय तक ऊंची ब्याज दरों के साथ जीना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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