भारतीय चिंतन संपूर्ण काल के महा प्रवाह को देखता है. वह अखंडता में विश्वास करता है. भारतीय जीवन चिरंतन के पथ पर चलता है, जिसमें आदि स्वयं ही शामिल होता है और वर्तमान को समावेशित किया जाता है. यानी अविच्छिन्नता ही उसका रूप है. जब संकल्प मंत्र में हम श्वेत वाराह कल्पे… कहते हैं तब हम सृष्टि के शाश्वत स्पंदन को संवत्सर के दिवस और पल में अनुभूत करते हैं. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से भारतीय नूतन संवत्सर आरंभ होता है. यह ब्रह्मांड की उत्पत्ति का दिवस है. प्रकृति शक्ति के आहवान और साधना का आरंभ भी इसी दिन से होता है. संकल्प का शक्ति के साथ समन्वयन कर निर्बाध जीवन के कर्म और धर्म का यह पक्ष होता है. इसमें नवरात्र के साथ मातृत्व शक्ति का सृजन भाव है तो रामनवमी के साथ पुरुषोत्तम की यात्रा है.
भारत में काल के मापन का ज्ञान बोध असाधारण है. इस ज्ञान को ऋग्वेद, उपनिषद एवं अन्य वाड्मय में बार-बार उल्लेखित किया गया. आज से पांच हजार साल पूर्व श्रीमदभागवदगीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने उसी सत्य को उदघाटित किया था. श्रीमदभागवत गीता ( अध्याय 08 के श्लोक 17) में कहा गया कि “ वे जो दिन और रात के सही मापन को जानते हैं, वे जानते हैं कि ब्रह्मा का एक दिन हजारों युग में समाप्त होता है, और एक रात्रि भी हजारों युगों में समाप्त होती है. “ जब हमने कहा कि पृथ्वी एक ग्रह है और इसकी अपनी धुरी पर घूमने और सूर्य के चक्कर लगाने से दिन-रात और वर्ष आता है. तब किसी दूसरे स्तर पर वह एक क्षण भी हो सकता है. इसलिए पृथ्वी की कालगणना को लौकिक समय के माध्यम से व्यक्त किया गया. मनीषियों ने गणना कर बताया कि 432 करोड़ मानव वर्ष से मिलकर ब्रह्मा का केवल एक कल्प बनता है. इस प्रकार हमने संकल्प मंत्र के माध्यम से समय और दूरी के अनंत विस्तार का चिंतन एवं मनन किया.
वृत्ताकार मंडल को काल प्रवाह का द्योतक माना गया हैं. इस चक्रीय गति में लगातार रस और लय का सृजन चल रहा है. दिवस चक्र, ऋतु चक्र, संवत्सर चक्र, जीवन चक्र और भव चक्र उसी काल प्रवाह के वृताकार गति के विविध रूप है. इस अस्तित्व के मूल में शुभता और आनंद के साथ अविच्छिन्न रस का प्रवाह है, जो काल प्रवाह को गतिमान रखता है. जीवन एक रस है, उस रस में आनंद है और आनंद के साथ शुभता का भाव जुड़ा है. मुरली की धुन हो या शिव के डमरू के गीत, गीता के स्वर हो या तथागत के मौन. सबमें एक लयबद्धता है, उस लय में छंद है जिसके आरोह और अवरोह से देशकाल की गति में संतुलन बना रहता है. संतुलन के साथ दिव्यता और शुभता भी, प्रत्येक प्रक्रिया का मूल भाव होता है. भारतीय मन सदैव ही लघु या विराट प्रत्येक कर्म को दिव्यता से भरने का प्रयत्न करता है. जिस घर में हम रहते हैं, उसके भी पवित्रीकरण का प्रयास नींव के प्रथम खुदाई से आरंभ होता है. भारतीय लोक में शाश्वत जीवन को प्रश्रय मिलता हैं, जिससे मूल्य, आदर्श, जीवन के उदात्त भाव को संपोषित और संवर्धित किया जा सके. यह शाश्वत ही विराटता को प्रकट करता है. चैतन्य भारत के निर्माण में चिरंतन की अंतर्यात्रा के साथ शाश्वत जीवन की अभिव्यक्तियों एवं अनुभवों को अनुप्राणित और अंतर्निहित करने की परंपरा ही भारतीय जीवन की विशेषता रही है. नव संवत्सर उस चिरंतन को प्रकट करने का दिवस है.
समय की एक गति काल की होती हैं. इसमें वह चक्रीय गति करता है. समय की सूक्ष्मतम इकाई परमाणु से लेकर दिन, रात, ऋतुएं, आकाशीय तारामंडल, ग्रह, नक्षत्र यहां तक की ब्रह्माण्ड भी चक्रीय गति का अनुसरण करते है. इसी प्रकार जीवन भी, चक्रीय गति से चलता है. जन्म, विकास, बचपन, युवा, पौढ़, बुढ़ापा, मृत्यु और पुनः जन्म. चक्रीय गति. संवत्सर के माध्यम से जीवन दृष्टि मिलती है, एक चिरंतन पथ प्राप्त होता है. भारतीय मनीषा कहती है कि जीवन की गतिशीलता मायने रखती है. इसमें मृत्यु को प्राप्त होना एक पड़ाव है, एक नये विकास के लिए. काल के लिए यह सतत यात्रा है. गतिमान, चक्रीय रूप में. ठीक उसी प्रकार जैसे विराट का सूक्ष्मतम से लेकर अनंत रूप गतिमान है. चैत मास का चित्त पर स्थायी भाव बनता है. इसमें सुवास, सौंदर्य और सृजन सबकुछ शामिल होता है. इसलिए भटकाव की कम गुंजाइश होती है. मानव मन को एक दिशा मिलती है और उस दिशा में बढ़ने का ज्ञान बोध भी होता है. चैत माधव की ऋतु है, राघव का दिवस है, शक्ति का आमंत्रण है, शुभता का आगमन है और सत्ययुग की शुरुआत है. इसी दिन मत्स्य रूप देवत्व का आरोहण होता है. कई संवत्सर -यथा युगाब्द, कल्प, संवत, युधिष्ठिर संवत, शालिवाहन आदि का आरंभ भी इस दिन से होता है. माधव रूप में समूचे विराट में प्रेममयी चेतना वसंत बन कर छा जाती है. परमपुरुष का प्रकृति के साथ महामिलन का यह अपूर्व पक्ष होता है, जहां प्रकृति अपने पूर्ण सौंदर्य को प्रकट करती है. सौंदर्य के साथ शक्ति के स्वरूप का हमारे जीवन में आगमन हो, इसलिए संवत्सर और देवी साधना का स्मरण जरूरी है.
संवत्सर के साथ समय का चक्र सदैव गतिशील रहता है. यह दर्शन कहता है कि विश्व ब्रह्मांड का व्योम ( स्पेस ) ठहरा हुआ नहीं है. निरंतर घूम रहा है और परिणामस्वरूप काल भी ठहरा हुआ नहीं है. वह भी निरंतर घूर्णायमान है. स्पेस और टाइम ( व्योम और काल ) दोनों एक सम्मिलित प्रत्यय है. काल तो अमूर्त है. इसे मूर्त रूप से व्योम यानी स्पेस अभिव्यक्त करता है. यह कैसे होता है ? दिनमान जो काल की एक इकाई है, उसके माध्यम से. इस व्योम में सूर्योदय से पुनः सूर्योदय के प्रदृश्य द्वारा. इसी में निरंतर घूर्णायमान है. होरा यानी घंटा चक्र, दिवस चक्र, पक्ष चक्र, मास चक्र, ऋतु चक्र, संवत्सर चक्र, नाक्षत्रिक या सप्तर्षि संवत्सर चक्र, युग चक्र और कल्प चक्र आदि. प्रत्येक छोटा वृत्त किसी वृहत्तर वृत्त की परिधि का बिंदु है. और इस प्रकार ये सारे वृत्त यानी समस्त व्योम वृत्त किसी अमूर्त महाकाल ( जिसे शाश्वत कहते हैं ) के वृत्त का बिंदू है. भारतीय चिंतन में इसी क्रम में भव चक्र, जन्म-मरण चक्र, कर्म चक्र, धर्म चक्र आदि की कल्पना की गयी है. काल का अर्थ ऋत या प्रवाहशील सत्य भी है, क्योंकि सारे क्रिया प्रवाह काल और धर्म के अधीन चलता हैं. काल का प्रत्येक बिंदु अपनी धुरी पर इसी तरह दुहरी- तिहरी या असंख्य गुणा गति से चलता है. पृथ्वी अपनी धूरी पर दैनिक गति से घूमती है, पर हर एक दैनिक बिंदु पर वह वार्षिक गति से भी घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा कर रही होती है. फिर समस्त सूर्यमंडल के साथ किसी वृहत्तर सूर्य की परिक्रमा कर रही है. इस प्रकार यह चक्रीय गति आगे बढ़ती जाती है.
काल की गति के साथ जीवन दृष्टि का पोषण और संवर्धन होता है. संवत्सर और ऋतु संधि के माध्यम से हम वनस्पति में, जल में, आकाश में, पत्थर में, वर्तमान में और अतीत के आरंभिक छोर में प्राणवत्ता को अनुभव करते हैं. इसी प्राणवत्ता को हम अपने सृजन, अपने शिल्प, अपने कला और अपने जीवन के स्पंदन में अनुभव करते हैं. अस्तित्व केवल अनवरत होते रहने वाली धारा का नाम है. ऐसे में हम निरंतर बदलते रहे और बदलाव के साथ अपने आरंभ, मध्य और वर्तमान को एक साथ समेट कर चलते रहे. इसलिए संवत्सर का स्मरण जरूरी है. चूंकि काल का वर्तमान पल ही सबसे महत्वपूर्ण है, अतएव हर पल की क्षणभंगुरता में उस शाश्वत को अपने जीवन में उतार कर चलने में ही सार्थकता है.
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