Holi 2021, Jharkhand News (धनबाद), रिपोर्ट- मनोज रवानी : आदिवासी समाज होली को बाहा के नाम से मनाते हैं. इस समाज में केमिकल रंग और गंदे पानी से होली खेलने की मनाही है. अगर रंग खेलना है, तो सिर्फ पलाश के फूलों से तैयार प्राकृतिक रंग. बाहा के माध्यम से आदिवासी समाज प्राकृतिक सौंदर्य को बचाने का भी संदेश देते हैं. आदिवासी इलाकों में बाहा की तैयारी जोर-शोर से चल रही है. हर गांव में अलग-अलग दिन होली खेली जाती है. लॉ कॉलेज के समीप सामूहिक आयोजन होता है.
आदिवासी समाज में होली खेलने के लिए रिश्ते भी तय है. मजाक वाले रिश्ते जैसे जीजा-साली, भाभी-देवर समेत अन्य से होली खेली जाती है. इसके अलावा दूसरे किसी संबंध में होली खेलने की मनाही है. वहीं, सखुआ (साल) का पेड़ और फूल आदिवासी समाज में सबसे पवित्र एवं ईश्वर का प्रसाद स्वरूप माना जाता है. पर्व के बाद समाज के लोग एक-दूसरे को शुद्ध पानी से भींगों कर आनंद उठाते हैं.
रमेश टुडू बताते हैं कि बाहा से एक दिन पहले जाहेर थान एवं ग्राम थान की साफ- सफाई की जाती है. समाज के लोग नहाय का रस्म करते हैं. दूसरे दिन घरों से दाल, चावल, सब्जी मांगी जाती है. पुजारी को गाजे- बाजे के साथ थान पर लाया जाता है. खिचड़ी बनाने के बाद जाहेर या ग्राम थान के पास सखुआ के फूल के साथ मारंग बुरू और जाहेर एका की पूजा की जाती है. इसके बाद नाइकी (पुरोहित) के साथ सभी गीत गाते हुए घरों की ओर लौट जाते हैं. उपस्थित सभी को सखुआ का फूल दिया जाता है, जिसे वे कान में फंसाते, तो महिलाएं अपने बालों में लगा लेती है और कुछ फूलों को घर में पूजा के स्थान पर रखती है. गांव के सभी घरों में पुजारी जाते हैं. जहां महिलाएं उनके पैरों को धोती है. आशीर्वाद के रूप में उन्हें फूल दिया जाता है.
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साल (सखुआ) का पेड़ और फूल आदिवासियों का रक्षक होता है. प्राकृतिक आपदा सहित पाप, लोभ आदि से यह समाज के लोगों को बचाता है. यही कारण है कि जाहेर थान के पास साल का पेड़ जरूर होता है. जहां साल का पेड़ नहीं होता है, वहां पूजा के समय इसकी टहनियों को काटकर लगा दिया जाता है. आदिवासियों का मानना है कि साल के फूल को घर के बाहर रखने से भूत-प्रेत का प्रवेश नहीं होता है. बाहा के दिन आदिवासी समाज अपने घरों में कई तरह के पुआ और पकवान बनवाते हैं. जाहेर थान पर बलि की भी परंपरा है.
Posted By : Samir Ranjan.