होलिका दहन फाल्गुन मास (Phalguna Month) की पूर्णिमा तिथि (Purnima Tithi) को किया जाता है. इस बार पूर्णिमा तिथि दो दिन पड़ रही है, साथ ही पूर्णिमा तिथि पर भद्राकाल होने के कारण लोगों में होली और होलिका दहन को लेकर संशय की स्थिति है. हिंदू धर्म ग्रन्थों के अनुसार, होलिका दहन (Holika Dahan) पूर्णिमा तिथि में सूर्यास्त के बाद करना चाहिए
होलिका दहन का धार्मिक के साथ ही विशेष वैज्ञानिक महत्व है. होलिका दहन से दीपावली के बाद से वातावरण में बचे कीटाणु व विषाणु नष्ट हो जाते हैं और पर्यावरण शुद्ध हो जाता है. इसी कारण सदियों से हर गांव में होलिका दहन पर्व श्रद्धा व उत्साह से मनाया जाता है.
आयुर्वेद के अनुसार शिशिर ऋतु में ठंड के प्रभाव से शरीर में कफ की अधिकता हो जाती है और वसंत ऋतु में तापमान बढ़ने पर कफ के शरीर से बाहर निकलने की क्रिया में कफ दोष पैदा होता है.
हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक इस समय आग जलाने से वातावरण में मौजूद बैक्टीरिया नष्ट हो जाते है. अतः होलिका दहन के मनाने से यह हमारे आस पास के वातावरण से बैक्टीरिया को दूर करता है.
इसके साथ ही अग्नि के चारों ओर परिक्रमा करने से शरीर में नई ऊर्जा आती है जो इस मौसम में हुए कफ दोष से निजात पाने में मदद करता है.
दक्षिण भारत में होलिका दहन के बाद लोग होलिका की बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन तथा हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं.
पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप को भगवान बनने का जुनून सवार हो गया था और वह चाहता था कि राज्य के सभी लोग उसे भगवान माने. प्रजा भयवश होलिका दहन पर्व धार्मिक से कहीं अधिक वैज्ञानिक है. सर्व विदित है कि बरसात के बाद दीपावली पर्व तक वातावरण में जहरीले कीटाणु व विषाणु की संख्या बढ़ जाती है. इन जहरीले कीटाणुओं व विषाणुओं का आग प्रिय है. इसलिए रात में प्रकाश जलने पर उसके करीब जाने वाले कुछ कीटाणु जल भी जाते हैं पर अधिकांश बच जाते हैं. वातावरण में इन बचे कीटाणुओं व विषाणुओं को नष्ट करने के लिए गांव-गांव होलिका दहन होता है.