प्राय: सभी जगह गर्मी अपने चरम पर है. इस मौसम में शीतल जल के लिए मिट्टी का कलश ही सर्वथा से उपयोगी रहा है. हालांकि आधुनिक युग में इसका प्रचलन कम जरूर हो गया है, परंतु ग्रामीण इलाकों में आज भी घर-घर में कलश या घड़े का पानी ही लोग पीते हैं. धार्मिक अनुष्ठान, यथा- पूजा-पाठ, गृहप्रवेश, शादी-ब्याह में आज भी सुसज्जित कलश ही देखे जाते हैं. कलश सागर व जल के देवता वरुण का ही प्रतीक है.
कलश का उद्भव कब हुआ, कहना कठिन है. ऐतिहासिक आधार पर चलें, तो हड़प्पा संस्कृति में भी मृद्भाण्ड मिले हैं. विद्वानों के मत से नवपाषाण युग से ही इसका चलन है. जब चेक गणराज्य में 2900 से 2500 ईपू की छोटी मूर्तियां मिली हैं, तो अवश्य ही हमारे यहां प्राग्वैदिक काल से ही मृण्मय जलपात्रों का प्रचलन रहा है. हां, हमारे यहां पूजा के अवसर पर कलश-स्थापन अवश्य होता है, जिसमें कलशस्तुति की जाती है. उस स्तुति का सार है- ‘‘हे कुंभ! आप देवों और दानवों द्वारा किये गये समुद्र-मंथन से उत्पन्न हुए हैं. आपको स्वयं विष्णु ने धारण किया. आपके जल में समस्त तीर्थ, देवता, सभी प्राणी, प्राण स्थित हैं. आप साक्षात् शिव, विष्णु, ब्रह्मा व प्रजापति हैं. आपमें बारहों सूर्य, आठों वसु, ग्यारहों रुद्र, विश्वेदेव तथा सभी पितर भी विराजमान हैं. आशय यह कि आप विश्वरूप हैं. आपके सान्निध्य में मैं यह पूजा कर रहा हूं. आप सर्वदा प्रसन्न रहें.’’
देव-दानव-संवादे मथ्यमाने महोदधौ।
उत्पन्नोsसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम्।।
इस कथन से ज्ञात होता है कि पहले-पहल समुद्र-मंथन के समय विश्वकर्मा जी ने अमृत रखने के लिए कलश का निर्माण किया. इसी तरह एक जगह स्पष्टतः कहा भी गया है कि देवशिल्पी ने अमृत रखने के लिए इसे बनाया था- ‘पीयूष- धारणार्थाय निर्मितं विश्वकर्मणा’. लेकिन, एक बात समझ में नहीं आती कि विष्णुजी ने कब धारण किया? हां संभव है कि धन्वन्तरि भी विष्णुजी के ही अवतार माने गये हैं और वह अमृतमय घट के साथ प्रकट हुए थे. पुनः जब दानव अमृत-कलश छीन ले गये, तो मोहिनी बनकर वह आये और देवताओं को सुधापान कराया. ‘विधृतो विष्णुना स्वयम्’ का संकेत कहीं यही तो नहीं! अधिक संभव है. देवताओं और दानवों के सम्मिलित प्रयास से हुए सागर-मंथन की ओर यहां इशारा है ही, तो धृतकलश मोहिनी व धन्वन्तरि रूप को लेकर भी उक्त कथन चरितार्थ हो जाता है.
पहले पूजा के बाद प्रार्थना की बात की गयी, परंतु इसके पूर्व जल के प्रधान देवता वरुण के आवाहन के बाद कलश के विभिन्न भागों में विष्णु आदि के भी आवाहन का विधान है. जैसे- कलश के मुखभाग में विष्णु, कंठ में रुद्र, मूल में ब्रह्मा, मध्य में मातृगण, कुक्षि में सागरों के साथ पृथ्वी, पूर्वादि क्रम से घेरे के रूप में वेदांगों के साथ ऋग्वेदादि चारों वेद; इसी तरह गायत्री, सावित्री, शांति एवं पुष्टि देवियां; पुनः गंगा आदि नदियां.
हां, तंत्रों ने उत्तमोत्तम कलश का एक परिमाप भी दे दिया है. उदाहरणार्थ उसके लंबाई पचास अंगुल, चौड़ाई व गहराई सोलह अंगुल, मुंह का घेरा आठ अंगुल हो- ‘पंचाशदंगुल- व्याम उत्सेधः षोडशांगुलः। कलशानां प्रमाणं तु मुखमष्टांगुलं स्मृतम्’।। इसी तरह छत्तीस, सोलह एवं बारह अंगुल के कलश भी बताये गये हैं.
‘कालिका’ पुराण (अध्याय-86) ने कलशों को नौ प्रकारों में बांटा है- गोह्य, उपगोह्य, मरुत, मयूख, मनोहर, आटार्यभद्र (कहीं-कहीं कृषिभद्र भी आया है), विजय-तनुशोधक, इन्द्रियघ्न एवं विजय. इन्हें क्रमशः क्षितींद्र, जलसंभव, पवन, अग्नि, यजमान, कोषसंभव, सोम, आदित्य तथा विजय भी कहा गया है.
उपर्युक्त विवेचनों से ज्ञात होता है कि कलश का उद्भव प्रथमतः अमृत रखने के लिए हुआ. विकास-क्रम से यह जलसंचय व नित्य प्रयोग से लेकर यज्ञसाधन में भी चल पड़ा. मिट्टी से शुरू हुआ और धातव रूप लेता-लेता लौह, पित्तल, कांस्य, ताम्र, रजत एवं सुवर्ण में भी परिणत होता गया. एक तरह से संपन्नता का प्रदर्शन होता गया. यह भी कहा जा सकता है कि आम से खास तक में अपनी पैठ बनाता गया. इसीलिए ज्ञयीय विधान में भी सोने, चांदी, तांबे, पीतल के बाद ही मिट्टी के कलश को स्थान दिया जाने लगा, लेकिन यज्ञांग होने से प्रत्येक पूजा-पाठ में स्थान पाता ही रहा.
कलश सागर व जल के देवता वरुण का ही प्रतीक है. जैसे सागर में रत्न, औषधियां, अथवा धरती पर पाये जानेवाले सभी पदार्थ नदियों के माध्यम से समाहित होते हैं, वैसे ही इस घट को भी रत्न, सर्वौषधि, सप्तमृत्तिका, पुष्प, आम्र आदि पल्लवों से युक्त देखते हैं. पुनः इसे अन्नमय पूर्णपात्र से एवं फल से युक्त कर सुख-समृद्धिपूरक कर देते हैं. इसलिए यह मंगलकलश कहलाता है. रंगों से अष्टदल कमल, उस पर सप्तधान्य और तब उस पर स्थापित कलश अतिमनोहर दिखता है.
बताने को तो यों ही बता दिया गया, पर पूजा-सामग्री के साथ एक-एक वस्तु मंत्र-विधान के साथ डाली जाती है और तब सविधि पूजन होता है. तब वरुण से लेकर विश्व के समस्त नियामकों का आवाहन, स्थापन एवं पूजन होता है.
हमारे यहां कलश का प्रायः विभिन्न धार्मिक उत्सवों में विभिन्नतया प्रयोग होता है. कहीं अधिक मात्रा में, तो कहीं कम मात्रा में भी. बड़े-छोटे यज्ञों में जलभरी के लिए अधिक मात्रा में भी इसका प्रयोग होता है. 8, 16 से 108 तक का उल्लेख जलयात्रा में मिलता है. लाल-पीले परिधानों में सुहागिनें नदी-तालाब आदि से सस्वर गायन के साथ सिर पर जलपूर्ण कलश लेकर जब एक पंक्ति में यज्ञमंडप की ओर चलती हैं, तो दृश्य मनोरम होता है. विवाह में भी सजा कलश अवश्य रहता है. संक्षेप में, यह हमारी धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा का अभिन्न अंग है.
एक जगह कलश की व्युत्पत्ति में कहा गया है, ‘केन जलेन लसति शोभते इति कलशः’, अर्थात् जल से भरा रहने से शोभा पाता है. यानी; जल ही इसकी शोभा है. परंतु; आज दुकानों के एक कोने में यह लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा के साथ सूखा-सूखा दिखता है. जलहीन, सूखे पत्तों से युक्त उदास कलश देखकर यह सोचने को बाध्य होना पड़ता है कि आखिर यह आवश्यक है कि अनावश्यक! बिना जल के तो वह मृत ही है न! इससे न तो शोभा बढ़ती है और न इसमें जलाधिदेव वरुण महाराज ही विराज सकते हैं. फिर क्यों? दरअसल; हम सनातनियों के यहां शास्त्रीयता के अतिरिक्त भावनाएं भी प्रभावित करती रहती हैं. भाव में भगवान को प्रतिष्ठित करनेवाली हमारी भावनाएं ही शायद सूखे-रीते कलश में जलदेवता का निवास मानती परंपरा बन गयी. मेरे विचार से रखना ही हो, तो उसमें जल भरते रहना चाहिए और पत्तों को भी बदलते रखना चाहिए.
मार्कण्डेय शारदेय, ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र विशेषज्ञ