यह तो स्पष्ट है कि हमारे देश में किसानों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और हर किसान को यह लगता है कि अगर उसकी फसल का उचित दाम मिलेगा, तो उसका जीवन बेहतर हो जायेगा. दाम तय करने और देने की जो वर्तमान प्रक्रिया है, उससे किसानों को कुछ फायदा होता है और जहां सरकारी खरीद होती है, वहां कुछ अधिक फायदा होता है, जैसे उत्तर प्रदेश का कुछ हिस्सा, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश आदि. धान की अच्छी सरकारी खरीद छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी होती है. लेकिन अगर हम पूरे देश की बात करें, तो बहुत सारी फसलों के दाम मिलने में दिक्कत होती है. अभी चल रहे पंजाब के किसानों के आंदोलन के संदर्भ में चर्चा करें, तो मैं अपना एक अनुभव बताना चाहूंगा. पिछले साल हमने पांच राज्यों में अलग-अलग जगहों पर करीब साढ़े छह सौ किसानों से बात कर यह समझने की कोशिश की कि समस्याएं क्या हैं और उन्हें हल करने का रास्ता क्या है. इस प्रक्रिया में हमने उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 10 जिलों के किसानों और राजस्थान के जोधपुर में करीब 15 जिलों के किसानों को बुलाया. तमिलनाडु में भी लगभग 18 जिलों के किसानों से चर्चा की और ओडिशा के भुवनेश्वर में 22 जिलों के किसान आये. मेघालय में हमने विभिन्न जनजातीय समुदायों के लोगों के साथ बातचीत की. इन चर्चाओं में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आयी कि देशभर के किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) चाहते हैं. वर्ष 2020-21 के किसान आंदोलन ने इस मुद्दे को पूरे देश में पहुंचाने का काम किया है.
वर्ष 2020-21 का जो आंदोलन था, उसका मूल बिंदु केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि कानूनों का विरोध था. किसानों, खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के, को लगा कि खेती ठेके पर चली जायेगी और मंडी कॉरपोरेट के हाथ में चली जायेगी. उस समय इन कानूनों की वापसी की मांग के साथ एमएसपी की मांग भी जुड़ गयी थी. तत्कालीन कृषि सचिव संजय अग्रवाल ने संयुक्त किसान मोर्चा को एक पत्र लिखा था कि जो बाकी मांगें हैं, उन पर कमिटी बनेगी और विचार होगा. किसानों की तरफ से मुख्य मुद्दा स्वामीनाथन कमिटी रिपोर्ट के अनुसार एमएसपी का निर्धारण और उसकी कानूनी गारंटी था. जुलाई 2022 में सरकार ने संजय अग्रवाल की अध्यक्षता में कमिटी बना दी और उसकी पहली बैठक उसी साल अगस्त में हुई. अभी तक, यानी फरवरी 2024 तक उस कमिटी की रिपोर्ट नहीं आ पायी है. मेरी जानकारी के मुताबिक, इस कमिटी की 35 से ज्यादा बैठकें हो चुकी हैं. किसानों की एक शिकायत यह थी कि जिस अधिकारी ने कृषि कानूनों को लाने का काम किया और बैठकों में उनकी पैरोकारी की, उसी की अध्यक्षता में यह कमिटी बना दी गयी. संयुक्त किसान मोर्चा के लिए इसमें तीन सीटें थीं, जिसे स्वीकार करने से मोर्चा ने मना कर दिया. खैर, अगर कमिटी की रिपोर्ट आ जाती, तो उस पर आगे चर्चा होती.
पंजाब के किसानों का जो मौजूदा आंदोलन है, उसका यही कहना है कि सरकार ने जो वादा किया था, उसे पूरा नहीं किया गया. बीच-बीच में कुछ छिट-पुट प्रदर्शन भी हुए. सबकी यही मांग रही है कि एमएसपी पर कानूनी गारंटी देने के मामले में सरकार ने कुछ क्यों नहीं किया है. केंद्र सरकार तीन फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है. उनमें कुछ ऐसी हैं, जो बाजार में एमएसपी से अधिक दाम पर बिक जाती हैं. राशन उपलब्ध कराने के लिए गेहूं, धान, चावल की खरीद सरकार बड़े पैमाने पर करती है. उल्लेखनीय है कि देशभर में गन्ने के लिए एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान किसानों को होता है. गन्ने के न्यूनतम दाम भी केंद्र सरकार तय करती है, जिसे उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) कहा जाता है. इसे कानूनी गारंटी मिली हुई है. चीनी मिलें इस दर से कम का भुगतान किसानों को नहीं कर सकती हैं और अगर चीनी मिलें 15 दिन के अंदर किसानों को भुगतान नहीं करती हैं, उन्हें जुर्माना भी देना होता है. कुछ राज्य सरकारें अपने स्तर पर परामर्श मूल्य (एसएपी) तय करती हैं, जैसे उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, आदि. फिर तिलहन, दलहन और मोटे अनाजों की फसलें हैं. इनकी अच्छी पैदावार होने पर दाम गिर जाते हैं. उल्लेखनीय है कि हम खाद्य तेलों की अपनी आवश्यकता का 60 फीसदी से ज्यादा हिस्सा आयात करते हैं. फिर भी सरसों के दाम गिर गये थे. दालों में भी यह स्थिति पैदा हो जाती है. कुछ साल पहले वित्त मंत्रालय के तत्कालीन वित्त सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में एक कमिटी बनी थी, जिसने सलाह दी थी कि दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया जाए, उनका बफर स्टॉक बने और उनकी सरकारी खरीद हो. इसका लाभ भी हुआ है और हमारा दाल उत्पादन 230 लाख टन तक चला गया है और आयात में भी उल्लेखनीय कमी आयी है. कपास और नारियल जैसे उत्पादों के लिए बोर्ड बने हुए हैं, जो किसानों की मदद करते हैं. मोटे अनाजों की कीमत भी एमएसपी से नीचे चली जाती है. सरकार की कुछ योजनाएं हैं, जिसे प्राइस सपोर्ट स्कीम कहते हैं.
जब कुछ उत्पादों के दाम गिर जाते हैं, तो सरकार सहकारी संस्थाओं और बोर्डों को एमएसपी से अधिक दाम पर खरीद के लिए कहती है और उन्हें नुकसान भरपाई की गारंटी देती है. इसी तरह से केंद्र की प्रधानमंत्री आशा योजना या मध्य प्रदेश की भावांतर स्कीम है, जिसमें किसानों को भरपाई की जाती है. लेकिन ऐसी योजनाएं अधिकतर फसलों पर लागू नहीं होतीं, इसीलिए किसानों का कहना है कि उन्हें एमएसपी की कानूनी गारंटी मिलनी चाहिए. अभी यह आंदोलन पंजाब और हरियाणा के कुछ क्षेत्रों का है, पर देशभर के किसान संगठनों की भी यही मांग है. यह मानकर चलें कि देर-सबेर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी संगठन इस मांग को लेकर आंदोलनरत होंगे. कहा जा रहा है कि कानूनी गारंटी से सरकार पर बड़ा आर्थिक बोझ आ जायेगा, लेकिन मेरा मानना है कि अधिशेष ही बाजार में आता है. किसान 25-30 फीसदी अपने उपभोग के लिए रख लेता है. किसान को मिले दाम और उपभोक्ता द्वारा दिये गये मूल्य में बड़ा अंतर होता है. सरकार पहले से राशन के लिए खरीद करती है और समय-समय पर बाजार को नियंत्रित भी करती है, जैसे दाल या चीनी के मामले में. अनाज का बड़ा कारोबार है, तो बाजार में खरीद होगी ही. इसलिए आर्थिक बोझ का तर्क निराधार है. आधार मूल्य से उपभोक्ता को भी लाभ होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)