फ़िल्म-इन कार
निर्देशक – हर्षवर्धन
कलाकार – रितिका सिंह, मनीष झंझोलिया, संदीप गयोत,सुनील सोनी, ज्ञान प्रकाश और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग -तीन
बीते एक दशक में महिलाओं के प्रति हुए अपराध से जुड़े मुद्दों पर हिंदी सिनेमा में जागरूकता देखने को मिलती है, इसी की अगली कड़ी फ़िल्म इन कार है. फ़िल्म रेप के संवेदनशील मुद्दे को जिस तरह से दिखाती है, वह ना सिर्फ आपको झकझोरता है,बल्कि असहज भी कर जाता है, लेकिन यही हमारे समाज का सच है. फ़िल्म देखते हुए इससे इन कार नहीं किया जा सकता है.
यह दिल दहला देने वाला सर्वाइवल ड्रामा साक्षी (रितिका सिंह ) की कहानी है. जो अपने घर से कॉलेज में परीक्षा देने के लिए निकली है, लेकिन तीन बदमाश उसका कार में अपहरण कर लेते हैं. वे उसे बुरी तरह से मारते हैं और सुनसान जगह पर ले जाकर उसके साथ बलात्कार करने की योजना बनाते हैं. इस दौरान इन तीनों बदमाशों की दकियानुसी सोच और अपराधिक मानसिकता की कहानी भी कहानी में चलती रहती है. साक्षी उनसे बचने के हर मौके की तलाश में रहती है, लेकिन सारी कोशिशें बेकार होती जाती हैं. एक वक़्त के बाद वह खुद को इस कदर असहाय महसूस करने लगती है कि कार में ही रेप करने की मिन्नतें करने लगती है कि उसे किसी सुनसान जगह पर ना ले जाया जाए, मगर वह साक्षी को लेकर एक सुनसान जगह पर ले आते हैं. साक्षी के पास कोई और विकल्प नहीं है. क्या वह असहाय होकर सबकुछ सहने का फैसला करेंगी या एक बार फिर वापस लड़ने की हिम्मत. यही आगे की कहानी है. आगे क्या होता है, इसके लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी.
फ़िल्म से जुड़ा मुद्दा हमारे समाज की एक भयावह हकीकत है. फ़िल्म का ट्रीटमेंट रियलिटी के बेहद करीब हुआ है. फ़िल्म में अपहरणकर्ताओं की गन्दी मानसिकता को बखूबी दर्शाया गया है. शराब और नशीली दवाओं में डूबे ये लोग महिला को बस भोग की वस्तु ही समझते हैं. यही लोग पत्थर की मूर्ति की देवी मानकर पूजा करते हैं, लेकिन महिला इंसान का कोई सम्मान नहीं करते हैं. फ़िल्म ऑनर किलिंग के मुद्दे को भी छूती है, साथ में ये भी दिखाया गया है कि जब कोई महिला मुसीबत में होती है, तो देखने वालों के लिए सामान्य सी बात लगती है. डिलीवरी देने आया लड़का यह कहता भी है कि उसका पिता हर दिन शराब पीकर उसकी मां को मारता है, जैसे चोट पाना औरतों की किस्मत हो.
फ़िल्म अपने शीर्षक के साथ बखूबी न्याय करता है।फ़िल्म की लगभग पूरी शूटिंग कार में ही हुई है. फ़िल्म के शीर्षक का हिंदी अर्थ इन कार है, जो कहीं ना कहीं ना को दर्शाता है. यह शीर्षक भी विषय के साथ पूरी तरह मेल ख़ाता है. स्क्रिप्ट की खामियों की बात करें, तो इन कार का बेसिक प्लॉटलाइन अच्छा है और यह समाज के एक बेहद ज्वलंत मुद्दे महिला सुरक्षा से भी जुड़ा है,लेकिन फिल्म इस गंभीर विषय के साथ न्याय नहीं कर पायी है. फिल्म की पटकथा कमजोर रह गयी है. इस रोड सर्वाइवल ड्रामा में ड्रामा की कमी बेहद खलती है. फिल्म लंबे समय तक एक ही नोट पर चलती रहती है।ट्विस्ट एंड टर्न की कमी है. परदे पर कुछ रोमांचकारी घटित नहीं होता है कि अब क्या होगा. यह सवाल कहानी में बार -बार आता ही नहीं है. साक्षी परीक्षा देने के लिए घर से निकली थी, वह जब परीक्षा हॉल तक नहीं पहुंची, तो उसके दोस्तों ने उसके घर पर फ़ोन कर क्यों नहीं पूछा. घरवालों ने कोई कदम क्यों नहीं उठाया. ज्ञान प्रकाश का किरदार पुलिस वाले का था. कहानी के नरेशन में जिस तरह से कार में दिल्ली पुलिस के स्टिकर को दिखाया था. कहानी में वैसा प्रभाव नहीं जिस तरह से साक्षी के किरदार को परदे पर बहुत बुरी से अपहरणकर्ताओं द्वारा ट्रीट किया गया है. वह एक समय के बाद आपको असहज कर देता है. यह सवाल मन में आता है कि विषय की गंभीरता को दिखाने का क्या यही एक जरिया था.
यह फ़िल्म रितिका सिंह की है. उन्होंने पूरी तरह से फिल्म को अपने कंधों पर उठाया हैं. घबराहट, हताशा,क्रोध, हार ना मानने का जज्बा सहित किरदार की हर भावना को उन्होने सहजता से जिया है. मनीष झंझोलिया बिगड़ैल, साइको और अपराधिक सोच रखने वाले नौजवान की भूमिका को बखूबी सामने लाया है. इतनी परफेक्शन के साथ अपने किरदार को उन्होंने निभाया है कि आपको उससे नफरत होने लगती है. संदीप गोयत और ज्ञान प्रकाश भी अपनी भूमिकाओं को सहजता से निभाते हैं.
फ़िल्म में सिनेमैटोग्राफी का काम काफ़ी अच्छा है. ऊपरी दृश्य में ड्रोन शॉट्स और क्लोजअप शॉट्स अच्छी दक्षता के साथ लिए गए हैं. फ़िल्म का लोकेशन स्क्रीनप्ले से ज्यादा कहानी के प्रभाव को बढ़ाता है. इसके लिए कैमरामैन मिथुन गंगोपाध्याय की सराहना की जानी चाहिए. फ़िल्म का संगीत औसत है, जबकि एडिटिंग अच्छी है। बाकी के पहलू भी कहानी के साथ न्याय करते हैं.
फ़िल्म का विषय और ट्रीटमेंट ऐसा है, जो लोग देखना पसंद नहीं करते हैं, लेकिन यह फ़िल्म अहम मुद्दे को छूती है. जिसे सभी को देखा जाना चाहिए.