समूची दुनिया प्रदूषण की चपेट में है. दुनिया के 15 शहरों और दक्षिण एशिया के 18 शहरों में वायु प्रदूषण की भयावह स्थिति ने सबको हैरत में डाल दिया है. दुनियाभर में खराब वायु गुणवत्ता के कारण हर वर्ष लगभग 60 लाख से अधिक लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं. वायु प्रदूषण से अस्थमा, कैंसर, हृदय रोग व फेफड़े से संबंधित कई जानलेवा बीमारियां पैदा होती हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के वैज्ञानिकों के शोध में खुलासा हुआ है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है. यह गंभीर चिंता का विषय है. दक्षिण एशियाई देशों के विकसित शहरों में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का आंकड़ा डेढ़ लाख पार कर गया है. वैज्ञानिकों ने आशंका व्यक्त की है कि एशिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के 18 शहरों में रहने वाले लाखों लोगों की मौत वायु प्रदूषण के चलते समय पूर्व हो सकती है.
शोधार्थियों ने नासा से जुटाये आंकड़ों के आधार पर प्रदूषण से होने वाली मौतों के लिए नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, अमोनिया, कार्बन मोनोऑक्साइड जैसे प्रदूषकों के अतिरिक्त पीएम 2.5 को भी जिम्मेदार बताया है. वैज्ञानिकों की मानें, तो भारत में दिल्ली सहित मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु और कोलकाता आदि शहरों में पीएम 2.5 की मात्रा अत्यधिक गंभीर स्थिति में है. आने वाले छह दशकों में यदि वायु प्रदूषण की यही स्थिति बरकरार रही, तो लगभग 10 करोड़ से अधिक लोग समय पूर्व अपनी जान गंवा देंगे. गौरतलब है कि पीएम 2.5 के संपर्क में लंबे समय तक रहने से अकेले 2005 में दक्षिण एशियाई शहरों में डेढ़ लाख और दक्षिण-पूर्व एशियाई शहरों में लगभग 53 हजार मौतें हुई थीं. वायु प्रदूषण से भारत को हर वर्ष 114 खरब रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है. यदि शीघ्र ही वायु गुणवत्ता सुधारने के समुचित प्रयास नहीं किये गये, तो मानव जीवन संकट में पड़ जायेगा. बीते वर्ष स्विट्जरलैंड की संस्था आईक्यू एयर की वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट में भारत को 2022 में दुनिया का सबसे प्रदूषित देश बताया गया था. तब दुनिया के सबसे प्रदूषित 50 शहरों में से 39 भारत के थे. अंतरराष्ट्रीय मानकों या दिशा-निर्देशों के हिसाब से हमारे शहरों में सीमा से कहीं अधिक प्रदूषण है. अब तो गांव भी इससे अछूते नहीं रहे हैं. वहां भी वायु प्रदूषण को कम करने की दिशा में कदम उठाया जाना चाहिए. अक्सर प्रदूषण कम करने की बाबत शहरों में ही प्रयास किये जाते हैं. जो योजनाएं बनती हैं, वे भी शहर केंद्रित ही होती हैं. जबकि उनका गांवों तक विस्तार होना चाहिए. होना तो यह चाहिए कि वह चाहे राज्य हों, महानगर हों, नगर हों, कस्बा हों या गांव, उन्हें अपनी स्थिति के हिसाब से यह तय करना चाहिए कि उसे कब तक कितना प्रदूषण कम करना है, ताकि लोग चैन की सांस ले सकें.
वायु प्रदूषण के खतरों से बच्चा, बूढ़ा, जवान, कोई भी नहीं बच पाया है. यह प्रदूषण बच्चों के मस्तिष्क के विकास के लिए खतरा बनने के साथ ही उनमें तेजी से बढ़ रहे अस्थमा का भी कारण बन रहा है. यदि वायु की गुणवत्ता में शीघ्र सुधार नहीं हुआ, तो बच्चों में अस्थमा खतरनाक रूप ले लेगा. सिएटल यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के डॉ मैथ्यू ऑल्टमैन की शोध से खुलासा हुआ है कि वायु प्रदूषण की वजह से बच्चों की सांस नली सूज रही है. उसके चारों ओर की मांसपेशियां सिकुड़ रही हैं. उनमें जल्दी कफ भर जाता है और सांस नली में पर्याप्त मात्रा में हवा नहीं जा पाती है. शोध में पाया गया है कि हवा में मौजूद धुएं और धूल के बारीक कण बच्चों के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं. इसका सबसे ज्यादा असर उन बच्चों पर हो रहा है जो कम विकसित शहरी इलाकों या पिछड़े इलाकों में रहते हैं. इस्ट एंजीलिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, जॉन स्पेंसर द्वारा अक्तूबर 2017 से जून 2019 के बीच किये गये 215 बच्चों के विजन, स्मृति, विजुअल प्रक्रिया के विश्लेषण से खुलासा हुआ है कि बच्चे में संज्ञानात्मक समस्या का संबंध खराब वायु गुणवत्ता से है. हवा में मौजूद हानिकारक बारीक कण मस्तिष्क में प्रवेश कर उसे नुकसान पहुंचाते हैं. लंबे समय तक बच्चे के मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव उसके जीवन को प्रभावित करता है. खराब वायु गुणवत्ता के चलते होने वाली संज्ञानात्मक समस्याएं दो वर्ष तक के बच्चों के लिए जोखिम भरी होती हैं. यही वह समय होता है जब बच्चे के मस्तिष्क विकास की प्रक्रिया अपने चरम पर होती है.
वायु प्रदूषण कम करने के उपाय नहीं हो रहे हैं, ऐसा कहना गलत है. वायु प्रदूषण इसलिए भी कम नहीं हो रहा है, क्योंकि प्रदूषण घटाने के जो भी प्रयास होते हैं, वे पीएम पार्टिकल्स पर ही केंद्रित रहते हैं. उनमें ओजोन, नाइट्रोजन व अन्य प्रदूषक तत्व शामिल नहीं होते. जबकि इन्हें भी शामिल किया जाना चाहिए. इसके अतिरिक्त जमीनी स्तर पर भी योजना का क्रियान्वयन व निगरानी बेहद जरूरी है. सर्वेक्षण में कहां कितना काम हुआ, प्रदूषण घटाने में किसकी भूमिका क्या और कितनी रही तथा उसमें सफलता-असफलता का प्रतिशत कितना रहा, इसका भी आकलन होना चाहिए. इस पूरी प्रक्रिया में शोधकर्ताओं का सहयोग भी लेना चाहिए. वायु प्रदूषण कम करने के लिए जनभागीदारी भी जरूरी है. इसके बिना सफलता की आशा बेमानी है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)