कानपुर: ‘बिठूर के नाना की मुंहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी. नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी, बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी. वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद जुबानी थी. बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.’
यह पंक्तियां आज भी बिठूर सहित देश के हर व्यक्ति की जुबान पर है. इस दुनिया को छोड़ने से पहले लक्ष्मीबाई ने एक क्रांति की अलख जगाई, जो 1947 तक जारी रही. लक्ष्मीबाई का बचपन बिठूर स्थित नानाराव पेशवा के महल में गुजरा. यहीं पर उन्होंने घुड़सवारी से लेकर तलवारबाजी सीखी. तात्या टोपे से लेकर अली तक ने उन्हें रण के गुण सिखाए. रानी अपनी सहेली मैना के साथ सावन माह में जागेश्वर मंदिर आती और भगवान शिव की पूजा अर्चना करती थीं. बगल में बने अखाड़े में हाथ अजमा कर वो चली जाया करती थीं.
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1835 को काशी के ब्राह्मण मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई के घर हुआ था. काशी में जन्म के बाद रानी को लेकर मोरोपंत और भागीरथी बिठूर आ गए. मनु जब 4-5 साल की थी, तभी उनकी मां भागीरथी बाई की मौत हो गई. मराठा शासक रहे महाराजा बाजीराव द्वितीय ने रानी का नाम मनु और छबीली रख दिया. मनु बिठूर में महाराजा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब और बिठूर राज परिवार से जुड़े परिवारों के बच्चों के साथ ज्यादा रहती थी. इनमें बालकों की संख्या ज्यादा होती थी.
रानी ने पुरुष मंडली के बीच भी समय बिताया और बचपन में ही तलवारबाजी, पिस्तौल, बंदूक चलाना सीख लिया. तात्या टोपे से मनु ने भी युद्धकला सीखी. इसी युद्धकला के जरिए उन्होंने अंग्रेजों के छुक्के छुड़ा दिए. लक्ष्मीबाई की शिक्षा-दीक्षा भी बिठूर के शाही परिवार के राजकुमारों के साथ हुई. उन्होंने राजकुमारों को पढ़ाने आने वाले अध्यापकों से हिंदी, मराठी, संस्कृत और फारसी भाषा सीखी थी. इसके साथ ही उन्होंने राजपुरुषों को सिखाए जाने वाले रीति-रिवाज और रहन-सहन भी सीख लिए.
रानी लक्ष्मी बाई अपनी सहेली मैना के साथ कई बार बिठूर से जागेश्वर मंदिर आई थीं. जागेश्वर मंदिर के पुजारी ने बताया कि रानीलक्ष्मी बाई पूजा अर्चना करने से पहले मंदिर के सामने बने गंगा घाट में स्नान ध्यान करती थीं. ताजे फूल और गंगा जल लेकर आती और शिवलिंग में अर्पण करती थीं. बॉजीराव द्वितीय का बनवाया घाट आज भी मौजूद है, लेकिन गंगा का पानी चालीस साल पहले यहां से गायब हो गया. जिसके चलते घाट बदहाल पड़ा है.
मंदिर के बगल में आज भी वह अखाड़ा मौजूद है, जहां बचपन में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई आकर पुरुष पहलवानों के साथ दो-दो हाथ किया करती थीं. अखाड़े के अध्यक्ष ने बताया कि बाजीराव श्रावण मास के दूसरे सोमवार को मनु के साथ जागेश्वर धाम पधारे थे. जहां पूजन अर्चन के बाद बंजीराव अखाड़ा पहुंच गए. मनु ने अपनी ही उम्र में पहलवान को चित कर दिया था तो नाना बहुत खुश हुए थे.
जागेश्वर मंदिर के बगल में स्थापित अखाड़ा आज भी उसी जगह मौजूद है, जहां झांसी की रानी कभी आकर कुश्ती के दांव सीखती थीं. अखाड़ा परिषद के सदस्य रमेश गुप्ता ने बताया कि हर साल सावन माह के दूसरे और आखिरी सोमवार को यहां पर दंगल का आयोजन किया जाता है. दंगल में देशभर से कई पुरुष और महिला पहलवान शामिल होते हैं.
पहले महिला पहलवान दंगल में अपने दांव पेंच दिखाती हैं और बाद में पुरुष पहलवान कर्तव्य दिखाते हैं.गुप्ता बताते हैं कि कई साल पहले खुद नानाराव पेशवा यहां आकर क्रांतिकारियों में जोश भरते थे और उन्हें पहलवानी का रिहर्सल कराते थे. यही कारण था कि उनकी सेना में सबसे ज्यादा मल्लाह पुरूष व महिला सिपाहियों की संख्या ज्यादा हुआ करती थी.