Independence Day: देश में आजादी की 76वीं वर्षगांठ पर आजादी का महोत्सव मनाया जा रहा है. बरेली के खान बहादुर खान ने अपने क्रांतिकारियों के साथ देश को पहले भी आजादी दिलाई थी. मगर, यह आजादी करीब 10 महीने 5 दिन तक रही. बरेली अंग्रेजी हुकूमत से आजाद हो गया था. मगर, 6 मई 1858 को अंग्रेजों ने एक बार फिर बरेली पर कब्जा कर लिया. क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया.
इसके बाद 24 फरवरी 1860 को खान बहादुर खान को पुरानी कोतवाली में फांसी दी गई, जबकि 257 क्रांतिकारियों को कमिश्ननरी के बरगद के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया था. क्रांति की छाप इस बरगद की हर साख और पत्ते पर नजर आती थी. यह पेड़ गिर गया, लेकिन उसकी जड़ों में खड़ा शहीद स्तंभ क्रांति की याद दिलाता है. जंग-ए-आजादी की लड़ाई में रुहेलखंड के क्रांतिकारियों ने सबसे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था.
यह शहर क्रांतिकारियों का बड़ा गढ़ था.1857 की लड़ाई में खान बहादुर खान के नेतृत्व में आजादी के दीवानों ने सर पर कफ़न बांध कर अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. बरेली में आजादी की तमाम निशानियां अभी भी मौजूद हैं. इसमें एक कमिश्नरी का एक बरगद का पेड़ भी था. पेड़ से लटका कर 257 आजादी के दीवानों को फांसी पर लटका दिया गया था. कमिश्नरी में बना शहीद स्तम्भ इस बात की गवाही देता है. ये शहीद स्तंभ देश की आजादी में क्रांतिकारियों के बलिदान की याद दिलाता है.
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जंग-ए-आजादी का बिगुल 1857 में फूंका गया था. उस समय बरेली सहित पूरा रुहेलखंड क्रांति की आग में सुलग रहा था, तभी रुहेला सरदार खान बहादुर खान के साथ पंडित शोभाराम और तमाम क्रांतिकारी दिन में क्रांति की आग लिए सड़कों पर निकल पड़े. इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सरकार की नीव हिला दी. जिसके चलते अंगेजी सरकार ने 6 मई 1858 को तमाम क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया.
रुहेला सरदार खान बहादुर खान को फांसी देने के बाद भी अंग्रेजों का खौफ समाप्त नहीं हुआ था. उन्हें डर था कि कहीं लोग खान बहादुर खान को फांसी दिए जाने वाली जगह पर इबादत न शुरू कर दें. इसलिए अंग्रेजों ने खान बहादुर खान को बेड़ियों समेत पुरानी जिला जेल में दफन कर दिया था. काफी प्रयास के बाद 2007 में खान बहादुर खान की कब्र को जेल से बहार निकालकर आजाद किया गया.
उत्तर प्रदेश के बरेली में क्रांति का बिगुल बजाने वाले खान बहादुर खां रुहेला सरदार हाफिज रहमत खां के पोते थे. उनका जन्म 1791 में हुआ था, पिता जुल्फिकार अली खां के इंतकाल के बाद वे बरेली के भूड़ मोहल्ले में आकर बस गए थे. वह ब्रिटिश सरकार में सदर न्यायाधीश भी रहे थे.
रिपोर्ट- मुहम्मद साजिद, बरेली