चंद्रयान से अंतरिक्ष में आगे बढ़ता भारत
भारत ने पिछली सदी के 50 और 60 के दशक में अंतरिक्ष विज्ञान की दुनिया में शुरुआती कदम बढ़ाये थे. आज हम काफी आगे बढ़ चुके हैं. आज खास तौर से भारत के दो प्रक्षेपण यान, पीएसएलवी और जीएसएलवी, बहुत ही भरोसेमंद हैं.
वर्ष 2008 के चंद्रयान-1 अभियान को शुरू में असफल कहा गया था, लेकिन बाद में चंद्रमा पर पानी के लगातार बनने और उसके वाष्पीकरण की प्रक्रिया की पुष्टि करने में चंद्रयान-1 का बड़ा योगदान रहा. चंद्रमा से लाये गये चट्टानों में पानी होने के प्रमाण एक जमाने से मिल रहे थे. इसकी पुष्टि करना पूरी मानवता और विज्ञान जगत के लिए एक बड़ा योगदान था. अंतरिक्ष में पानी का होना बहुत अहमियत रखता है. इससे उसके आसपास जीवन होने की संभावना होती है. हालांकि, इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि चांद पर ऐसा मुमकिन नहीं है, मगर इस खोज की बड़ी उपलब्धि यह थी कि यदि अंतरिक्ष में अच्छी मात्रा में पानी मौजूद हो, तो उससे अंतरिक्ष में आगे जाने या वापस लौटने के लिए हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को तोड़ कर ईंधन बनाया जा सकता है. इसलिए अब भी चांद पर पानी की खोज हो रही है. कुछ लोगों का मानना है कि चांद पर उन गुफाओं और गड्ढों में पानी बर्फ की तरह मौजूद हो सकता है, जहां सूर्य की किरणें नहीं पहुंचतीं यानी चंद्रयान-1 की उपलब्धि पानी की पुष्टि थी.
चंद्रयान-2 अभियान को नाकाम कहा जाता है, मगर एक वैज्ञानिक के तौर पर मैं ऐसा नहीं मानता. विज्ञान में नाकामी जैसी कोई चीज नहीं होती. हम सीख कर सीढ़ी के अगले पायदान की ओर बढ़ते हैं. चंद्रयान-3 उसी दिशा में एक नया पायदान है. इस अभियान के उद्देश्य वही हैं, जो पिछले अभियान के थे यानी चांद के वातावरण को देखना, वहां होने वाली भूकंपीय गतिविधियों का अध्ययन करना और वहां संभावित खनिज पदार्थों का पता लगाना. ऐसे में, यह एक वैश्विक अभियान का हिस्सा हो जाता है, जिसमें पता लगाने की कोशिश हो रही है कि क्या चांद से ऐसे खनिजों को लाकर उनका इस्तेमाल किया जा सकता है, जिनकी धरती पर कमी है. हालांकि ऐसे उद्देश्यों के अतिरिक्त, ऐसे किसी भी अभियान में एक बड़ा उद्देश्य अपनी तकनीकी क्षमता को प्रदर्शित करना होता है. पहली उपलब्धि तो चांद पर पहुंचने से ही हो जाती है. दूसरी उपलब्धि सॉफ्ट लैंडिंग की होगी, ताकि चंद्रमा पर लैंड करने के बाद उपकरणों का इस्तेमाल कर जानकारियां जुटायी जा सकें. चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग करना और सतह पर रोवर उतारना भारत के अंतरिक्ष इतिहास में एक नये तरह की उपलब्धि होगी.
भारत ने पिछली सदी के 50 और 60 के दशक में अंतरिक्ष विज्ञान की दुनिया में शुरुआती कदम बढ़ाये थे. आज हम काफी आगे बढ़ चुके हैं. आज खास तौर से भारत के दो प्रक्षेपण यान, पीएसएलवी और जीएसएलवी, बहुत ही भरोसेमंद हैं. इसमें दो बातें महत्वपूर्ण हैं. विज्ञान छिपा कर रखने की चीज नहीं है. गलतियां होती हैं और उनसे सीख कर हम आगे बढ़ते हैं. आज भी सफल प्रक्षेपणों के प्रतिशत के हिसाब से दुनिया में भारत का प्रदर्शन बेहतरीन है. हमारे 90 प्रतिशत से ज्यादा प्रक्षेपण सफल रहे हैं. शुरुआती दौर में अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के अभियानों की नाकामी की दर ज्यादा थी. तब वे सीख रहे थे और भारत भी उनके कंधे पर चढ़ कर आगे बढ़ा. आज के वक्त में प्रक्षेपण यानों पर भारत की महारत का काफी सम्मान किया जाता है. इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि भारत दूसरों के मुकाबले कम खर्च में लॉन्च भी करता है और उसके कामयाब रहने की संभावना भी ज्यादा रहती है.
भारत इन यानों के लिए लिक्विड और सॉलिड दोनों तरह के ईंधन भी खुद बना लेता है. अंतरिक्ष क्षेत्र में बड़ी संख्या में छोटे उपग्रहों को ले जाकर उन्हें सही कक्षा में रखना एक मुश्किल तकनीक मानी जाती है. वैसे ही, भारी उपग्रहों को सही कक्षा में रखना भी एक अलग तरह का कौशल माना जाता है. भारत ने दोनों ही तकनीकों को साध लिया है. उपग्रहों को भेजने के ऐसे अभियान चलते रहते हैं, मगर अब भारत का अगला सबसे बड़ा अभियान मानव अभियान है. ऐसी उम्मीद है कि इस वर्ष के अंत तक उसकी तैयारियां पूरी हो जायेंगी और भारत जल्दी ही मानव को अंतरिक्ष में भेज पायेगा. वह भारत के अंतरिक्ष इतिहास में मील का एक बड़ा पत्थर साबित होगा. हालांकि, चीन इस मामले में भारत से आगे निकल चुका है और वह लगातार इंसानों को अंतरिक्ष में भेज रहा है. भारत को चीन से भी सीखना चाहिए, क्योंकि विज्ञान में दुश्मनी नहीं होती.
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में आर्थिक अवसरों की काफी चर्चा होती है. ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि आने वाले वर्षो में वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का आकार एक ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जायेगा, मगर यह समझना जरूरी है कि विज्ञान की बुनियादी समझ के बिना कुछ भी नया करना मुश्किल है. बल, गति, वेग, और संवेग को समझे बिना न साइकिल बन सकती है, न मोटर और न रॉकेट. दरअसल, हम जब विज्ञान सीखते हैं, तो हम दूसरे मुल्कों में होने वाली तकनीकी प्रगति को समझ भी पाते हैं. वे हमारी बात समझते हैं, हम भी उनकी बात समझ पाते हैं. उदाहरण के लिए, अफगानिस्तान जैसे मुल्क में लोग अंतरिक्ष विज्ञान की चर्चा होने पर समझ ही नहीं सकते कि क्या बात की जा रही है. भारत में विज्ञान को समझने वाला एक मजबूत समुदाय मौजूद रहा है, जो विज्ञान को समझ सकता है और आगे भी बढ़ सकता है. अंतरिक्ष विज्ञान का फायदा यहीं से मिलना शुरू हो जाता है, मगर मेरा मानना है कि हमें हर समय तत्काल लाभ की बात नहीं करनी चाहिए. विज्ञान में महारत हासिल हो जाए, तो लाभ अपने आप चला आता है.
आज वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में भारत की भागीदारी दो से तीन प्रतिशत के बीच बतायी जाती है. वर्ष 2020 में यह 2.1 प्रतिशत या 9.6 अरब अमेरिकी डॉलर थी. चीन की तुलना में यह बहुत कम है. पिछले वर्ष, चीन ने हर महीने लगभग तीन प्रक्षेपण किये. भारत में पिछले साल पांच प्रक्षेपण हो पाये. ऐसे में, भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में जो कौशल हासिल किया है, उससे कमाई करने के लिए उसे अभी लंबा रास्ता तय करना है, लेकिन दुनिया में भारत की साख बढ़ रही है, क्योंकि अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में प्रतियोगी देश बहुत कम हैं. भारत को अंतरिक्ष अभियानों की क्षमता तेज करनी होगी. और, बिना बुनियादी विज्ञान की पढ़ाई पर ध्यान दिये, क्षमता नहीं बढ़ सकती. इसरो को अब बड़ी-बड़ी उपलब्धियों से बाहर निकल कर विज्ञान पर जोर देना चाहिए. इसका एक तरीका यह है कि ज्यादा-से-ज्यादा शिक्षण संस्थानों को अंतरिक्ष विज्ञान के अनुसंधानों से जोड़ा जाए.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)