शघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की शिखर बैठक को यदि उपलब्धि के लिहाज से देखा जाए, तो उसमें कोई ऐसी खास चीज निकलकर नहीं आयी. लेकिन, इसकी कोई उम्मीद भी नहीं की जा रही थी. इसकी वजह यह है कि एससीओ जिस तरह का संगठन है और उसमें चीन का जिस तरह से दबदबा है, उसमें कोई बड़ी उपलब्धि निकल कर आने की संभावना कम ही होती है. मगर यह जरूर है कि एससीओ का अध्यक्ष होने के नाते भारत ने कूटनीतिक स्तर पर उपलब्धि हासिल की. उसने एससीओ क्षेत्रों में कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया. साथ ही, सरकार ने सम्मेलन का थीम सिक्योर यानी- सिक्योरिटी, इकोनॉमिक डेवलपमेंट, कनेक्टिविटी, यूनिटी, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के लिए रेस्पेक्ट और एनवायरमेंटल संरक्षण- रखा. ऐसे समय जब एससीओ के साथ-साथ भारत जी-20 समूह की भी अध्यक्षता कर रहा है, तो ऐसे में एससीओ बैठक से भारत की कूटनीतिक पहुंच बढ़ी. भारत जी-20 जैसे बड़े ताकतवर समूह का अध्यक्ष है और ऐसे में एससीओ की शिखर बैठक के आयोजन से भारत ने यह भी संदेश दिया है कि वह केवल जी-20 ही नहीं, अपने क्षेत्र के संगठनों के प्रति भी उतना ही गंभीर है.
हालांकि, इस क्षेत्र की रणनीतिक स्थिति पेचीदा है. एससीओ में अभी तक आठ देश हैं, और अब ईरान को भी शामिल किया जा रहा है. तो, एससीओ के छह सदस्यों के साथ तो भारत के अच्छे संबंध हैं, मगर चीन और पाकिस्तान के साथ तनाव वाले संबंध हैं. हालांकि, एससीओ जैसे क्षेत्रीय गुट का हिस्सा होने का लाभ यह है कि भारत को यह पता रहता है कि उसके खिलाफ क्या कुछ कहा जा रहा है, और साथ ही वह वहां अपनी बात भी रख सकता है. जैसे, इस सम्मेलन में भी चीन ने पिछले सम्मेलनों की तरह अपना एजेंडा रखने की कोशिश की. एससीओ के एजेंडे में संपर्क बढ़ाना शामिल है और चीन इसी के तहत अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव प्रोजेक्ट के लिए समर्थन जुटाना चाहता है, और जिस पर भारत को आपत्ति रही है. चीन की यह परियोजना संपर्क से ज्यादा दूसरे देशों को कर्ज के चंगुल में फंसाने की कोशिश ज्यादा है. मगर, इससे बड़ी मुश्किल यह है कि भारत की सीमा जब चीन और पाकिस्तान से लगती है तो उनके बीच संपर्क कैसे बढ़ सकता है. जैसे, भारत को यदि रूस से संपर्क जोड़ना हो और उसके लिए पाकिस्तान या चीन से होकर जाना हो, तो वह भारत के लिए घाटे का सौदा होगा. इसलिए उसकी बात तो होती है, पर कोई प्रगति नहीं होती. हालांकि, ईरान के आने से एससीओ देशों के बीच संपर्क कायम करने का एक रास्ता निकल सकता है क्योंकि उसके साथ भारत के संबंध सामान्य हैं.
संपर्क के अलावा, एससीओ की बैठक में एक अहम मुद्दा आतंकवाद का रहता है. दरअसल, 2001 में एससीओ का गठन आतंकवाद और सुरक्षा के ही मुद्दे पर हुआ था. तब अमेरिका में 11 सितंबर के हमले के बाद इस क्षेत्र की सुरक्षा के संदर्भ में इसका गठन हुआ था. बाद में, इसमें और भी मुद्दे जुड़ गये. अभी हुई एससीओ शिखर बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर से आतंकवाद को चर्चा का केंद्र बिंदु बनाया. यह एक दुरुस्त कदम था क्योंकि वे ऐसा कर न केवल इस मुद्दे को चर्चा के केंद्र में ले आये, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि आतंकवाद के मुद्दे को पूरी तरह से सुलझाए बिना सहयोग और संपर्क की बातों का कोई अर्थ नहीं है. आतंकवाद को रोकने की चर्चा में एक अहम मुद्दा उन देशों का रहता है जो आतंकवाद को बढ़ावा देते हैं या प्रायोजित करते हैं. चीन जैसे देश आतंकवाद को समर्थन देते रहे हैं, खास तौर पर पाकिस्तान के आतंवादियों को चीन ने शह दी है.
चूंकि एससीओ की बैठक में सैद्धांतिक तौर पर द्विपक्षीय मुद्दों को नहीं उठाया जाता, इसलिए उस मर्यादा का ध्यान रखते हुए दूसरे देशों के नाम नहीं लिए जाते. लेकिन, ऐसी बातों में इशारा ही काफी होता है और इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने बिना नाम लिये जो कहा, उसका निशाना सही बैठा और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने बयान दे डाला. हालांकि, उनका वह बयान वैसा ही था जैसा गोवा में एससीओ की विदेश मंत्रियों की बैठक में बिलावल भुट्टो का था. भारत का आतंकवाद के मुद्दे को उठाना बिल्कुल जायज है क्योंकि यह एससीओ के चार्टर के तहत भी है और भारत की जरूरत भी है. तो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिखर सम्मेलन में जो भी कहा, उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती.
एससीओ की बैठक में रूस और अन्य देशों ने भी अपने पक्ष रखे. लेकिन, यह संगठन आगे बढ़ता नजर नहीं आ रहा. इसकी एक बड़ी वजह चीन है. इस संगठन पर उसका दबदबा इतना अधिक हो गया है कि बाकी देश उसमें सहज नहीं रह पाते. मध्य एशिया के देशों की तो मजबूरियां हैं, मगर भारत के साथ चीन से सहयोग बढ़ाने की कोई मजबूरी नहीं है. लेकिन, रूस की भी मजबूरी है. उसकी चीन से नजदीकी बढ़ रही है, जो भारत के लिए एक दुश्वारी की वजह बन रही है. इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने शीत युद्ध छिड़ सकने की चेतावनी दी, मगर देखा जाए तो उसकी शुरुआत हो ही चुकी है. पर चीन की समस्या यह है कि वह चाहे जितनी धौंस जमाने की कोशिश करे, मगर वह अभी भी उस जगह पर नहीं पहुंचा है कि उसका अमेरिका की तरह असर और रसूख हो.
और, उन्हें चिंता होगी कि यदि स्थिति और खराब हुई तो चीन की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ना न शुरू हो जाए, क्योंकि जितनी जरूरत दुनिया को चीन की है, उतनी ही चीन को भी बाजार की जरूरत है. शी जिनपिंग की शीत युद्ध भड़कने की चेतावनी को चीन की इसी चिंता के तौर पर देखा जाना चाहिए. कुल मिलाकर, एससीओ की बैठक को भारत के लिए इस मायने में सफल कहा जाना चाहिए कि भारत ने इसमें अपना संदेश भी दे दिया, और कूटनीतिक तौर पर जो हासिल करना था, उसे हासिल भी कर लिया. हालांकि, भारत शायद जी-20 के शिखर सम्मेलन को ज्यादा अहमियत दे रहा है. सितंबर में होने वाली उस बैठक में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी दिल्ली आयेंगे और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी. ऐसे में शायद भारत ने एससीओ की बैठक को वर्चुअल बैठक में बदल बीच का एक रास्ता निकाला, ताकि चीन और पाकिस्तान के नेताओं का जोरदार स्वागत करने से बचा जा सके.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)