बाल भिक्षावृत्ति को लेकर उदासीन समाज
सत्तर के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ ऐसे गिरोहों का पर्दाफाश हुआ था, जो अच्छे-भले बच्चों का अपहरण कर उन्हें लोमहर्षक तरीके से विकलांग बना भीख मंगवाते थे. लेकिन नब्बे का दशक आते-आते इस समस्या का रंग-ढंग बदल गया. ऐसे गिरोहों के अलावा महानगरों में झुग्गी संस्कृति से जो रक्तबीज प्रसवित हुए.
दक्षिणी दिल्ली के अधिकांश ट्रैफिक सिग्नलों पर जैसे ही लाल बत्ती होती है, सात-आठ वर्ष की कुछ लड़कियां लोहे का एक छल्ला लेकर आ जाती हैं, एक बच्चा ढोलक बजाता है और लड़की करतब दिखाती है. कुछ ही मिनटों बाद उनके हाथ भीख के लिए फैल जाते हैं. करतब दिखा कर कुछेक पैसा मिलने से उन्हें भले ही खुशी होती हो, लेकिन यह खुशी इस देश के लिए कितनी महंगी पड़ेगी, इस पर गौर करने का कष्ट कोई भी शासकीय या स्वयंसेवी संगठन नहीं कर रहा है. यूनिसेफ के अनुसार, पिछले छह वर्षों में देश में सात करोड़ बाल श्रमिक बढ़ गये हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) और यूनिसेफ की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2016 में देशभर में करीब 9.40 करोड़ बाल श्रमिक थे जो अब बढ़कर 16 करोड़ हो गये हैं. दुर्भाग्य है कि हर शहर कस्बे में सड़क पर भीख मांगने वाले इन बच्चों को शायद ही बाल श्रम में शामिल किया गया जाता है.
ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगना, ट्रेन-बस में गाना गाने के अलावा, इन मासूमों का इस्तेमाल और भी तरीकों से होता है. कुछ बच्चे (विशेषकर लड़कियां) भीड़ में पर्चा बांटती दिखेंगी कि वे गूंगी हैं, उसकी मदद करनी चाहिए. छोटे बच्चों को बीच सड़क पर लिटाकर बीमार होने या मर जाने का नाटक कर पैसा ऐंठने का खेल अब छोटे-छोटे कस्बों तक फैल गया है. मथुरा, काशी सरीखे धार्मिक स्थानों पर बाल ब्रह्मचारियों के नाम पर भिक्षावृत्ति जोरों पर है. इसके अलावा, जादू या सांप-नेवले का खेल दिखाने वाले मदारी के जमूरे, सेकेंड क्लास डिब्बों में झाड़ू लगाते व चौराहों पर कार-स्कूटर की धूल झाड़ने जैसे काम के नाम पर या सीधे भीख मांगते बच्चे सरेआम मिल जायेंगे. अनुमान है कि देश में कोई पचास लाख बच्चे हाथ फैलाये एक अकर्मण्य व श्रमहीन भारत की नींव रख रहे हैं.
सत्तर के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ ऐसे गिरोहों का पर्दाफाश हुआ था, जो अच्छे-भले बच्चों का अपहरण कर उन्हें लोमहर्षक तरीके से विकलांग बना भीख मंगवाते थे. लेकिन नब्बे का दशक आते-आते इस समस्या का रंग-ढंग बदल गया. ऐसे गिरोहों के अलावा महानगरों में झुग्गी संस्कृति से जो रक्तबीज प्रसवित हुए, उनमें अब अपने सगे ही बच्चों को भिक्षावृत्ति में धकेल रहे हैं. हारमोनियम लेकर बसों में भीख मांगने वाले एक बच्चे से पता चला कि उसके मां-बाप उसे सुबह छह बजे जगा देते हैं, और ऐसी बस रूटों की ओर धकेल देते हैं, जहां दफ्तर जाने वालों की बहुतायत होती है.
भूखे पेट बच्चे दिन में 12 बजे तक एक बस से दूसरी बस में चढ़ राग अलापते रहते हैं. उसके बाद शाम 4.30 बजे से 8.00 बजे तक फिर से बसों में चक्कर काटते हैं. वे रोज औसतन 50 से 75 रुपये कमाते हैं. वे ज्यादातर फुटपाथों पर रहते हैं. मां भीख मांगती है, बाप नशा कर दिन काटता है. नशा खरीदने के लिए पैसे बच्चों की मशक्कत से ही आते हैं. यह भी देखा गया है कि भीख मांगने वाली लड़कियां 14 वर्ष की होते-होते मां बन जाती हैं और दुबली-पतली देह पर एक मरियल सा बच्चा कमाई का अच्छा ‘साधन’ बन जाता है.
बाल श्रम निवारण कानून और भिक्षावृति निरोधक अधिनियम के अंतर्गत भीख मांगने वाले को एक से तीन साल के कारावास का प्रावधान है लेकिन कई राज्यों में संपेरे, मदारी, नट, साधु आदि को पुरातन भारतीय लोक- कलाओं व संस्कृति का रक्षक माना जाता है और वे इस अधिनियम की परिधि से बाहर होते हैं. अलबत्ता भिखारी बच्चों को पकड़ने की जहमत कोई सरकारी महकमा नहीं उठाता है. फिर, यदि इस सामाजिक समस्या को कानूनी डंडे से ठीक करने की सोचें, तो असफलता ही हाथ लगेगी. देश के बाल सुधार गृहों की हालत अपराधी निर्माणशाला से अधिक नहीं है. यहां बच्चों को पीट-पीट कर मार डालने तक के आरोप लगते रहे हैं. भूख से बेहाल बच्चे यौन शोषण का भी शिकार होते हैं.
बाल भिक्षावृत्ति समस्या की चर्चा बाल श्रम के बगैर अधूरी लगेगी. देश में बच्चों को बाल श्रम से बचाने के नाम पर चल रहे संगठनों के बाल श्रम की रोकथाम के नारे केवल उन उद्योगों के इर्द-गिर्द भटकते दिखते हैं, जिनके उत्पाद देश को विदेशी मुद्रा अर्जित कराते हैं. भूख से बेहाल बच्चे की पेट व बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न तो कानून या शासन सक्षम है, न ही समाज जागरूक है. ऐसे में बच्चा यदि छुटपन से कोई ऐसा तकनीकी कार्य सीखने लगता है, जो आगे चल कर न सिर्फ उसके जीवकोपार्जन का साधन बनता है, बल्कि देश की आर्थिक व्यवस्था में सहायक होता है, तो यह सुखद है.
एक्सपोर्ट कारखानों से बच्चों की मुक्ति की मुहिम चलाने वाली संस्थाओं और शख्सियतों का सड़कों पर हाथ फैलाये नौनिहालों की अनदेखी करना, उनके बच्चों के प्रति प्रेम व निष्ठा के विद्रूप चेहरे को उघाड़ता है. बच्चों के शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास के लिए 22 अगस्त, 1974 को बनी ‘राष्ट्रीय बाल नीति’ हो या 2020 की राष्ट्रीय शिक्षानीति , फिलहाल सभी कागजी शेर की तरह दहाड़ते दिख रहे हैं. सभी बच्चों को शिक्षा के अधिकार के ढिंढोरे से ज्यादा उस मानवीय दृष्टिकोण की जरूरत है जो मासूमों के दिल के अरमान पूरा कर सकें.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)