पीएम मोदी की यात्रा से मजबूत होगा भारत-अमेरिका का रक्षा संबंध
इसमें कोई शक नहीं है कि 1965 की लड़ाई में अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया था, मगर आज अमेरिका को यह अहसास हो गया है कि भारत ही ऐसा अकेला देश है जो अपने राष्ट्रीय हितों के बारे में सोचता है. उसकी अपनी स्वतंत्र नीति है और वह ना अमेरिका के साथ है, ना रूस के और ना ही चीन के.
भारत और अमेरिका में पिछले 20-25 सालों में नजदीकी बढ़ी है. इसके कई कारण हैं. इनमें सबसे अहम है भारत की तकनीक को आत्मसात करने की क्षमता. भारत अब ऐसी स्थिति में पहुंच चुका है जहां वह ना केवल रक्षा तकनीक का इस्तेमाल कर सकता है बल्कि उत्पादन में साझेदार भी हो सकता है. ये साझेदारी बराबरी की है जिसमें भारत के निजी उद्यम और अमेरिका के हथियार उद्योग के बीच तालमेल है. इस वजह से रक्षा क्षेत्र में भारत और अमेरिका के संबंधों का भविष्य उज्ज्वल है. इस नजदीकी की सबसे बड़ी वजह चीन है और भारत और अमेरिका के रक्षा सहयोग को चीन की चुनौती के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
जैसे, अमेरिका से भारत को 31 प्रीडेटर ड्रोन मिलने की चर्चा हो रही है. इन ड्रोन्स का मकसद दुश्मन की हरकतों के ऊपर नजर रखना है. इनके मिलने से भारत के पास ऐसी क्षमता आ जायेगी जिससे हिंद महासागर के क्षेत्र से लेकर पहाड़ों, अरुणाचल प्रदेश, लगभग 3700 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा एलएसी या नियंत्रण रेखा एलओसी तक की रात-दिन निगरानी की जा सकेगी और खुफिया जानकारियां जुटायी जा सकेंगी. इनमें से आठ-आठ सेना और वायु सेना को और 15 नौसेना को मिलेंगे. ये एमक्यू- 9 प्रीडेटर ड्रोन, आर्म्ड ड्रोन हैं. यानी ये ऐसे ड्रोन्स हैं जिनमें हेलफायर मिसाइलें लगायी जा सकती हैं. इन मिसाइलों से हवा से जमीन पर हमले किये जा सकते हैं और इनका इस्तेमाल कर दुश्मन के जमावड़े को बरबाद किया जा सकता है. इनसे पानी के भीतर लड़ने के लिए एंटी-सबमरीन वॉरफेयर की क्षमता भी हासिल की जा सकती है और दुश्मन की पनडुब्बियों को नष्ट किया जा सकता है.
चीन का सामना करने के लिए ऐसी क्षमता का होना बहुत जरूरी है, क्योंकि चीन अब इस मुकाम पर पहुंच चुका है जहां उसके पास सब कुछ है. वह अमेरिका से टक्कर ले रहा है और उसके पास उच्च कोटि के हथियार हैं. वह एक बड़ी आर्थिक शक्ति है जिसकी जीडीपी भारत से तकरीबन पांच गुना बड़ी है. ऐसे में भारत को यदि अमेरिका से प्रीडेटर ड्रोन जैसे सैन्य साजो-सामान मिलते हैं, तो उसकी रक्षात्मक क्षमता मजबूत होगी जो बहुत जरूरी है. चीन अभी लद्दाख, तिब्बत, अरुणाचल जैसी जगहों पर सीमा के नजदीक आकर पैर जमा रहा है. उसने उन इलाकों में शिविर, सड़क, रेलमार्ग, हेलिपैड से लेकर गांव तक बसाने शुरू कर दिये हैं. वह एक तरह से भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. ऐसे में भारत के लिए उस पर नजर रखना बहुत जरूरी है ताकि अचानक से हमला न हो जाए.
अमेरिका ने 2020 के गलवान संघर्ष के बाद भारत को ऐसे दो ड्रोन लीज पर दिये थे. चीन को यह पता है कि हिंद महासागर में या हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वह रक्षात्मक स्थिति में है. वहां अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे लोकतांत्रिक देश मजबूती से मौजूद हैं, और वे चाहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय जल सीमा में कानून का शासन हो तथा चीन वहां दखल न दे सके. दक्षिण चीन सागर में चीन यह मानकर चलता है कि वहां का 90 फीसदी हिस्सा उसका है. अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र के नियमन के लिए बनायी गयी संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत यह गलत है. मगर चीन जिसकी लाठी उसकी भैंस के मुहावरे पर चलने की कोशिश करता है. ऐसे में चीन को बार-बार यह याद दिलाना जरूरी है कि उसे यदि अन्य देशों के साथ संबंध रखना है तो उसे आपसी विश्वास बनाकर रखना होगा.
प्रीडेटर ड्रोन्स जैसी क्षमताओं के रहने से चीन को काबू में रखने में मदद मिलेगी. इनके अलावा, अमेरिका से भारत को विमानों के लिए 400 जीई एफ 414 इंजन मिल रहे हैं. ये इंजन भारत में बने सिंगल इंजन लड़ाकू विमान तेजस में इस्तेमाल होते हैं. ये बहुत ही उच्चकोटि के इंजन हैं जिनमें शून्य से सुपरसोनिक गति तक जाने की काबिलियत है. इनकी ईंधन इस्तेमाल क्षमता भी बहुत अच्छी है. ऐसे 400 इंजनों के मिलने से भारतीय वायुसेना में निश्चित रूप से 42 लड़ाकू स्क्वाड्रन होने की क्षमता को हासिल किया जा सकेगा. इन इंजनों का भी सह-उत्पादन होगा जिसके लिए हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के साथ एक साझेदारी की गयी है. ऐसे समझौतों से भारत और अमेरिका के संबंध और मजबूत होंगे.
अमेरिका के साथ ऐसी साझेदारियों से भारत की रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को हासिल करने के प्रयासों को भी मदद मिलेगी. जैसे, भारत अभी सैन्य साजो-सामानों के लिए रूस पर निर्भर है जहां से 60 प्रतिशत सैन्य सामग्रियां मिलती हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि 1965 की लड़ाई में अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया था, मगर आज अमेरिका को यह अहसास हो गया है कि भारत ही ऐसा अकेला देश है जो अपने राष्ट्रीय हितों के बारे में सोचता है. उसकी अपनी स्वतंत्र नीति है और वह ना अमेरिका के साथ है, ना रूस के और ना ही चीन के. रूस के साथ भारत के पुराने संबंध रहे हैं और अभी भी दोनों देश आपस में अच्छे संबंध रखना चाहेंगे. ऐसे ही अब भारत और अमेरिका भी अपने रक्षा संबंधों को मजबूत करना चाहते हैं.
यदि रक्षा से जुड़े साजो-सामान का भारत में ही साझेदारी के तहत उत्पादन होता है, तो इससे भारत और अमेरिका दोनों ही देशों के निजी उद्योगों को फायदा होगा. भारत की अभी रूस पर बहुत ज्यादा निर्भरता है. वह निर्भरता कम होकर अमेरिका, फ्रांस, इजराइल, जर्मनी जैसे देशों में बंट सकती है. भारत खुद भी आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है. अमेरिका ने भारत को चिनुक, अपाचे जैसे हेलिकॉप्टर, हर्क्यूलस और ग्लोबमास्टर जैसे विमान और छोटे हथियार भी दिये हैं. स्पेस टेक्नोलॉजी, साइबर सुरक्षा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कंप्यूटर्स, एयरक्राफ्ट इंजन जैसे क्षेत्रों में भी सहयोग हो रहा है. ये दोनों ही देशों के लिए एक शानदार स्थिति है.
भारत और अमेरिका मिलकर सैन्य अभ्यास भी करते रहते हैं. खास तौर पर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दोनों देशों के सहयोग से चीन काबू में रहता है. दोनों देशों के रक्षा सहयोग और रणनीतिक साझेदारी से चीन के संदर्भ में एक एक्यूप्रेशर जैसी स्थिति बन जाती है. चीन को यह पता रहता है कि वह यदि भारत को लद्दाख या अरुणाचल में परेशान करने की कोशिश करेगा, तो हिंद-प्रशांत में उसके लिए मुसीबत हो सकती है. चीन अक्सर यह प्रयास करता है कि भारत अमेरिका के प्रभाव में नहीं आये. मगर, भारत और अमेरिका के बीच यदि रक्षा संबंधों में मजबूती आ रही है तो इसकी वजह चीन का ही आक्रामक व्यवहार है.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)