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बेहतर होते भारत-अमेरिका संबंध

कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हमेशा सीधी रेखा की स्थिति नहीं होती है, हितों के हिसाब से रिश्ते और सहयोगी बदलते रहते हैं. यही वजह है कि शीत युद्ध के दौर में भारत के विरोधी खेमे में खड़ा अमेरिका आज भारत का करीबी सहयोगी बनता जा रहा है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस महीने अमेरिका की महत्वपूर्ण यात्रा पर जायेंगे. परंतु, इससे पहले भारत-अमेरिका संबंधों की दिशा में कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम सामने आये हैं. जैसे, पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय व्हाइट हाउस की ओर से की गयी यह टिप्पणी कि ‘भारत का लोकतंत्र जीवंत है और अगर आपको कोई संदेह है तो आप स्वयं जाकर देख लीजिए.’ यह भारत के बारे में अमेरिका की तरफ से आयी एक बड़ी स्वीकृति और समर्थन है. अक्सर ऐसा होता है कि पश्चिमी देशों के नागरिक संगठन या मानवाधिकार संस्थाएं किसी एक देश की केवल कमियां निकालते हैं और उसे आपके खिलाफ इस्तेमाल करते हैं.

व्हाइट हाउस प्रवक्ता ने इस टिप्पणी से भारत को लेकर अपना रुख स्पष्ट कर दिया है. इसके अलावा, इसी सप्ताह अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन भारत दौरे पर थे. इसे भी प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. जब भी किसी देश के बड़े नेताओं के दौरे होते हैं, तो उससे पहले रक्षा, विदेश, या व्यापार मंत्री शीर्ष नेताओं की मुलाकात की तैयारी करने के लिए ऐसी यात्राएं करते हैं. तीसरी बात हुई है कि अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक, दोनों ही दलों के नेताओं ने मोदी को अमेरिकी संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करने के लिये बुलाया है. वे दूसरी बार अमेरिकी संसद को संबोधित करेंगे, जो शायद एक अप्रत्याशित बात है. इससे पता चलता है कि भारत-अमेरिका संबंध वैश्विक स्थिरता के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं और अमेरिका भारत को एक महाशक्ति के रूप में देखता है. यह भी अहम है कि, भारत के लिए अमेरिका सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है, निवेश में साझीदारी है और तकनीक के क्षेत्र में भी बड़ा सहयोगी हो सकता है.

रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिये जारी अभियान में, और तकनीक से जुड़े अंतरराष्ट्रीय बाजार में पैर जमाने की भारत की कोशिश में अमेरिका का काफी बड़ा योगदान हो सकता है. ये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, औद्योगिक क्रांति 4.0 या रक्षा संबंधी तकनीक के विकास से जुड़े क्षेत्र हो सकते हैं. अमेरिका को भारत की अहमियत पता है, खासतौर से चीन को लेकर दोनों के हित समान हैं क्योंकि चीन उनके लिए भी एक बड़ी चुनौती है और भारत के लिए भी. अमेरिका यह भी समझता है कि भारत के रूस या दूसरे देशों के साथ रिश्ते का एक अपना वजूद है और इसे स्वीकार करना दर्शाता है कि शीर्ष स्तर पर दोनों ही देशों के बीच एक आपसी समझ है.

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन कह चुके हैं कि सत्तर के दशक में शीत युद्ध के दौर में भारत को जब जरूरत थी, तब अमेरिका उसके साथ नहीं था, और तब तत्कालीन सोवियत संघ ने भारत की मदद की थी. ऐसे में स्वाभाविक है कि भारत के संबंध उसी देश के साथ मजबूत होते जायेंगे, जो उसका साथ देगा. कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हमेशा सीधी रेखा की स्थिति नहीं होती है, हितों के हिसाब से रिश्ते और सहयोगी बदलते रहते हैं. यही वजह है कि शीत युद्ध के दौर में भारत के विरोधी खेमे में खड़ा अमेरिका आज भारत का करीबी सहयोगी बनता जा रहा है. हालांकि, इसका यह मतलब नहीं है कि दोनों देशों के संबंधों में कोई समस्या नहीं है, पर ये समस्याएं भी आपसी संवाद से ही सुलझती हैं. प्रधानमंत्री मोदी का अमेरिका दौरा इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि दोनों ही देशों में अगले वर्ष चुनाव होने हैं. इसके अतिरिक्त, भारत इस वर्ष जी-20 और शंघाई सहयोगी संगठन (एससीओ) की अध्यक्षता कर रहा है, तो अंतराष्ट्रीय महत्व के उन विषयों पर भी भारत और अमेरिका के बीच शीर्ष स्तर पर चर्चा होगी.

अमेरिका एक बहुत बड़ी महाशक्ति है और ऐसी शक्तियां अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को शतरंज की तरह खेलती हैं, जिसमें दूसरे मुल्क उनके प्यादे बन जाते हैं. मगर, भारत इससे इनकार करता है और कहता है कि अगर वह अमेरिका का रणनीतिक सहयोगी है, तो उसे भी भारत की संवेदनशीलताओं का खयाल रखना चाहिए. भारत हमेशा से किसी द्विपक्षीय गुट का हिस्सा नहीं रहा है जो उसकी नीति रही है. इसी कारण चाहे रूस-यूक्रेन युद्ध का मुद्दा हो, या वैक्सीन को लेकर बौद्धिक संपदा अधिकार का, वसुधैव कुटंबकम का मुद्दा हो, या ग्लोबल साउथ का, उनमें भारत हमेशा से अपना एक अलग रुख रखता आया है, जिससे उसके अपने हित भी सुरक्षित रहते हैं और अंतरराष्ट्रीय हित भी सध जाते हैं. ऐसे ही पाकिस्तान को लेकर अमेरिका की नीति के मामले में भी है जो उसका गैर-नाटो सहयोगी है. अमेरिका अफगानिस्तान के संदर्भ में या अन्य संदर्भों में इस रिश्ते को बरकररार रखना चाहता है.

ऐसा ही चीन के संदर्भ में भी नजर आता है, जहां चीन को चुनौती मानने के साथ अमेरिका उसे लेकर अपनी नीतियों में बदलाव करता रहता है. इससे भी भारत के लिए चुनौती खड़ी होती है और रिश्तों पर असर पड़ता है. लेकिन, मौजूदा समय में अमेरिका के बयानों को देखा जाए, चाहे वे पेंटागन के हों या विदेश मंत्रालय के, उनमें बड़ी स्पष्टता से कहा गया है कि भारत इस क्षेत्र में उनका सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी है. वर्ष 2004 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के समय में भारत और अमेरिका के बीच असैनिक परमाणु समझौता हुआ था, मगर 2008 के बाद परमाणु जवाबदेही से जुड़े कानूनों की वजह से परमाणु सहयोग कम हो गया. तो मौजूदा परिस्थितियों में उस दिशा में प्रगति हो सकती है.

भारत न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में शामिल होने की कोशिश कर रहा है, जिसमें चीन की वजह से कामयाबी नहीं मिल रही है, और अमेरिका उसमें भारत की मदद कर रहा है. एक अहम बात यह भी है कि अमेरिका को नजर आ रहा है कि भारत केवल एक कामयाब लोकतंत्र ही नहीं, एक बड़ा बाजार भी है. अमेरिका को तकनीक के विकास के लिए जो मानव संसाधन चाहिए, वे उसे भारत से ही मिलेंगे, चीन से नहीं. इसलिए उन्हें भारत का रणनीतिक महत्व समझ आता है, इसलिये चाहे क्वाड हो या जी-20 या कोई और मंच, वह भारत के विचार को सुनने और समझने के लिये तैयार है. एक बड़ा बदलाव आया है भारत को लेकर अमेरिका के नजरिये में. मोदी के अमेरिका दौरे में रक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण समझौते होने की उम्मीद की जा रही है. मेक इन इंडिया को लेकर अमेरिका में भी कुछ दिलचस्पी देखी गयी है. अमेरिका ने भारत को विशेष सहयोगी का दर्जा दिया है, जिसका अर्थ है कि अमेरिका के बहुत सारे नियम भारत के लिए आसान हो जायेंगे.

(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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