जयप्रकाश नारायण : जब एक 72 साल का बूढ़ा सच बोलता हुआ निकला..
इतिहास गवाह है कि इस ‘बुड्ढे की बकवास’ दमनकारी सत्ता के दबाये नहीं दबी. भले ही इस मुनादी के सात महीने बाद ही विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया, समाचार माध्यमों पर सेंसर लगा दिया गया और देश पर इमरजेंसी थोप दी गयी.
जब भी लोकनायक जयप्रकाश नारायण की चर्चा चलती है, धर्मवीर भारती की ये पंक्तियां याद आती हैं- ‘खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का/हुकुम शहर कोतवाल का…हर खासो-आम को आगाह किया जाता है/कि खबरदार रहें/और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से/कुंडी चढ़ाकर बंद कर लें/गिरा लें खिड़कियों के परदे/और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें/क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कांपती कमजोर आवाज में/सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!…/मुजिर है वह/कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए/कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए/कि मार खाते भले आदमी को/और अस्मत लुटती औरत को/और भूख से पेट दबाये ढांच को/और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को/बचाने की बेअदबी की जाए!’
चार नवंबर, 1974 को पटना के गांधी मैदान में बिहार की तत्कालीन कांग्रेस की अब्दुल गफूर सरकार के भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकनायक के नेतृत्व में एक विशाल रैली आयोजित की गयी थी. पुलिस ने निर्ममता से लाठीचार्ज कर दिया. लोकनायक लहूलुहान हो गये. भारती के ही शब्दों में कहें तो, ‘‘जेपी ने पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी. रोकने के हर सरकारी उपाय के बावजूद लाखों लोग उसमें आये. उन निहत्थों पर निर्मम लाठीचार्ज का आदेश दिया गया. अखबारों में धक्का खाकर नीचे गिरे बूढ़े जेपी, उन पर तनी पुलिस की लाठी, बेहोश जेपी और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ाकर चलते हुए जेपी. दो-तीन दिन भयंकर बेचैनी रही, बेहद गुस्सा और दुख…नौ नवंबर को रात 10 बजे यह कविता अनायास फूट पड़ी.’’
श्रीमती गांधी के काफिले के एक वाहन से कुचलकर एक बच्चे की मृत्यु की उन दिनों की बहुचर्चित दुर्घटना को आधार बनाकर उन्होंने व्यंगपूर्वक लिखा है- ‘जीप अगर बाश्शा की है तो/उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं?/आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है!/…..क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने तुम्हें/एक खूबसूरत माहौल दिया है/जहां भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं/और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रातभर/तुम पर छांह किये रहते हैं/और हूरें हर लैंप पोस्ट के नीचे खड़ी/मोटर वालों की ओर लपकती हैं/कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर!’ इसके बाद असली मुनादी की है- ‘तोड़ दिये जायेंगे पैर/और फोड़ दी जायेंगी आंखें/अगर तुमने अपने पांव चलकर/महल-सरा की चहारदीवारी फलांग कर/अंदर झांकने की कोशिश की!/….खबरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है/पर जहां हो वहीं रहो/यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जायेगी कि/तुम फासले तय करो और/मंजिल तक पहुंचो/इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे/नावें मंझधार में रोक दी जायेंगी/
बैलगाड़ियां सड़क किनारे नीम तले खड़ी कर दी जायेंगी/ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जायेगा/सब अपनी-अपनी जगह ठप!/क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है/और उसके लिए जरूरी है कि जो जहां है/वहीं ठप कर दिया जाए!’ उनकी यह मुनादी यहीं नहीं ठहरती. ‘जलसा-जुलूस, हल्ला-गुल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक’ रखने वाली रियाया को बेताब न होने को कहकर उसके ‘दर्द’ की दवा बताती हुई कहती है कि ‘बाश्शा को उससे पूरी हमदर्दी है और उसके (बाश्शा के) खास हुक्म से उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा, जिसके दर्शन के लिए रेलगाड़ियां रियाया को मुफ्त लादकर लायेंगी, बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी, ट्रकों को झंडियों से सजाया जायेगा, नुक्कड़-नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जायेगा और जो पानी मांगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जायेगा.’ रियाया को लाखों की तादाद में उस जुलूस में शामिल हाने का फरमान सुनाती हुई मुनादी और आगे बढ़ती है- ‘हमने अपने रेडियो के स्वर ऊंचे करा दिये हैं/और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें/ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलंदी में/इस बुड्ढे की बकवास दब जाए!’
इतिहास गवाह है कि इस ‘बुड्ढे की बकवास’ दमनकारी सत्ता के दबाये नहीं दबी. विपक्षी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया, समाचार माध्यमों पर सेंसर लगा दिया गया और देश पर इमरजेंसी थोप दी गयी. लोकनायक के प्रति तो वह इस हद तक निर्मम हो गयीं कि जेल से निकलने तक उनके गुर्दे खराब हो गये. पर उस अंधेरे में भी लोकनायक रोशनदान की भूमिका निभाते रहे. फल यह हुआ कि 1977 के लोकसभा चुनाव में जैसे ही जनता को निर्णय करने का अवसर मिला, उसने इस दमनकारी सरकार की बेदखली का आदेश दे दिया. फिर जनता पार्टी की नयी सरकार ने सत्ता संभाली.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)