जयंती विशेष : छह माह के PM कार्यकाल में बनाया सिद्धांतों का एवरेस्ट, जुझारूपन से मिली चंद्रशेखर को राजनीति में युवातुर्क की उपाधि
''अगर हौसला नहीं होगा, तो कोई फैसला नहीं होगा, सब अपने भले की सोचेंगे, तो किसी का भला नहीं होगा...'' उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर पर बसे बलिया के आखिरी छोर इब्राहिमपट्टी गांव में जन्मे भारतीय राजनीति के उस युवातुर्क का यह कथन है, जिन्होंने प्रधानमंत्री पद के अपने छह माह के अल्प कार्यकाल में सिद्धांतों का एक ऐसा एवरेस्ट खड़ा किया, जो आज भी भारतीय राजनीति में उसी तरह मजबूती से टिका है. आज उसी युवातुर्क की 93वीं जयंती है. कृतज्ञ देश आज उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित कर रहा है.
बलिया : ”अगर हौसला नहीं होगा, तो कोई फैसला नहीं होगा, सब अपने भले की सोचेंगे, तो किसी का भला नहीं होगा…” उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर पर बसे बलिया के आखिरी छोर इब्राहिमपट्टी गांव में जन्मे भारतीय राजनीति के उस युवातुर्क का यह कथन है, जिन्होंने प्रधानमंत्री पद के अपने छह माह के अल्प कार्यकाल में सिद्धांतों का एक ऐसा एवरेस्ट खड़ा किया, जो आज भी भारतीय राजनीति में उसी तरह मजबूती से टिका है. आज उसी युवातुर्क की 93वीं जयंती है. कृतज्ञ देश आज उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित कर रहा है.
जी हां, हम बात कर रहे हैं पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की, जिन्होंने राजनीति के फर्श से अर्श तक का सफर तय किया और अपने सिद्धांतों पर चट्टान की तरह अडिग रहे. पूर्व प्रधानमंत्री अपने सिद्धांतों के अनुपालन में इस कदर कट्टर थे कि जब प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने की घोषणा के बाद राजीव गांधी ने उन्हें पत्र लिखा, तो चंद्रशेखर ने उस पत्र के पीछे यह लिख कर पत्र वापस कर दिया कि एवरेस्ट पर लोग झंडा फहराने जाते है, घर बनाने नहीं. चंद्रशेखर के इसी लड़ाकूपन और जुझारू व्यक्तित्व के कारण उन्हें युवातुर्क की उपाधि भी मिली.
चंद्रशेखर भारतीय राजनीति में एकला चलो के सिद्धांत के पोषक भी थे. भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष रहे चंद्रशेखर में एक दो विशेषताएं नहीं, बल्कि उनका पूरा जीवन ही विशेषताओं से भरा हुए एक शोधपत्र था. चंद्रशेखर मजदूरों में कुशल मजदूर, विद्यार्थियों में कुशल विद्यार्थी, नेताओं में कुशल नेता और प्रशासनिक क्षमता में एक दक्ष प्रशासनिक अफसर की तरह थे.
बलिया सतीश चंद्र कॉलेज के छात्रसंघ के पदाधिकारी पद से राजनीतिक सफर प्रारंभ कर भारतीय लोकतंत्र की सबसे ऊंची कुर्सी तक पहुंचनेवाले चंद्रशेखर के जीवन में किसी ने कभी अहम नहीं देखा. समाजवाद के सच्चे पुजारी ने राजनीति में कभी परिवारवाद को हावी नहीं होने दिया और उनके पूरे जीवन काल तक उनके दोनों पुत्रों में किसी ने सक्रिय राजनीति में प्रवेश तक नहीं किया. 1962 से 1977 तक वह भारत के ऊपरी सदन राज्यसभा के सदस्य रहे. 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री ने भारत की पदयात्रा की. कन्याकुमारी से कश्मीर तक की इस सफरनामे में उन्हें भारत को अच्छी तरह समझने का मौका मिला.
साल 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्होंने मंत्री पद ना लेकर जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद लेना स्वीकार किया. साल 1977 में ही वो बलिया जिले से पहली बार लोकसभा के सांसद बने. चंद्रशेखर ने पहले के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह के राजीनामा के बाद जनता दल से कुछ नेताओं को लेकर समाजवादी जनता पार्टी की स्थापना की. सजपा को जब कांग्रेस ने चुनाव ना करने के लिए समर्थन देने की घोषणा की, तो अल्पमत में ही उनकी सरकार बन गयी. कांग्रेस ने उनके सरकार को सहयोग नकारने के बाद उन्होंने सरकार से त्यागपत्र दे दिया.
पूर्व प्रधानमंत्री का जीवन आचार्य नरेंद्र देव और लोकनायक जयप्रकाश से काफी प्रभावित था. इन्हीं दोनों महान पुरुषों की प्रेरणा से चंद्रशेखर ने राजनीति की एक नयी इबादत लिखी. आज राष्ट्रपुरुष चंद्रशेखर की आज जयंती है. जेपी की समग्र क्रांति के इस नायाब नायक को नमन.