‘पिया बहरूपिया’ की याद तो आएगी

भारतीय रंगमंच में लंबी चलने वाली प्रस्तुतियों की बहुत परंपरा रही है. लेकिन, उनको घोषणा करके बंद करने की परंपरा नहीं है. रंग-मंडलियां अभिनेता बदल-बदल कर प्रस्तुति को जिंदा रखते हैं. ‘पिया बहरूपिया’ को वह सब मिला, जिसकी कल्पना हिंदी रंगमंच के लोग
नहीं करते.

By Prabhat Khabar | August 20, 2023 2:12 PM

अमितेश

भारतीय रंगमंच में यह अनोखा घटा है कि किसी नाट्य मंडली ने अपनी सफलतम प्रस्तुति को बंद करने की घोषणा की और बंद करने से पहले प्रस्तुति को लेकर भारत के अलग-अलग शहरों की यात्रा की. दर्शक उमड़ पड़े ज्यादातर ऐसे जो पहले देख चुके थे और कुछ तो कई-कई बार देख चुके थे. प्रस्तुति है द कंपनी थिएटर की शेक्सपीयर की कॉमेडी ‘ट्वेलफ्थ नाइट’ की हिंदुस्तानी प्रस्तुति ‘पिया बहरूपिया’, निर्देशन अतुल कुमार का है, जिसको खास अंदाज में रूपांतरित किया अमितोष नागपाल ने. देश-विदेश में कई शो करने के बाद इसे बंद करने का फैसला आसान नहीं रहा होगा. इस प्रस्तुति की इतनी मांग हो गयी थी कि निर्देशक ने एक समानांतर टीम भी तैयार की थी, यानी एक वक्त में एक प्रस्तुति की दो टीम अलग-अलग दौरे पर निकलती थीं.

भारतीय रंगमंच में लंबी चलने वाली प्रस्तुतियों की बहुत परंपरा रही है. लेकिन, उनको घोषणा करके बंद करने की परंपरा नहीं है. रंग-मंडलियां अभिनेता बदल-बदल कर प्रस्तुति को जिंदा रखते हैं. ‘पिया बहरूपिया’ को वह सब मिला, जिसकी कल्पना हिंदी रंगमंच के लोग नहीं करते. देश-विदेश में अनेक शो, भरपूर मीडिया कवरेज, दर्शकों का बेइंतहा प्यार और बॉक्स ऑफिस सफलता. इसमें काम करनेवाले अभिनेताओं की भी पहचान बनी. इस नाटक के मुख्य किरदारों में गीतांजली कुलकर्णी, अमितोष नागपाल, नेहा सर्राफ, मानसी मुल्तानी, गगन रियार, मंत्रमुग्धा, सागर देशमुख और तृप्ति खामकार हैं, जिनमें से कुछ अब टेलीविजन और सिनेमा जगत के जाने माने नाम हैं. जब यह प्रस्तुति इतिहास का हिस्सा होनेवाली है, तो यह विचार करना चाहिए कि इसकी सफलता के पीछे कौन-सी बातें हैं.

अव्वल कहानी शेक्सपीयर की है और इसकी कथारेखा भारतीय दर्शकों की भी पसंद है- प्रेम त्रिकोण, पहचान की गफलत और आखिर में सबका मिल जाना. प्रस्तुति की दृश्य भाषा किफायती है और अभिनेता को खेलने का मौका देती है. समर्थ अभिनेताओं का चयन, उनके परस्पर बेहतर तालमेल से प्रस्तुति नृत्य, संगीत और भावुकता से भरे कार्निवाल में बदल जाता है. मंच पर कोई सामग्री नहीं है, स्टेज के बीचो-बीच शेक्सपीयर का एक बड़ा चित्र है, जिसमें वह कमल पर विराजमान है और माथे पर मोरमुकुट है. भिन्न भाषाई पृष्ठभूमि के कारण अभिनेता मराठी, बुंदेली, भोजपुरी, पंजाबी, बांग्ला, अंग्रेजी मिश्रित उच्चारण और लहजे में अलग-अलग तरीके से हिंदी बोलते हैं. इससे भाषा की दीवार भी टूटती है. अनुवाद भी साधारण बोलचाल की भाषा में है.

संगीत प्रस्तुति की लोकप्रियता का एक बड़ा कारक है. अमोद भट्ट ने भारत के अलग-अलग इलाकों का संगीत लिया है, जिसमें नौटंकी का पारंपरिक संगीत है, बिदेसिया और कबीर गायन भी. मंच पर संगीत दल एक प्लेटफॉर्म पर बैठते हैं, अभिनेता भी इन्हीं के बीच बैठते हैं, जो यहां से उठकर अपनी भूमिका करते हैं और वापस आकर कोरस में शामिल हो जाते हैं. प्रस्तुति का वितान नौटंकी की तरह है. उसके गीत, छंद, वाद्य, और संवाद अदायगी का ढंग भी. नाटक में अलग-अलग भाषा के लोकप्रिय गीत हैं, जैसे ‘का से कहूं मैं दरदिया ए बालम’, ‘सुनता है गुरू ज्ञानी’, ‘चौक पुराओ मंगल गाओ’ जिसे अभिनेता लय और रागदारी में गाते हैं.

यह प्रस्तुति ऐसे दौर में आयी जब रंगमंच के नियंता सरल दृश्य भाषा को हिकारत की नजर के साथ देख रहे थे और रंगमंच को बौद्धिक कवायद बनाने पर जोर बढ़ गया था. दर्शकों को उलझा हुआ छोड़ दो, दृश्य को बिखरा दो और स्पीच पर ध्यान न दो, प्रचलन में था. ऐसे माहौल में इस प्रस्तुति ने दिखाया कि दर्शकों से जुड़ना जरूरी है और इसके लिए सरल रंगभाषा का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है.

वर्ष 2012 में ग्लोब थियेटर में शेक्सपीयर महोत्सव के लिए तैयार इस प्रस्तुति ने ग्यारह वर्षों तक अपनी चमक बनाये रखी. गंभीरता के अभाव और हास्य पर अधिक निर्भरता के कारण इसकी आलोचना भी हुई, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी रंगमंच को ऐसी प्रस्तुतियों की जरूरत है.

(रंग समीक्षक)

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