चतरा: चतरा जिले के ग्रामीण इलाकों में अब नक्सलियों और उग्रवादियों का खौफ कम होता दिख रहा है. माओवादियों के फरमान के कारण दो दशकों तक परती रहे खेतों में अब फसलें लहलहा रही हैं. वर्ष 1990 से लेकर 2010 तक नक्सलियों के फरमान से खेतों में हल चलना रुक गया था. किसान व मजदूर पलायन को विवश हो गये थे. भयवश सुखी संपन्न किसान शहरों में बस गये.
वर्ष 2010 के बाद हालात धीरे-धीरे बदलने लगे. एक ओर सरकार की आत्मसमर्पण नीति और दूसरी ओर सख्ती से नक्सलियों और उग्रवादियों की दबिश कमजोर पड़ने लगी. कई नक्सली व उग्रवादी मुठभेड़ में मारे गये और कई ने सरेंडर कर दिया है. ऐसे में माओवादियों की सक्रियता घटी और स्थिति सुधरने पर लोग वापस गांव लौटने लगे.
जिले में माओवादियों ने करीब ढाई हजार एकड़ से अधिक भूमि पर खेती करने पर रोक लगा दी थी. उनका आरोप था कि जमींदारों ने गरीबों से गलत तरीके से जमीन ली है. उन्होंने गरीब किसानों को खेती करने के लिए जमीन दे दी थी. उनसे खेती से होनेवाली आमदनी का 25 प्रतिशत लेते थे. गांव में बनी किसान कमेटी के पास धान व अन्य फसल जमा होती थी.
माओवादियों का वर्चस्व कम होने के बाद खेती होने लगी. धान के अलावा आलू, मटर, टमाटर, सरसों, राई, अरहर और मकई की खेती हो रही है. लोग खेतों में फसल उगाकर अच्छी आमदनी कर रहे हैं. कुछ जमींदारों ने स्थानीय लोगों के पास जमीन बेच दी. जिस पर स्थानीय किसान खेती कर अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं.
जिले के कुंदा, प्रतापपुर, सिमरिया, टंडवा, लावालौंग, हंटरगंज समेत कई प्रखंडों में खेती पर रोक लगायी गयी थी. सिमरिया प्रखंड के केंदू, कासियातू, सलगी, जबड़ा, उरूब, लावालौंग के बनवार, कुंदा के टिकैतबांध, कासिलौंग, नावाडीह, खजुरिया, बलही, बंठा, चाया, गेंदरा, मांझीपारा, प्रतापपुर के सिकिद, महुंगाई, लिपदा, चरका, खरैया, टंडवा के लेंबुआ, पदमपुर, बुकरू में खेती पर प्रतिबंध था.