गिरिडीह जिले की व्यावसायिक मंडी सरिया कभी अपने सुनहरे अतीत के लिए प्रसिद्ध था. यहां कई संभ्रांत बंगाली परिवारों ने अपना बसेरा बनाया था. उनकी कोठियां आज भी शानदार अतीत की गवाही देती हैं. तत्कालीन बिहार में एक शांत और प्राकृतिक सुंदर स्थल के रूप में इसकी पहचान थी. यहां के बगीचे फूलों से महकते रहते थे. सरिया का वातावरण फूलों की भीनी-भीनी खुशबू से सुगंधित रहा करता था. आज सरिया का सुनहरा अतीत धूमिल पड़ता जा रहा है. कई कोठियों का अस्तित्व समाप्त हो चुका है. जो बची हैं, उनपर भू-माफियाओं की नजर है. पढ़ें सरिया से लक्ष्मीनारायण पांडेय की रिपोर्ट.
बंगाली कोठियों ने सरिया को दी थी अलग पहचान
बंगाली कोठियों के शहर के नाम से प्रसिद्ध सरिया सूबे में अपनी अलग पहचान रखता था. आज कुछेक कोठियों को छोड़ अधिकांश का अस्तित्व समाप्त हो चुका है. आजादी से पूर्व सरिया (हजारीबाग रोड) बंगाली कोठियों व बंगाली समुदाय से काफी गुलजार था. बंगाल के कई संभ्रांत परिवारों के लोग तथा उच्चपदस्थ नामी-गिरामी हस्तियां यहां निवास करते थे. तब यहां की कोठियाें में लगे रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों से निकलने वाली भीनी-भीनी खुशबू लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती थी. बगीचे में रंग-बिरंगे फूलों तथा विभिन्न प्रकार के फल लगे होते थे, जो झारखंड के किसी अन्य क्षेत्र में देखने को नहीं मिलते.
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हजारीबाग रोड रेलवे स्टेशन स्थित सरिया के चंद्रमारणी, डाकबंगला रोड, बलीडीह, सरिया-राजधनवार मुख्य मार्ग, ठाकुरबाड़ी टोला, नावाडीह चौक, बागोडीह मोड़, नेताजी पार्क मार्ग, राय तालाब रोड, किशोरी पल्ली, पोखरियाडीह आदि में लगभग 250 कोठियां बनी हुई थीं. ये कोठियां काफी भव्य, सुंदर, आकर्षक और विशाल थीं. बुजुर्ग कहते हैं कि इन कोठियों में उन दिनों बिजली से जलने वाली रंग-बिरंगी लाइटें लगी थीं, जिसकी रोशनी से इलाका जगमगाता था. एक कोठी कमोबेश तीन-चार एकड़ से अधिक जमीन पर स्थापित थी. कोठियाें में प्रवेश के लिए एक बड़ा गेट होता था, जबकि उसी की बगल में एक छोटा गेट लगा होता था.
रहते थे सैकड़ों बंगाली परिवार
कोठियों की चारों ओर पक्की चहारदीवारी थी, जहां सैकड़ों बंगाली परिवार निवास करते थे. स्थानीय लोगों के मकान उन दिनों कच्ची-मिट्टी के बने होते थे. ग्रामीण क्षेत्र के लोग इन कोठियों को देखने के लिए दूर-दूर से सरिया पहुंचते थे. सरिया शहर की भव्यता व सुंदरता एकीकृत हजारीबाग जिले में अपनी अलग पहचान दिलाती थी. बंगाली समुदाय की अपनी भाषाई विविधता (बांग्ला) होने के बाद भी यहां के लोगों से काफी मेल-जोल देखने को मिलता था. अधिकांश बंगाली कोठियों का निर्माण साल 1920 से 1970 के बीच हुआ था.
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बंगाली कोठियों के बगान से रंग-बिरंगे फूल जैसे- गेंदा, गुलाब, जूही, चंपा, रातरानी, चमेली, सूरजमुखी, जीनिया, अपराजिता पारिजात आदि इतने होते थे कि प्रतिदिन लगभग पांच-छह क्विंटल फूल ट्रेन से कोलकाता भेजे जाते थे. इस बात से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि उन दिनों इन कोठियों की स्थिति कैसी रही होगी. कोठियां में अनेक फलदार वृक्ष एवं औषधीय पौधे भी लगाये गये थे, जो संभवतःआस-पास अन्य कहीं देखने को नहीं मिलते थे. इन कोठियां में आम, इमली, चीकू, लीची, नारियल, नींबू, संतरे, बेल, शरीफा, जामुन, गुलाब जामुन आदि जैसे फलों के पेड़ थे. वहीं तुलसी, एलोवेरा पारिजात, चिरौंता आदि अनेक औषधीय पौधे भी लगाये गये थे.
कई बड़ी हस्तियों ने बना रखीं थीं कोठियां
बंगाल की कई बड़ी हस्तियों की कोठियां सरिया में थीं. पश्चिम बंगाल विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष केशव चंद्र बोस की ‘वसुश्री’ कोठी, महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रभाती कोठी, भारतीय सेवा जनरल ऑफिसर छठे सेना प्रमुख, कनाडा में भारत के नौवें उच्चायुक्त पद्म विभूषित जयंतो नाथ चौधरी की शांतिकुंज कोठी, डालमिया की कोठी, पश्चिम बंगाल के द्वितीय मुख्यमंत्री व स्वतंत्रता सेनानी डॉ विधान चंद्र राय की द डाउन कोठी, राष्ट्रीय कवि विख्यात साहित्यकार लेखक बिमलकर, बांग्ला साहित्य के महान कवियों में एक कवि नजरुल इस्लाम, अनिरुद्ध इस्लाम, छाता निर्माता केसी पाल की कोठी, मंत्री परिवार के कुमार आश्रम, पश्चिम बंगाल कॉर्पोरेशन में उच्च अधिकारी ज्योतिष चंद्र घोष का बिहारी भवन, उन दिनों पूर्व रेलवे के बड़े ठेकेदार हरि मोहन सान्याल की कोठियां यहां हुआ करती थीं.