Jharkhand News, Koderma News, कोडरमा (विकास) : नयी तकनीक ने कोडरमा जिला अंतर्गत मरकच्चो प्रखंड के सांसद आदर्श ग्राम चोपनाडीह की तस्वीर बदल दी है. पहले जो किसान खेती से ज्यादा मुनाफा नहीं कमा पा रहे थे, वे आज यहां अच्छी खेती कर आत्मनिर्भर बनकर नयी इबारत लिखने में जुटे हैं. यह सब संभव हुआ है केंद्र सरकार की नेशनल इनोवेशन ऑन क्लाइमेट रेसीलिएंट एग्रीकल्चर (National Innovation on Climate Resilient Agriculture- NICRA) परियोजना के क्रियान्वयन से.
कृषि विज्ञान केंद्र जयनगर (कोडरमा) की पहल पर करीब 8 वर्ष पूर्व परियोजना के क्रियान्वयन के लिए जब इस गांव का चयन किया गया था, तो काफी कम जमीन पर किसान खेती करते थे और किसी तरह एक या दो तरह की फसल वर्ष में उपजाना संभव हो पाता था, लेकिन नयी तकनीक ने अब यहां खेती के साथ पशुपालन को भी आसान बना दिया है.
वर्तमान में करीब 150 हेक्टेयर जमीन पर 3 किस्म के फसल की खेती कर 400 से अधिक किसान लाभांवित हो रहे हैं. यही नहीं मौसमानुकूल बीज के चयन व खेती से फसल की उत्पादन क्षमता भी बढ़ गयी है. जानकारी के अनुसार, वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने सूखा, असमय वर्षापात, जल्द मानसून के आगमन व प्रस्थान वाले इलाकों को चिह्नित कर यहां के अनुकूल खेती करवाने के लिए निकरा परियोजना की शुरुआत की थी. इसके तहत चोपनाडीह में धरातल पर वर्ष 2012 से काम शुरू हुआ.
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कृषि विज्ञान केंद्र, कोडरमा से जुड़े व परियोजना के प्रधान शोधकर्ता डाॅ सुधांशु शेखर की मानें, तो प्रोजेक्ट की शुरुआत के साथ ही किसान मौसम अनुरूप तकनीक के माध्यम से खेती करें. इसके लिए लगातार प्रयास किया गया. प्रशिक्षण देने के साथ ही संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित की गयी. सिंचाई व्यवस्था मजबूत करने के लिए गांव में 2 तालाब बनाये गये. 10 कुआं का जीर्णोद्धार प्रोजेक्ट के तहत किया गया. किसानों को अच्छे बीज के प्रयोग को लेकर भी जागरूक किया गया. इसका असर यह हुआ कि एक वर्ष में किसान तीन फसल उपजाने लगे और उत्पादन 70 से 150 प्रतिशत तक बढ़ गयी. सबसे ज्यादा परिवर्तन धान उत्पादन को लेकर हुआ है. पहले प्रति हेक्टेयर 23- 24 क्विंटल धान उत्पादन होता था, लेकिन नयी तकनीक के बाद बढ़कर 30- 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो गया है.
निकरा क्लस्टर गांव चोपनाडीह, झलकडीह, ताराटांड, बभनडीह में वर्षा की कमी व असमानता को देखते हुए धान उत्पादन की विभिन्न तकनीकों जैसे एरोबिक राइस, डीएसआर, श्रीविधि तरीके से धान की खेती की गयी. इन विधियों को अपनाने से 30 से 40 प्रतिशत तक पानी की बचत भी हुई. सूखा सहनशील मध्यम अवधि के धान की किस्में सहबागी धान, IR-64D RD-1, अभिषेक, स्वर्ण श्रेया नवीन का अवलोकन किया गया. ऐसे में सूखे की समय में भी किसानों को अच्छी फसल मिलने लगी.
इन किस्मों के धान की फसल की कटाई नवंबर माह के पहले सप्ताह में पूरी होने से धान वाले परती खेतों में जीरो टीलेज तकनीक के माध्यम से रबी मौसम में गेहूं, सरसो, चना, मसूर की खेती समय पर होने लगी है. डॉ सुधांशु के अनुसार, रबी फसल की कटाई मार्च माह के अंतिम सप्ताह में कर ली जाती है. किसान पुन: तालाब से सिंचित जल का उपयोग कर उक्त खेतों में रबी फसलों के उपरांत गरमा मूंग, गरमा सब्जियों की फसल भिंडी, टमाटर आदि का उत्पादन करते हैं. किसान टपक सिंचाई (ड्रीप), फव्वार पद्धति (स्प्रीकंल इरीगेशन) से जल संचय कर खेती कर रहे हैं. यही नहीं मृदा में नमी संरक्षण, खरपतवार नियंत्रण व मृदा तापमान को संतुलित बनाये रखने के लिए प्लास्टिक पलवार विधि (Plastic mulching mathod) से टमाटर, बैंगन, शिमला मिर्च की खेती की जा रही है. खरपतवार नियंत्रण के लिए कम रसायन का भी प्रयोग हो रहा है.
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गांव में बंजर भूमि को समतल व मेढ़बंदी कर खेती योग्य बनाया गया. वहीं, धान की खेती से पहले मिट्टी को उपजाऊ बनाये रखने के लिए हरा खाद के प्रत्यक्षण पर बल दिया गया. इससे मिट्टी की गुणवत्ता सुधरी और रासायनिक खादों का प्रयोग कम किया गया. किसानों को कृषि यंत्रों के रखरखाव व चलाने का प्रशिक्षण दिया गया. कृषि यंत्रों के सुचारू रूप से प्रयोग के लिए गांव में कमेटी का गठन किया गया है. कमेटी उचित दाम पर किसानों को उपयोग के लिए यंत्र उपलब्ध कराती है. किसानों ने परियोजना की मदद से गांव में सीड बैंक व चारा बैंक बनाया है. ऐसे में सीड के लिए बाजार पर निर्भरता भी अब कम हो गयी है. गांव में ऑटोमैटिक वेदर स्टेशन की स्थापना की गयी है, जिसे देख किसान मौसम की जानकारी लेते हैं. जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पशुओं पर भी काफी हो रहा है. इसके कारण उनकी उत्पादकता पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा है. इसे देखते हुए विभिन्न बीमारियों से बचाव को लेकर पशुओं यहां तक की बकरियों का भी टीकाकरण किया गया. पशुओं के सूखा चारा प्रबंधन के लिए पशु चॉकलेट, हे माइलेज एवं यूरिया उपचारित चारा को बनाने का प्रशिक्षण व प्रदर्शन किया गया. पशुओं को हीट स्ट्रेस से बचाने के लिए खनिज लवण, वीटामीन डी व सेपेनियम का प्रयोग हो रहा है. परिणाम दूध उत्पादन में वृद्धि हो रही है. हरा चारा की कमी को देखते हुए कम पानी में होने वाले चारे की किस्मों सुडान, नैपियर घास का प्रत्यक्षण किया गया है. हरा चारा के अन्य विकल्प जैसे अजोला, हाइड्रोपोनिक तकनीक से चारे के उत्पादन को भी बढ़ाया गया है.
निकरा परियोजना के प्रधान शोधकर्ता डॉ सुधांशु शेखर ने कहा कि सूखा प्रभावित क्षेत्र में वहां के अनुकूल खेती हो इसके लिए निकरा के तहत काम किया गया है. सामुदायिक खेती का सबसे ज्यादा बदलाव धान के उत्पादन में देखने को मिला है. मध्यम अवधि का धान 10 दिन तक का सूखा भी झेल लेता है और यह 115-120 दिन में हो जाता है, पर लंबी अवधि का धान 150 दिन का समय लेता है. ऐसे में किसानों के समय की बचत भी होती है और रबी फसल की खेती का समय मिल जाता है. हम गांव में कृषि विज्ञान केंद्र की ओर से और अच्छा करने का प्रयास कर रहे हैं.
किसान राजू यादव ने कहा कि निकरा परियोजना के तहत काम शुरू नहीं होने से पहले हम खेती की तकनीक से अनभिज्ञ थे. नयी तकनीक से हमने खाद, बीज का प्रयोग करना सीखा. पहले बारिश न के बराबर होने पर फसल बर्बाद हो जाती थी, पर अब कम पानी में भी धान की फसल अच्छी होती है. बीजोपचार से सब्जियों का उत्पादन भी बढ़ा है. करीब 6 एकड़ जमीन पर खेती कर रहे हैं. उत्पादन बढ़ने से आमदनी दोगुनी हो गयी है.
किसान जगदीश यादव ने कहा कि खेती की नयी तकनीक से पहले किसान अंजान थे. पर, जब से कृषि विज्ञान केंद्र ने निकरा के तहत कार्य शुरू किया. किसान जागरूक हुए. पहले धान का उत्पादन तक सही से नहीं हो पाता था, पर नयी तकनीक ने हमारी जिंदगी संवार दी है. अब हमारा धान उत्पादन 20 से 50 प्रतिशत तक बढ़ गया है. गांव में कृषि क्षेत्र में बदलाव को लेकर और भी कार्य हुए हैं, जिसका फायदा मिल रहा है.
Posted By : Samir Ranjan.