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झारखंड पंचायत चुनाव : विकास से हैं कोसों दूर, लेकिन पहाड़ से 10 किलोमीटर नीचे उतरकर जरूर करते हैं वोट

Jharkhand Panchayat Chunav 2022: लातेहार जिले के महुआडांड़ प्रखंड की नेतरहाट पंचायत के आधे गांव तक पहुंचने के लिए सड़क नहीं है. आदिम जनजाति समुदाय के लोगों की जिंदगी जंगल तक सिमटकर रह गयी है. ये विकास से कोसों दूर है, लेकिन विरिजिया समुदाय के लोग पहाड़ से 10 किलोमीटर नीचे उतरकर वोट करते हैं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 12, 2022 6:18 PM
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Jharkhand Panchayat Chunav 2022: झारखंड पंचायत चुनाव की तपिश तेज है. चुनाव मैदान में किस्मत आजमा रहे प्रत्याशी वोटरों को लुभाने में लगे हैं. आज शाम पहले चरण के प्रचार का शोर थम गया. इस बीच लातेहार जिले के महुआडांड़ प्रखंड की नेतरहाट पंचायत का आधे गांव चुनावी शोर से कोसों दूर है. विकास से कोसों दूर पहाड़ की चोटी पर बसे इस गांव तक पहुंचने के लिए सड़क तक नहीं है. हां, हर चुनाव में यहां के आदिम जनजाति विरिजिया समुदाय के लोग 10 किलोमीटर नीचे पहाड़ से उतरकर वोट जरूर करते हैं. यहां चौथे चरण में मतदान होना है.

रोजगार का साधन नहीं

लातेहार जिले के महुआडांड़ प्रखंड की नेतरहाट पंचायत का आधे नामक गांव घने जंगल व पहाड़ की चोटी पर बसा है. आधे ग्राम दो भागों में बंटा है. आधे एवं कुरगी. ये समुद्र तल से 3500 फीट की ऊंचाई पर स्थित हैं. सरकार के स्तर पर कभी भी इस गांव की सूरत बदलने का प्रयास नहीं किया गया. इस गांव में रहने वाले 105 परिवारों की जिंदगी जंगल तक सिमटी हुई है. आधे गांव में 49 और कुरगी गांव में 42 परिवार आदिम जनजाति विरिजिया समुदाय के हैं, अन्य यादव परिवार हैं. विरिजिया यहां सदियों से रहते आ रहे हैं. जंगल में रोजगार एवं सिंचाई का कोई साधन नहीं है. बरसात में लोग मकई की खेती करते हैं. गांव में आंगनबाड़ी केंद्र और स्कूल तो है, लेकिन महीनों तक नहीं खुलते. गांव तक पहुंचने के लिए सड़क तक नहीं है.

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10 किमी नीचे उतरते हैं पहाड़ से

आधे गांव प्रखंड मुख्यालय से 30 किमी दूर तो नेतरहाट पंचायत से 75 किमी दूर है. ग्रामीण नेतरहाट घने जंगल के रास्ते 15 किमी पैदल चलकर पहुंचते हैं, तो आधे गांव पहुंचने के लिए पंचायत दूरूप के ग्राम दौंना से 10 किमी पहाड़ पर चढ़ना पड़ता है. वोट देने के लिए लोग 10 किलोमीटर नीचे पहाड़ से उतरते हैं. रास्ता खतरनाक है. इसके बाद भी इस गांव की तस्वीर नहीं बदली.

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गांव तक पहुंचने के लिए सड़क तक नहीं

आधे गांव में गाड़ी नहीं पहुंचती. कोई बीमार हो जाए, तो गेडूंवा पर कंधे में ढोकर पहाड़ से 10 किमी नीचे आधे गांव तक लाते हैं. गर्भवती महिला का प्रसव गांव में होता है. बीसीजी और डीबीसी टीकाकरण समय से नहीं होता है. ग्रामीण कहते हैं कि सड़क नहीं होने से लोगों की मौत भी हो चुकी है. गांव में स्वच्छ पेयजल नहीं है. चापाकल या कुआं नहीं है. चुआड़ी है. इसी प्राकृतिक जलस्रोत पर ग्रामीण निर्भर हैं. पानी साफ और मीठा है. लोग इसे प्रकृति का प्रसाद कहते हैं. चुआंड़ी के पानी से लोग नहाते एवं कपड़ा धोते हैं.

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वनोपज से चलती है जिंदगी

गांव में रोजगार के साधन नहीं हैं. युवा पलायन कर केरल, दिल्ली व उत्तर प्रदेश कमाने जाते हैं. ज्यादातर फोरेस्ट लैंड एवं भौगोलिक संरचना ऐसी हैं कि खेती नहीं होती. आदिम जनजाति परिवार के लिए डाकिया योजना बहुत बड़ा सहारा है, लेकिन राशन लेने इन्हें पैदल दौना गांव तक जाना पड़ता है. गांव के अरूण विरिजिया, फूलचंद विरिजिया, अजय विरिजिया ने कहा कि महुआ फूल, करंज बीज, धवई फूल, आम, आदि वनोपज जीविका चलाने में मदद करते हैं.

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क्या कहते हैं ग्राम प्रधान

ग्राम प्रधान अर्जुन विरिजिया ने कहा कि गांव से पैदल दौना तक जाते हैं. फिर 70 रुपये किराया देकर गाड़ी से प्रखंड मुख्यालय जाते हैं. वन प्रक्षेत्र के कारण खेती के लिए लोगों के पास पर्याप्त जमीन नहीं है. गांव तक कोई अधिकारी नहीं पहुंचता है. स्कूल में महीनों तक शिक्षक नहीं आते हैं. आंगनबाड़ी भी नहीं खुलता है. समय से बच्चों एवं गर्भवती का टीकाकरण नहीं होता है. वोट देने के लिए आधे गांव जाते हैं. ग्राम सभा होती है. योजना भी रजिस्टर में चढ़ाई जाती है, पर कोई योजना धरातल पर नहीं उतरती है.

रिपोर्ट : वसीम अख्तर

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