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बारिश होते ही किलक उठते हैं झारखंड के नदी-बेसिन, कौन हैं जल देवता?

अभी भी झारखंड में खेती पर निर्भरता कम ही है. जंगल पर निर्भरता की वजह से नदियों पर निर्भरता अवश्य कम थी. लेकिन घुमंतू आदिवासी समुदाय नदियों के किनारे ही अस्थायी बसेरा बसाते थे.

कुशाग्र राजेन्द्र और विनीता परमार

झारखण्ड की सभ्यता और संस्कृति के विकास की कहानी जंगल के इर्द-गिर्द ही घूमती है यानी आदिवासी संस्कृति ने पृथ्वी को मां माना और उसपर हल चलाना उनके लिए पाप के समान था. धीरे-धीरे भोजन की जरूरतों के अनुसार जंगल के भागों को जलाकर अनाज उगाना शुरु किया. स्थानीय लोगों का भोजन, मांस, लकड़ी, शहद, साग-भाजी सभी चीजों के लिए जंगल पर ही निर्भरता रही. अभी भी झारखंड में खेती पर निर्भरता कम ही है. जंगल पर निर्भरता की वजह से नदियों पर निर्भरता अवश्य कम थी. लेकिन घुमंतू आदिवासी समुदाय नदियों के किनारे ही अस्थायी बसेरा बसाते थे.

बकौल काका साहेब कालेलकर – “जो भूमि केवल वर्षा के पानी से ही सींची जाती है और जहां वर्षा के आधार पर ही खेती हुआ करती है, उस भूमि को ‘देव-मातृक कहते हैं, जिसके विपरीत, जो भूमि वर्षा पर निर्भर नहीं है, बल्कि नदी के पानी से सींची जाती है और निश्चित फसल देती है, उसे ‘नदी-मातृक’ कहते हैं.”

इकिर बोंगा ही जल देवता हैं

इस प्रकार देव-मातृक होने के बावजूद भी झाड़ प्रदेश के लोगों ने सूर्य, पहाड़ और धरती की तरह पानी को भी देवता माना. इकिर बोंगा ही जल देवता हैं. इकिर शब्द का अर्थ ताल या तालाब होता है. इसलिए, इकिर बोंगा का अर्थ है वह आत्मा जो एक तालाब में निवास करती है. डूबने से होने वाली मृत्यु इकिर बोंगा के रूप में होती है. इकिर बोंगा की पूजा इस बात को पुष्ट करती है कि झारखण्ड में पानी की जरूरतों को पूर्ण करने के लिए उसे तालाबों और गड्ढों में संग्रहित किया जाता था.

बरन बोंगा नदी के प्रवाह में स्थित देवता

बरन बोंगा मुंडा देवताओं के सबसे डर पैदा करनेवाले देवताओं में से एक हैं. उनका कोई स्थायी निवास नहीं है और माना जाता है कि वे गांव, जंगल, नदी, पहाड़ी की चोटी और अन्य स्थानों पर भटकते रहते हैं. बरन बोंगा नदी के प्रवाह में स्थित देवता हैं जिनकी पूजा नदी के सतत धार में होती है. जंगल नदी की मां है और झारखण्ड झाड़ प्रदेश है जिसे हमेशा मानसून का इंतज़ार रहता है. बारिश के बाद जंगल को हरियाली मिलती है तो नदियों में जल-प्रवाह. इस प्रवाह के साथ चल पड़ती है संसार की प्रथम यात्री नदी. नदी की भंगिमाएं हैं—प्रवाह की, गति की, गत्यात्मकता की. नदी के रंग समान ही तो है हमारा जीवन. वर्षा ऋतु में नदी का तूफानी रूप देखा जा सकता है, जब भयंकर बाढ़ आती है और नदी फैलकर सागर जैसी हो जाती है. और गर्मी में इसी नदी की सूखी हुई देह भी देखी जा सकती है, जरा सी धार रह जाती है. आज भी यात्रा के दौरान नदियों की पूजा और सिक्कों को प्रवाहित करना नदी की पवित्रता और प्रवाह का सम्मान है.

प्रकृति की सबसे विशिष्ट सृजन में से एक नदियां

नदियां प्रकृति की सबसे विशिष्ट सृजन में से एक है, जिसे संसार का प्रथम यात्री भी माना गया है, जो अनवरत प्राचीन भू-खंड को अपने बहाव से समतल करती रहती है और इसी क्रम में एक जंगल, जीव-जंतु और सभ्यता की एक अंतहीन कड़ी जुडती चली जाती है. अक्सर हम नदी मात्र से पहाड़ से उतरकर कम ढाल वाले विस्तृत मैदानी इलाकों में सांप की तरह टेढी-मेढ़ी घूमती जलधारा की पारिकल्पना कर लेते हैं, पर सभी नदियों की कहानी अलग-अलग होती है. एक नदी आमतौर पर मीठे पानी की प्राकृतिक प्रवाहित जलधारा है. जो समुद्र, झील या किसी अन्य नदी की ओर बहती है. यह आम तौर पर एक पहाड़ या पठार से उगता है और एक धारा/नाला जो नदी के रूप में अपनी यात्रा शुरू करता है. मैदानी भाग वाली नदियां पठार वाली नदियों से अलग होती हैं, वैसे ही पहाड़ी भाग से निकलने वाली मैदानी नदियां सदानीरा होती हैं. वहीं पठारी नदियां मानसून का पानी लेकर केवल बरसात के मौसम में ही बहती हैं. झारखण्ड की नदियों की प्रकृति तो और भी खास है, ये ना सिर्फ हिमालय से निकलने वाली नदियों से, बल्कि दक्षिण के अन्य प्रयद्वीपीय नदियों से भी भिन्न हैं.

छोटानागपुर के पठार से नदियों की एक विस्तृत शृंखला

अपेक्षाकृत एक छोटे भौगोलिक क्षेत्र छोटानागपुर के पठार से नदियों की एक विस्तृत शृंखला और वो भी हरेक दिशा में बह निकलना झारखण्ड के नदी तंत्र को एक अनोखापन देता है. खिड़कियों में लगे छड़ों के सरीखे यहां की नदियां एक विशिष्ट आकृति बनाती है. झारखंड की इक्की-दुक्की नदियों को छोड़ स्वतंत्र रूप से समुद्र में गिरने वाली नदियां नहीं हैं. जब प्रमुख नदियों की मुख्य सहायक नदियां एक दूसरे के समानांतर प्रवाहित होती हैं और सहायक नदियां समकोण पर उनसे जुड़ती हैं, तो ऐसा पैटर्न उभर कर आता है. ऐसा भौगोलिक परिदृश्य शायद ही कहीं दिखे, जहां दो सौ से अधिक छोटी-बड़ी सरिताएं मानसून की पहली बारिश के साथ सूरज की किरणों की तरह चारों दिशाओं में कल-कल करती बह निकले. नदियों में पानी आते ही प्रकृति का हरापन आंखों को सुकून देता है तो चट्टानों से निकलती जल-धार की थाप एक मधुर संगीत छेड़ती है. झारखण्ड की नदियों की कम गहराई में पैर रखते ही बिजली की धारा की चंचलता पूरे शरीर के भीतर की वाहिकाओं के दर्द से उबार देती है.

नदियां की पेटी पहले टूटती है फिर जुड़ती है

झारखण्ड की नदियों का वर्तमान स्वरूप भारतवर्ष की उत्पति के साथ ही आकार लेने लगती है जब लगभग पांच करोड़ साल पहले दक्षिण से इंडियन प्लेट उत्तर के यूरेशियन प्लेट से टकराती है और हिमालय का बनना शुरू होता है. यहां की नदियां की पेटी पहले टूटती है फिर जुड़ती है. प्लेटों के इस विशाल टक्कर से व्यापक स्तर पर सम्पूर्ण भू-भाग में भूमिगत हलचल की एक अंतहीन शृंखला शुरू होती है जिससे तात्कालिक छोटानागपुर का पठार भी अछूता नहीं रहता. पूर्व के हिमयुग के अपरदन के कारण लगभग बिना ढाल के समतल बन चुके इस पठार, जिस पर बहने वाली नदियां लगभग क्षीण हो चुकी थी, हिमालयी हलचल के कारण अचानक से ऊपर उठने लगती है, जो लगभग 20 लाख साल तक जारी रहती है. तीन चरणों में उभर कर आये उच्चावच से पठार को ढलान और नदियों को पुनर्जीवन मिलता है और एक बार फिर नदियों की एक विस्तृत शृंखला बह निकलती है. वर्षा होती है तो बड़े-बड़े पहाड़ खाली के खाली रह जाते हैं; झील, गङ्ढे, नदी-घाटियां पानी से भर जाती हैं, भरपूर हो जाती हैं. यहां की नदियां बारिश के पानी को आत्मसात करती ही हैं साथ ही पहाड़ों को खूबसूरती की एक वजह दे देती हैं.

सम्पूर्ण पठार एक ऊंचाई से ऊपर नहीं उठा

सम्पूर्ण पठार एक ऊंचाई से ऊपर नहीं उठा बल्कि एक ढलान के रूप में व्यस्थित हुआ, जिसकी दिशा उतर-पश्चिम से दक्षिण-पूरब और दक्षिण-पश्चिम की ओर है. पठार का उतर-पश्चिमी पाट प्रदेश सबसे ऊंचा (औसत ऊंचाई 1000 मीटर) है, जो क्रमशः दक्षिण-पूरब की ओर (रांची और हजारीबाग पठार; ऊंचाई 600 मीटर और बाद में लघु पठार मानभूम और सिंहभूम; ऊंचाई 300 मीटर) ढल जाती है.

पठारों की ढलान नदियों को गिरने की सुविधा देती हैं

पठारों की ढलान नदियों को गिरने की सुविधा देती हैं. छोटानागपुर पठार के अलग-अलग हिस्सों के स्थानीय ढलान, नदियों के उद्गम और पूर्व में बनी भ्रंशो के अनुरूप नदियां अनेक नदी तंत्र का निर्माण करती है जो समय के साथ एक विस्तृत नदी बेसिन के रूप में ढल जाती है. मुख्य नदी के उद्गम के साथ उसकी सहायक नदियों के प्रवाह तंत्र को समग्रता से नदी बेसिन कहते हैं, जो आसपास की अन्य नदियों के बेसिन से जल विभाजक के द्वारा विलगित होती है. जैसे एक नदी बेसिन का समकक्ष दुसरे नदी बेसिन के बीच का एक अनकहा रिश्ता है जिसमें दूसरी और पहली नदी अपने पानी, सेडीमेंट आदि बांट लेती हैं, वैसे ही आदिवासी समाज में अलग-अलग समाज के लोगों के साथ ‘सहिया जोड़ाने’ की परंपरा रही है. सहिया जोड़ाना जात-धर्म से इतर एक भावनात्मक रिश्ता है, जिसमें एक परिवार के लोग सहिया जोड़ाये दूसरे परिवार का हिस्सा और एक दूसरे के सुख दुख के भागीदार बन जाते है. नदी बेसिन में नदियों का श्रृंखलाबद्ध होना आपस में सहिया जोड़ाना ही है. दो नदियों के सहिया जोड़ाते ही दोनों जगहों के लोग नदियों के दुःख-सुख में एक दूसरे को सहयोग करने के लिये हमेशा के लिये वचनबद्ध हो जाते हैं. नदी, प्रकृति और समाज को बचाने की अनूठी परंपरा का संवाहक झारखण्ड अपनी नदी-बेसिन की खूबसूरती के लिए भी प्रसिद्ध है.

नदी देखते ही मन में आता है विचार

नदी देखते ही मन में विचार आता है – यह कहां से निकली है और इसे कहां जानी है? यह विचार और प्रश्न सनातन है. नदी को जितनी बार देखते हैं या वहां से गुजरते हैं उतनी ही बार यह सवाल उमड़ता है. और झारखण्ड की इन पुरातन नदियों के बारे में यह सवाल ज्यों के त्यों पुरानी है. छोटानागपुर पठार का नदी तंत्र का अनोखा विन्यास इन सवालों के साथ हमें और भी आकर्षित करता है, चाहे पश्चिमी मध्य पठार से नदियों का उद्गम हो, या चहु दिशाओ में उनका बरसाती और सर्पीले मार्गो से हो के बहाव हो या फिर नदी मार्ग के अनेक जलप्रपात हो या फिर प्रवाह भू-क्षेत्र में कहीं-कहीं उलटे मांदर जैसे छोटी-छोटी पहाड़ियां हो.

अपवाह तंत्र में बारह प्रमुख नदी बेसिन

यहां के अपवाह तंत्र में बारह प्रमुख नदी बेसिन है. इन प्रमुख नदी बेसिनों का समायोजन छोटानागपुर के पठार के ऊपर, स्थानीय ढलान और सोन और दामोदर नदी भ्रंशो के हू-ब-हू अनुरूप बैठता है, और नदियां छोटानागपुर पठार के सबसे ऊंचे उतर-पश्चिमी और मध्य भाग से निकल कर लगभग हर दिशा मे बह निकलती है. जहां उत्तरी कोयल बेसिन का बहाव उत्तर पश्चिम की ओर है, वहीं पुनपुन बेसिन उत्तर, दामोदर बेसिन पूरब, स्वर्णरेखा बेसिन दक्षिण-पश्चिम तथा शंख बेसिन दक्षिण दिशा की ओर बहाव लिए हुए है. ऐसा आभास होता है कि छोटानागपुर पठार के उच्च भाग से सारी प्रमुख नदियां चारों दिशाओं मे विकरित (रेडियट) हो रही हो, जो कि रेडियल अपवाह तंत्र की निशानी है, झारखंड की नदियों की विशेषता भी. झारखंड के पठार के तीन स्तरीय उच्चावच नदियों के बहाव में भी परिलक्षित होती है. पाट प्रदेश, रांची, हजारीबाग, कोडरमा पठार से जब नदियां निम्नतर पठार की ओर बहती है तो आचानक आई ऊंचाई की कमी के कारण नदी जलप्रपात बनाती है, जैसे दसम, हुंडरू, जोन्हा आदि प्रमुख है.

अधिकांश भूमि प्राचीन छिद्र रहित कठोर चट्टानों से बनी

प्रदेश की अधिकांश भूमि प्राचीन छिद्र रहित कठोर चट्टानों से बनी है. इस कारण जल-संसाधन में भूमिगत जल का योगदान बहुत कम है. सालाना बारिश (140 सेंटीमीटर) का अधिकांश हिस्सा (लगभग 80%), विभिन्न नदी बेसिन के रास्ते बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है. खराब जल प्रबंधन के कारण गर्मियों में राज्य का तीन-चौथाई भू-भाग सूखे की चपेट में आ जाता है. पाट प्रदेश के दक्षिण से होकर रांची पठार के उत्तर से एक जल विभाजक झारखंड के पानी के प्रवाह को दो भाग मे बांटती है. जल विभाजक से उत्तर की नदी बेसिन सीधे या अपरोक्ष रूप से गंगा नदी मे मिलती है, जिसमें उत्तरी कोयल बेसिन, पुनपुन बेसिन, सोन-कान्हार बेसिन, मयूराक्षी बेसिन, अजय बेसिन, बराकर बेसिन, दामोदर बेसिन तथा उत्तर पूर्व मे एक छोटा हिस्सा सीधे गंगा नदी का भी शामिल है.

शंख और कोयल बेसिन संगम कर ब्रामणि नदी के रूप मे महानदी बेसिन का हिस्सा

जल विभाजक से दक्षिण मे नदियां या तो सीधे या अपरोक्ष रूप से बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है, जिसमें शंख बेसिन, दक्षिणी कोयल बेसिन, खरकई बेसिन और स्वर्णरेखा बेसिन शामिल है. पूरे प्रवाह तंत्र मे स्वर्णरेखा एक मात्र नदी है, जो खरकई बेसिन का भी पानी अपने साथ लेकर स्वतंत्र-रूप से बंगाल की खाड़ी में समाहित होती है. वहीं दक्षिण बहाव वाली शंख और कोयल बेसिन संगम कर ब्रामणि नदी के रूप मे महानदी बेसिन का हिस्सा बन जाती है.

छोटानागपुर पठार एक भौगोलिक सेतु का काम करता है

छोटानागपुर पठार हिमालयी और प्रायद्विपीय नदियों के बीच एक भौगोलिक सेतु का काम करता है, जहां एक ओर पठारी जल प्रायद्विपीय उत्पति वाली नदी सोन के रास्ते हिमालयी गंगा बेसिन मे मिलती है, दामोदर पठार का बेहिसाब पानी गंगा को समाहित करती है, वही शंख और दक्षिणी कोयल सरीखी नदियां पठारी जल से प्रायद्विपीय महानदी बेसिन का पेट भरती है, साथ-साथ पठारी जल का एक हिस्सा स्वर्णरेखा नदी के रूप मे सीधे बंगाल की खाड़ी में जाती है.

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