संताल स्थापना दिवस: वनों से भरे इस इलाके में रहते थे पहाड़िया और बंगाल के नवाब द्वारा दंडित लोग, जानें इतिहास

पाकुड़ जिले में अवस्थित सुलतानाबाद में पहाड़िया और बंगाल के नवाब द्वारा दंडित लोग ही रहते थे. कई बार सुलतानाबाद (महेशपुर राज) की रियासत महिलाओं के हाथों में रही. यह गांव अभी भी अस्तित्व में है और वर्तमान में उसे अमलागाछी गांव के नाम से जाना जाता है.

By Prabhat Khabar News Desk | December 22, 2023 1:29 PM

डॉ सुरेंद्र झा, इतिहासकार: सुलतानाबाद परगना पाकुड़ जिले के अंतर्गत महेशपुर और पाकुड़िया थानों के क्षेत्र में अवस्थित है. पारंपरिक इतिहास के अनुसार यह क्षेत्र पूरी तरह जंगलों से आवृत था. वनाच्छादित इस इलाके में मुख्यत: पहाड़िया एवं बंगाल के नवाब द्वारा दंडित लोग गुजर-बसर कर रहे थे. पहाड़ियों के एक सरदार चांद सरदार का उल्लेख मिलता है , जो महेशपुर राज से छह मील उत्तर एक गांव में रहता था, जिसे चांदपुर के नाम से जाना जाता था. यह गांव अभी भी अस्तित्व में है और वर्तमान में उसे अमलागाछी गांव के नाम से जाना जाता है. धीरे-धीरे कुछ हिंदू और मुसलमान भी इस इलाके में बस गये. इन लोगों का सरदार सुलतान शाह के नाम का व्यक्ति था, जिसने जंगलों को साफ करवाकर उसे अपने कब्जे में ले लिया. इसी व्यक्ति के नाम पर परगना का नाम सुलतानाबाद पड़ा. कालांतर में यहां राजपूतों का राज्य कायम हुआ, जिसकी राजधानी महेशपुर राज में कायम हुई. पारिवारिक इतिहास के अनुसार बंगला संवत 722-723 यानी 1316-1317 ई में लखनऊ और अयोध्या की ओर से दो क्षत्रीय सरदार बंकू सिंह व पंकू सिंह अपने परिचित मित्र खड़गपुर के राजा यहां आये. यह स्पष्ट नहीं है कि खड़गपुर के राजा उस समय राजपूत थे या खेतौरी सरदार. खड़गपुर राज्य के इतिहास के अनुसार राजपूत शासन खड़गपुर में दांडू राय से प्रारंभ हुआ था, जो अवधि मुगलशासन से प्रारंभ की है.

अस्तु जो भी बात हो, इतना स्पष्ट है एवं जो ब्रिटिश दस्तावेजों से भी स्पष्ट है कि बंकू सिंह और अंकु सिंह ने खड़गपुर राज की मदद से सुलतानाबाद पर कब्जा कर लिया और शासक बन गये. बंकु सिंह ने महेशपुर की पुरानी पहाड़िया सरदारनी से शादी कर ली और बस गये. बंकू सिंह ने सुलतानाबाद के इलाके पर कब्जा किया और अंकू सिंह ने बांसलोइ नदी के दक्षिण और ब्राहमणी नदी के उत्तर खड़गपुर राज और हंडवै से पूरब तक के क्षेत्रों पर शासन कायम किया. अंकू सिंह ने पहाड़िया औरतों से शादी की. बंकू सिंह के वंशज राजपूत होने का दावा करते हैं, लेकिन अंकू सिंह के वंशज कुमारभाग पहाड़िया कहलाते हैं. कालांतर में दोनों भाईयों बंकु सिंह व अंकू सिंह ने बंगाल के नवाब नजराना देकर उनसे सनद प्राप्त कर लिया. इस तरह वे वैध रूप से जमींदार हो गये. तत्कालीन उपायुक्त आर कास्टेयर्स के द्वारा गवर्नर जेनरल को लिखे पत्र दिनांक एक फरवरी 1890 के अनुसार सुलतानाबाद की जमीनदारी का क्षेत्रफल 292-293 वर्गमील था और 1872 की जनगणना के अनुसार आबादी 83244 थी. उस वक्त 483 ग्राम थे. ब्रिटिश राज आने के बाद पहाड़िया घटवाल विद्रोह शमन के सिलसिले में भागलपुर के तत्कालीन कलक्टर क्लीवलैंड के अनुरोध पर इसे राजशाही (बंगाल) जिले से हटाकर भागलपुर में शामिल कर लिया गया. परिवार की परंपरा के अनुसार एस्टेट विभाजन नहीं होता था.

ब्राउन वुड की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार बंकू सिंह की मृत्यु के उपरांत उसके पुत्र गंधरण सिंह जमींदार हुए और गंधरण सिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र हंसराज सिंह जमींदार हुए. उसके उपरांत हंसराज सिंह के पुत्र डोमन सिंह, तत्पश्चात गोले सिंह एवं उसके बाद दुर्जन सिंह जमींदार हुए. दुर्जन सिंह के पश्चात नटवर सिंह को जमींदारी मिली. नटवर सिंह की तीन संतानें थी. दो पुत्र किशन सिंह व कौशल सिंह एवं पुत्री रमणी. किशन सिंह की मुत्यु निसंतान हुई. उसके बाद कौशल सिंह जमींदार हुए. बंगला संवत 1135 यानी 1729 ईस्वी में कौशल सिंह की मृत्यु हो गयी. कौशल सिंह के दो पुत्र थे रतन सिंह और गर्जन सिंह. रतन सिंह 1754 ई तक राजा रहे. 1754 में रतन सिंह की मृत्यु के बाद गर्जन सिंह राजा रहे. मराठों के साथ युद्ध करते हुए वे मारे गये. गर्जन सिंह की मृत्यु के उपरांत रानी सर्वेश्वरी जमींदार हुुई. ब्रिटिश सरकार ने 1770 ई में रानी सर्वेश्वरी के साथ बंदोबस्ती की और उन्हें मान्यता प्रदान किया. 14 वर्षों के उपरांत 1784 ईस्वी में अंग्रेजों ने उन्हें अपदस्थ कर दिया. ब्राउन वुड ने सर्वे रिपोर्ट में इसका कारण रानी का कुप्रबंधन बताया है. वस्तुत: 1770-1803 ईस्वी में पूरे जंगल तराई में पहाड़िया-घटवाल विद्रोह चरम पर था. रानी सर्वेश्वरी ने पहाड़ियाओं को ब्रिटिश सत्ता के प्रतिरोध के लिए प्रोत्साहित किया था. इस कारण से क्लीवलैंड ने उन्हें अपदस्थ कर भागलपुर में नजरबंद कर रखा.

मि फाम्बेल, जज मैजिस्ट्रेट भागलपुर द्वारा गवर्नर जनरल सर जॉन शोर को 28 जुलाई 1795 को लिखे पत्र को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है. 1784 ई में रानी सर्वेश्वरी को अपदस्थ करने के बाद नौ वर्षों तक सरकार ने जमींदारी का प्रबंधन अपने हाथों में ले लिया. रानी सर्वेश्वरी के लिए 100 रुपये मासिक पेंशन तय की गयी. जिसे बाद में 50 रुपये मासिक कर दिया गया. सुलतानाबाद की जमींदारी को गंगा गोविंद सिंह नामक इजारेदार को ठेका पर दे दिया गया. 1793 ई में श्रीमती रमणी के पुत्र माखम सिंह को जमींदारी सौंपी गयी और उसके साथ बंदोबस्ती भी कर दी गयी. माखम सिंह की मृत्यु के पश्चात उसकी विधवा महेश्वरी देवी को जमींदारी सौंपी गई. महेश्वरी देवी की मृत्यु 1831 ई में हुई. महेश्वरी देवी के पश्चात उसके नाती रघुनाथ सिंह को जमींदारी मिली. रघुनाथ सिंह की मृत्यु अल्पवयस में हो गई. उसके पश्चात रघुनाथ सिंह की बहन जानकी कुमारी जमींदारी हुई. 1843 ई में जानकी कुमारी का विवाह बाबू गोपाल चंद्र सिंह से हुई. जानकी कुमारी के दो पुत्र हरेंद्र नारायण सिंह एवं कुमार इन्द्र नारायण सिंह और एक पुत्री कमल कुमारी थी. बाबू गोपाल चंद्र सिंह ने जमींदारी का अच्छा प्रबंधन किया. वे अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान थे. 1875 ई उन्हें अंग्रेजी राजा की उपाधि दी और 1885 में उन्हें महाराजा की उपाधि दी गयी. महाराजा गोपाल चंद्र सिंह का नाम 1872 में रेग्यूलेशन के निर्माण की प्रक्रिया में सुझाव देने वालों में अंकित है. 14 जनवरी 1889 ई को जानकी कुमारी ने दान पत्र द्वारा सुलतानाबाद की जमींदारी को स्त्रीधन घोषित करते हुए अपने छोटे पुत्र इंद्र नारायण सिंह को सुलतानाबाद की जमींदारी सौंपी. इन्द्र नारायण सिंह के चार नाबालिग पुत्र थे. जोगेन्द्र, देवेन्द्र, ज्ञानेन्द्र और फणींद्र. इन्द्र नारायण सिंह की विधवा राधाप्यारी देवी को उनका गार्जियन नियुक्त किया गया. आंतरिक वैमनस्य और बढ़ते हुए कर्ज के कारण स्थिति विषम हो गई. अंतत 1907 ई में इसे सरकार ने अधिगृहित कर लिया.

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