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VIDEO: दंग करने वाली है नवरात्र में मिथिलांचल की पारंपरिक लोक-नृत्य झिझिया, पहचान बचाने की जरुरत, देखें वीडियो

नवरात्र के दौरान पारंपरिक लोक-नृत्य ‘झिझिया’ मिथिलांचल को अलग पहचान देता रहा है. लेकिन आधुनिकता के इस दौर में हम अन्य राज्यों की सुंदरता को अपनाने में अपनी ही खासियत को बढ़ावा देने से विमुख होते जा रहे हैं.

शिवेंद्र कुमार शर्मा, दरभंगा : हमें अपनी संस्कृति और लोक परंपराओं को जीवित रखना है तो उसे सिर्फ दिल में सहेजने से काम नहीं चलेगा. उसे जुबां पर लाने की जरूरत है.अभी नवरात्र चल रहा है, परन्तु नवरात्र के दौरान मिथिलांचल के कोने-कोने में होने वाले पारंपरिक लोक-नृत्य ‘झिझिया’ करती महिलाओं का झुंड कहीं दिखाई नहीं दे रहा है.

समय के साथ मिथिलांचल में यह नृत्य शैली भी अपनी पहचान खोती जा रही है. बहुत कम ही लोग जानते हैं कि डांडिया और गरबे की तरह ही इस नृत्य शैली का आयोजन भी नवरात्र में ही किया जाता है और इस नृत्य शैली का अपना पौराणिक महत्व भी है. युवा पीढ़ी इस शब्द से तो परिचित है, परन्तु झिझिया नृत्य क्या होता है, उन्हें इसकी जानकारी नहीं है.

वर्तमान समय में कुछ बुजुर्ग हैं जिनकी स्मृति पटल पर झिझिया अंकित है. आईआईटी मद्रास से सेवानिवृत्त प्रो. श्रीश चौधरी ने बताया कि  झिझिया की जगह हम सभी के आंगन में गरबा-डांडिया ने घर बना लिया है. झिझिया की तरह कई ऐसे पारंपरिक नृत्य आधुनिकता की भेंट चढ़े हैं. इसके कई कारण हो सकते हैं. परन्तु जिस तरह गुजरात और महाराष्ट्र में गरबा-डांडिया लोकप्रिय है, क्या हम बिहार में झिझिया लोक नृत्य को उसी प्रकार लोकप्रिय नहीं बना सकते?


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जहां एक ओर  नवरात्र में गरबा और डांडिया की धूम मची रहती है वहीं बिहार की नृत्य शैली झिझिया आज किसी कोने में दम तोड़ती नजर आती है. आधुनिकता के इस दौर में मिथिला क्षेत्र का पारम्परिक नृत्य झिझिया को राढ़ी एवं जाले बेलदार टोली की कुछ महिलाएं इससे जुड़ी हुई है.  वहीं सिमरी में बच्चों की टोली झिझिया नृत्य की परंपरा का निर्वहन करती नजर आती है.

राढ़ी व जाले की महिलाएं अपना दैनिक घरेलू कार्य सम्पन्न करने बाद देर रात माथे पर छिद्र युक्त घड़ा के अन्दर दीप जलाकर एक के ऊपर दूसरे और तीसरे को रख समूह बनाकर नृत्य के साथ-साथ गीत गाते हुए माता दुर्गा की आराधना करने निकल पड़ती है. वे सभी अपने भावपूर्ण नृत्य एवं भक्तिपूर्ण गीतों के माध्यम से माता दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए आराधना करती है.

इस माध्यम से महिलाएं अपनी आराध्या से समाज में व्याप्त कलुषित मानसिकता की शिकायत करती है. वे उनसे जल्द से जल्द दुर्विचार को समाप्त कर समाज में सद्भावना एवं सद्विचार लाने की प्रार्थना करती है. गीतों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुविचारों को भिन्न-भिन्न नाम देकर उसे समाप्त करने की प्रार्थना करती है. शारदीय नवरात्रा में कलश स्थापना के साथ शुरु होने वाली यह परम्परा विजयदशमी को मां दुर्गा की प्रतिमा के साथ ही विसर्जित होती है.

दरअसल, आज डांडिया और गरबे को बड़े-बड़े क्लबों में खासी जगह मिल चुकी है, लेकिन झिझिया को कोई जानता तक नहीं. जिस तरह महाराष्ट्र और गुजरात की सरकारें गरबा-डांडिया को संरक्षण प्रदान रही हैं, बिहार सरकार को भी झिझिया लोक नृत्य को संरक्षण देना चाहिए. बिहार की इस नृत्य विधा को अब लोगों के बीच पहचान दिलाने की जरूरत है, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी संस्कृति को जान व पहचान सके.

जानकारी के अनुसार झिझिया मिथिलांचल का एक प्रमुख लोक नृत्य है. दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में लड़कियां बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं. इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां और महिलाएं अपने सिर पर छिद्र वाला घड़ा में जलते दीये रखकर नाचती हैं. इस नृत्य का आयोजन शारदीय नवरात्र में किया जाता है.

महिलाएं अपनी सहेलियों के साथ गोल घेरा बनाकर गीत गाते हुए नृत्य करती हैं. घेरे के बीच एक मुख्य नर्तकी रहती हैं. मुख्य नर्तकी सहित सभी नृत्य करने वाली महिलाओं के सिर पर सैकड़ों छिद्रवाले घड़े होते हैं, जिनके भीतर दीप जलता रहता है. घड़े के ऊपर ढक्कन पर भी एक दीप जलता रहता है. इस नृत्य में सभी एक साथ ताली वादन तथा पग-चालन व थिरकने से जो समा बंधता है, वह अत्यंत ही आकर्षक होता है. सिर पर रखे दीपयुक्त घड़े का बिना हाथ का सहारा लिए महिलाएं एक-दूसरे से सामंजस्य स्थापित कर नृत्य का प्रदर्शन करती हैं.

Published By: Thakur Shaktilochan

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