डॉ गणेश मांझी : गर ऊपर डहर रहे, डहर ऊपर शहर रहे, कोरकोट पतई ठाय की बूढ़ा भालू हाय करेल से लेखन राइज रहे”. हमारे गांव में करम के दिन में करम कहानी की शुरुआत ऐसे ही होती है. ये पंक्ति सुनकर हमलोग मोहित होकर बुजुर्गों से या पहान से ये कहानी सुनते थे. चलिए, प्रस्तुत उद्धरण का मर्म समझने की कोशिश करते हैं. बचपन में हमने वो कल्पना नहीं कर पायी, जो आज समझ में आती है कि “डहर (रास्ता) के ऊपर नगर कैसे बस सकता है और शहर के ऊपर डगर कैसे हो सकता है?” उम्र के साथ जब हम बड़े शहरों यथा- दिल्ली, मुंबई, सिंगापुर, लंदन को देखने लगे, जहां पर सड़क के ऊपर शहर बसे हैं और शहर के ऊपर सड़क बने हैं, तो समझ में आया कि ये कल्पना-मात्र नहीं है. हालांकि, पुरखों ने कहानी की शुरुआत, इसकी रचना, और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, किसी भी संदर्भ में की हो, लेकिन भूत की कल्पना से लगता है कि इसका जुड़ाव किसी-न-किसी सभ्यता से जरूर होगा, जो पहाड़ों-नदियों के किनारे बसा हो और ऊंचे-नीचे पुल और अट्टालिकाओं में घर हो. हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की कल्पना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी.
आदिवासियों के जीवन दर्शन का हिस्सा है ‘करम त्यौहार’
करम एक वृक्ष है, जिसे आदिवासी समुदाय भादो महीने की एकादशी को पूजता है. पूजा के पश्चात् रातभर नृत्य फिर सुबह में युवक-युवतियां नदी या किसी तालाब में पोरहो (विसर्जित) कर देती हैं. ‘करम’ महज एक वृक्ष नहीं है, ये आदिवासियों की ऐतिहासिक धरोहर है, अध्यात्म और जीवन का अभिन्न अंग है. ‘करम त्यौहार’ महज एक वृक्ष की पूजा नहीं है, बल्कि समस्त पृथ्वी और पुकराल (यूनिवर्स) को सजीव बनाये रखने का प्रतीकात्मक प्रयास है. आदिवासियों के जीवन दर्शन का हिस्सा है ‘करम त्यौहार’, जिसे जलवायु परिवर्तन और वैश्विक ऊष्मीकरण के वैकल्पिक इलाज की तरह देखा जा सकता है.
‘करम त्यौहार’ के लिए किसी और त्यौहार का संदर्भ लेने की जरूरत नहीं
करम ‘भाई-बहन’ के प्यार का त्यौहार है, करम ‘भाई-भाई’ के प्यार का त्यौहार है. करम, बहन-बहन के प्यार, और भविष्य में होने वाले पति-पत्नी और बच्चे की कल्पना का भी त्यौहार है. करम जीवन-साथी की कल्पना और आने वाले पीढ़ी के सृजन की कहानी है. ‘करम त्यौहार‘ आदिवासियों का रक्षा बंधन भी नहीं है, न ही इसका संबंध विश्वकर्मा से है. कुछ साथियों का मानना है कि ‘करम पूजा’ भाई-बंधन का रक्षा बंधन है. मेरी समझ से ‘करम त्यौहार’ के लिए किसी और त्यौहार का संदर्भ लेने की जरूरत ही नहीं है.
‘करम’ की कहानी थोड़े-बहुत फर्क के साथ प्रचलित
विभिन्न आदिवासी समुदायों में ‘करम’ की कहानी थोड़े-बहुत फर्क के साथ प्रचलित है, लेकिन कमोबेश कहानी का आधारभूत ढांचा एक ही है. भादो के एकादशी को करम त्यौहार मनाया जाता है. करम त्यौहार के नौ दिन पहले गांव के युवक-युवतियां सुबह-सुबह खाली पेट खेत की ओर चले जाते हैं और कुछ बालू और कुछ मिटी उठाकर एक जगह थोड़ा सा प्राकृतिक खाद डालकर तथा विभिन्न प्रकार के बीज डालकर तैयार किया जाता है. फिर गांव में युवतियों की संख्या अनुसार अपने-अपने घर से लाये गए टोकरी में डालकर हल्दी पानी से सींचते हैं. अब हर रोज सुबह-सुबह खाली पेट रहकर नहाने-धोने के बाद बीज वाले टोकरी में हल्दी पानी डाला जाता है और धीरे-धीरे बीज पौधे को बड़ा किया जाता है. ये प्रक्रिया नौ दिन तक जारी रहती है और अंतिम दिन लगभग सारे युवक और युवतियां उपवास करते हैं, जिसमें युवतियों की तादाद ज्यादा होती है. इनका मकसद अपने मंजिल प्राप्ति के लिए प्राकृतिक प्रतीक वृक्ष करम से आशीर्वाद लेना हो सकता है.
करम वृक्ष की डाली काट कर लाने का है रिवाज
हालांकि, ज्यादातर उद्देश्यों में युवतियां अपने भाइयों के स्वास्थ्य कामना, अपने लिए अच्छे वर की कामना, अच्छे फसल की कामना व पारिवारिक सुख शांति की कामना है. करम त्यौहार के पारंपरिक रिवाज की वाहक महिला ही होती हैं, लेकिन युवकों का उद्देश्य भी अच्छी पत्नी, फसल, बाल-बच्चे के लिए होता है. ये कामनाएं पुरुषों द्वारा उपवास, करम वृक्ष की डाली काट कर लाने इत्यादि रिवाजों द्वारा होता है, जो कि महिलाओं के रिवाज से थोड़े अलग हैं. ज्यादातर जगहों में युवाओं का रुझान करम त्यौहार के दिन उपवास करने का कम होता है. मेरी समझ से युवाओं को भी महिलाओं के समकक्ष अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने हिस्से के रिवाजों का निर्वहन बखूबी करना चाहिए, जिसमें एक दिन का उपवास पहले नंबर पर आता है.
कैसे होती है करम पूजा
पूजा प्रक्रिया के लिए शाम में युवतियां सभी प्रकार के फूल तोड़ कर लाती हैं और करम वृक्ष को चढ़ाती हैं. करम वृक्ष की टहनी को पुरुष और महिला दोनों ही लेने जाते हैं. कई युवा एक छोटी टहनी काटकर पेड़ के ऊपर से नीचे लेकर आते हैं और नाचते-गाते ढोल बजाते हुए अखड़ा में लाते हैं. गांव के पहान और बुजुर्ग एक पूजा प्रक्रिया के तहत करम वृक्ष की टहनी को अखड़ा में स्थापित की करते हैं. जब समस्त युवतियां अखड़ा में आ जातीं हैं तो पूजा प्रक्रिया के साथ कहानी की शुरुआत होती है. जब पूजा के साथ कहानी खत्म हो जाती है तो युवक और युवतियां अपना उपवास तोड़ते हैं, तत्पश्चात ढोलक, मांदर, नगाड़े के साथ नृत्य की प्रक्रिया शुरू होती है, जो रातभर चलती है जबतक कि करम वृक्ष की डाली को पोरहो (विसर्जन) नहीं कर दिया जाता.
कई जगहों पर करम की डाली को लेकर आने के बाद अखड़ा में स्थापित कर दिया जाता है फिर उनका उद्बोधन अक्सर करम राजा के रूप में किया जाता है. ये राजा एक युवती के लिए एक भविष्य का पति हो सकता है, अपना भाई हो सकता है, अपने इष्ट देव की कल्पना हो सकती है, या भविष्य में होने होने वाले बच्चे हो सकते हैं. ‘करम राजा’ के एवज में ‘करम रानी’ से उद्बोधन करते नहीं सुना, इसलिए इसे लिंग विभेद के दृष्टिकोण से देखना आधुनिक अकादमिक शोध का विषय है. पुरुष अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए ‘करम वृक्ष’ की उपासना करता है तो वो अपने भविष्य की रानी की ही कल्पना करेगा, न कि राजा का.
युवतियों की तरह युवक भी पूरी प्रक्रिया में शामिल होकर अपने उद्देश्य की कामना करते हैं और ‘करम वृक्ष’ स्थापना के बाद अक्सर ‘करम राजा’ शब्दों का ही इस्तेमाल होता है. युवतियों को अक्सर अपने फूल वाले डोलसी (टोकरी) में एक खीरा रखने का प्रचलन है, जिसे अक्सर बेटे के प्रतीक के रूप में रखा और समझा जाता है. यहां पर लिंग का निर्णय खीरे के रूप में बेटे की ही की जाती है, ऐसा मैं नहीं समझता. लेकिन उद्बोधन से बेटे का ही अर्थ निकलता है, जो आदिवासी दर्शन में लिंग-समानता की बात को निरस्त करता है इसलिए यहां पर लिंग तटस्थता कैसे बरती जाये उसके लिए सटीक शब्द का इस्तेमाल जरूरी है. बेटे की चाहत के लिए ही करम वृक्ष की पूजा करना आदिवासी दर्शन के खिलाफ है, लेकिन अगर कुछ उपासक बेटे/बेटी दोनों की चाहत के लिए पूजा करते हैं, तो समानता और दर्शन के लिहाज से कोई हर्ज नहीं है.
नोट: लेखक सेंटर फॉर मैथमेटिकल एंड कंप्यूटेशनल इकोनॉमिक्स, स्कूल ऑफ एआइ एंड डेटा साइंस, आइआइटी जोधपुर में सहायक प्राध्यापक हैं.