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करमाटांड़ कर्मभूमि थी ईश्वर चंद्र विद्यासागर की

नारी शिक्षा को बढ़ावा, विधवा पुनर्विवाह जैसे सामाजिक बदलाव की कोशिश के बदले उन पर जानलेवा हमले हुए, अपमान किया गया, बेटे को लांछित किया गया.

सरिता कुमारी

शोधार्थी-विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग

पंडित ईश्वरचंद्र बंदोपाध्याय को बंगाल पुनर्जागरण के स्तंभ और नारी शिक्षा के प्रबल समर्थक समाज-सुधारक, दार्शनिक, शिक्षाविद, स्वतंत्रता सेनानी, लेखक सहित कई रूपों में जाना जाता है. उनका जन्म 29 सितंबर, 1820 को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीरसिंह गांव में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मïण परिवार में हुआ था. उनके पिता ठाकुरदास बंदोपाध्याय थे जबकि मां भगवती देवी. संस्कृत भाषा और दर्शन में ईश्वरचंद्र को विशेष महारत हासिल थी.

विद्यार्थी जीवन में ही संस्कृत कॉलेज ने उन्हेंं विद्यासागर की उपाधि दे दी थी. नारी शिक्षा को बढ़ावा, विधवा पुनर्विवाह जैसे सामाजिक बदलाव की कोशिश के बदले उन पर जानलेवा हमले हुए, अपमान किया गया, बेटे को लांछित किया गया. इसके बाद कथित भद्रलोक को छोड़कर जनजातियों की सेवा के लिए जामताड़ा के पास करमाटांड़ गांव पहुंचे तथा नये जीवन की शुरुआत की. वह 1873 से 1891 तक इस इलाके में रहे तथा कई उल्लेखनीय काम किये.

भारत का पहला बच्चियों का स्कूल : करमाटांड़ में उन्होंने पांच सौ रुपये में एक मकान खरीदा था. उन दिनों संताल समुदाय को अशिक्षित और असभ्य माना जाता था. उन दिनों नारी शिक्षा को बहुत आदर्श नहीं माना जाता था. आदिवासी बच्चियों को स्कूली शिक्षा मिले, विद्यासागर की यह पहली परिकल्पना थी, जिसे मूर्त रूप देते हुए उन्होंने करमाटांड़ स्थित नंदन कानन आश्रम में पहले औपचारिक स्कूल की शुरुआत कराई थी. संभवत: उन दिनों इस तरह का भारत में यह पहला विद्यालय था.

19वीं शताब्दी में कुलीन परिवार तक में अंधविश्वास और शोषण व्याप्त था. समाज की आधी आबादी को शिक्षा से दूर रखने के लिए उन्हें घरों में सीमित कर दिया गया था. महिलाओं की अपनी कोई आवाज नहीं थी. उन्हेंं भौतिक और नैतिक रूप से अयोग्य माना जाता था. इसलिए यह भ्रम फैलाया गया था कि अगर लड़कियां पढ़ाई करेंगी तो विधवा हो जाएंगी. विद्यासागर के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती थी कि विद्यालय में लड़कियां कैसे पहुंचे.

इसके लिए वह घर-घर जाकर परिवार के मुखियाओं से बेटियों को स्कूल भेजने की इजाजत देने के लिए कहते थे. उन्होंने नारी शिक्षा भंडार फंड बनाया था. उन्होंने केवल पश्चिम बंगाल में 35 महिला स्कूल खोले और 1300 छात्राओं को दाखिला दिलाने में सफल हुए. आदिवासियों के बीच अंधविश्वास मिटाने के लिए रात्रि पाठशाला : विद्यासागर ने जब आदिवासियों का सामाजिक ढांचा बदलने की कोशिश की तब पता चला कि ये लोग अंधविश्वास और अशिक्षा में बुरी तरह जकड़े हुए हैं.

उन दिनों आदिवासी भूत-प्रेत, डायन-बिसाही तथा झाड़-फूंक जैसी मान्यताओं पर आंख मूंद कर विश्वास करते थे. कुत्ता काट लेने पर लोग थाली से कुत्ते का विष झड़वाते थे. सांप और बिच्छू के काटने पर लोग ओझा-गुणी से झाड़-फूंक कराते थे. उन्होंने महसूस किया कि जब तक आदिवासी शिक्षित नहीं होंगे, अंधविश्वास में इसी तरह जकड़े रहेंगे. उन्हेंं इससे निकालने के अपने आश्रम में वयस्क रात्रि पाठशाला की शुरुआत कराई. उनका तर्क था कि परिश्रम और मेहनत-मजदूरी ही गरीबों की आजीविका का जरिया है.

ऐसे में अगर उन्हेंं विद्यालय आकर पढ़ाई करने को कहा जाएगा तो उनकी जीविका कैसे चलेगी. इसलिए रात्रि पाठशाला ही वह जरिया है जिससे गरीब बिना कुछ गंवाए शिक्षा हासिल कर सकते हैं. दिनभर खेती-बाड़ी, मजदूरी कर जब वह शाम में घर लौटेगा तो एक जगह इकट्ठा होकर पढ़ाई कर पाएगा. इस सोच को बहुत हद तक सफलता भी मिली. इकलौते बेटे की विधवा से कराई थी शादी: विद्यासागर महिला शिक्षा के गहरे पक्षधर थे.

उन्होंने अपने संस्मरण में एक विधवा रईमोनी का जिक्र किया है, जो उन्हें अपना बेटा मानती थीं. विधवा पुनर्विवाह को स्थापित करने के लिए उन्होंने इकलौते बेटे नारायणचंद्र की शादी एक विधवा महिला भावसुंदरी से करा दी थी. वह विधवा पुनर्विवाह के कितने बड़े समर्थक थे, इसका सबूत उनके द्वारा छोटे भाई को लिखी चिट्ठी में मिलता है, जिसमें विद्यासागर ने स्पष्ट किया था कि यह मेरे जीवन का कुलीन कर्म है.

मैंने इस कार्य के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया और इसके लिए जान देने से भी गुरेज नहीं करेंगे. उन्होंने 1857 में कुलीन ब्राह्मïणों में बहुविवाह रोकने के लिए सरकार के पास 25 हजार हस्ताक्षर के साथ याचिका दायर की थी. बाद में द म्युटिनी ने याचिका पर कार्यवाही स्थगित कर दी थी. बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी. 1866 में 21 हजार हस्ताक्षरयुक्त आवेदन लेकर फिर याचिका दायर की.

उन दिनों अंग्रेज सरकार भारतीय रीति-रिवाज को लेकर कोई याचिका दाखिल करने को लेकर इच्छुक नहीं थी. इसलिए सुनवाई से इन्कार कर दिया. इस प्रथा को समाप्त करने के बजाए उस वक्त शिक्षा को अनुमति दे दी थी.

1871 से 73 के बीच विद्यासागर ने बहुविवाह पर शानदार आलोचनात्मक लेख लिखे. इसमें यह तर्क दिया कि बहुविवाह पवित्र ग्रंथों में अनुमोदित नहीं है. उन दिनों मान्यता थी कि बच्चियों का सबसे अच्छा योगदान कुलीन ब्राह्मïणों में किसी की पत्नी बन जाना है और इस समाज में पुरुषों का मुख्य उद्देश्य था कि विवाह से दहेज इकट्ठा किया जाए. वर्ष 1829 में जब सती प्रथा समाप्त हुई थी, तब विद्यासागर नौ साल के थे.

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