फ़िल्म – कटहल -ए जैकफ्रूट मिस्ट्री
निर्माता – सिख्या एंटरटेनमेंट
निर्देशक – यशोवर्धन मिश्रा
कलाकार – सान्या मल्होत्रा, राजपाल यादव,विजय राज, रघुबीर यादव,अनंत जोशी, नेहा सराफ, बिजेंद्र कालरा और अन्य
प्लेटफार्म – नेटफ्लिक्स
रेटिंग – ढाई
सिनेमा हमारे मनोरंजन का सबसे अच्छा साधन ही नहीं है, बल्कि कई बार यह हमें बहुत कुछ सीखाने के साथ – साथ आइना भी दिखा देता है. इस पहलू पर सामाजिक व्यंगात्मक जॉनर के सिनेमा का कोई सानी नहीं होता है. यही वजह है कि कटहल के ट्रेलर लॉन्च के साथ ही इस फ़िल्म से उम्मीदें बढ़ गयी थी. फ़िल्म से खास नाम भी जुड़े थे. इस फ़िल्म की निर्मात्री ऑस्कर प्राप्त निर्माता गुनीत मोंगा हैं, जबकि लेखक अशोक मिश्रा और कलाकारों में विजय राज, रघुबीर यादव और राजपाल यादव जैसे नाम शामिल हैं लेकिन यह सामजिक व्यंगात्मक फिल्म एक हल्की फुल्की कॉमेडी फ़िल्म बनकर रह गयी है. जो टुकड़ों में मनोरंजन तो करती है, लेकिन कुछ सोचने को मजबूर नहीं करती है. जो किसी भी व्यंगात्मक सिनेमा की सबसे बड़ी जरूरत है.
फ़िल्म की कहानी एमएलए (विजय राज ) जी पेड़ से दो कटहल के चोरी होने से शुरू होती है. जिसके बाद मंत्री जी पूरे महकमे की पुलिस को कटहल की खोजबीन की जांच में लगा देते हैं. उसी महकमे से एक के बाद एक लड़कियां भी गायब हो रही हैं. एक और लड़की गायब हो गयी है, लेकिन किसी को इसकी सुध नहीं है. सबको बस कटहल के मिल जाने की फ़िक्र है. पुलिस के साथ साथ फॉरेनसिक टीम और मीडिया भी कटहल को ही ढूंढ रही है. ऐसे में इंस्पेक्टर महिमा (सान्या मल्होत्रा) किस तरह से लड़कियों के गायब होने के मुद्दे को कटहल के गायब होने से जोड़ देती है, ताकि प्रशासन उन लड़कियों की भी सुध लें. यही फ़िल्म की आगे की कहानी है. क्या वह गायब लड़की मिल पाती है. कैसे यह सब होता है. यही आगे की कहानी है.
फ़िल्म का पूरा ट्रीटमेंट हंसी मज़ाक वाला है. यही इस फ़िल्म की खूबी है, तो सबसे बड़ी दिक्कत भी है. यह एक लाइट हाटेर्ड फिल्म बनकर रह गयी है, जबकि इस व्यंगात्मक फ़िल्म से उम्मीद थी कि यह हंसाने के साथ – साथ कुछ सोचने को भी मजबूर कर जाए, लेकिन यह फ़िल्म ये नहीं कर पायी है, जो किसी भी व्यंगात्मक फ़िल्म की सबसे बड़ी जरूरत है. लगभग दो घंटे के रनटाइम वाली इस कहानी में भ्रष्टाचार, जातिगत भेदभाव, आर्थिक विषमताओं के आधार पर न्याय का वितरण, मीडिया ट्रायल, लिंगवाद और लड़कियों की तस्करी जैसे कई मुद्दों को उठाने का प्रयास किया गया है.
अभिनय की बात करें तो सान्या मल्होत्रा पिछले कुछ समय से अपने एक के बाद एक प्रोजेक्ट्स में छाप छोड़ती नजर आयी हैं. इस फ़िल्म में भी उनकी मेहनत नजर आती हैं. उन्होने पुलिस की भूमिका को एक अलग अंदाज में जिया है. आमतौर पर रुपहले परदे पर महिला पुलिस को पुरुषों की तरह ही दिखाया जाता रहा है, लेकिन इस मामले में इस फ़िल्म में सान्या का किरदार अलग है. वह जाबांज पुलिस ऑफिसर है, लेकिन संवेदनशील भी बहुत है. सान्या के बाद इस फ़िल्म में राजपाल यादव याद रह गए हैं, जितने में दृश्यों में नजर आएं हैं. उन्होने अपनी जबरदस्त छाप छोड़ी है. अनंत जोशी, नेहा सराफ, विजय राज, बिजेंद्र कालरा और रघुबीर यादव ने भी अपने – अपने किरदारों के साथ बखूबी न्याय किया है.
फ़िल्म के संवाद अच्छे बन पड़े हैं. मुहावरों का प्रयोग अलग अंदाज में संवादों में देखा गया है.वन लाइनर्स कॉमेडी के डोज को बढ़ाते हैं. फ़िल्म के गीत संगीत की बात करें तो यह कहानी और उसके बैकड्राप के साथ पूरी तरह से न्याय करता है. राधे – राधे याद रह जाता है. फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफी कहानी को वास्तविकता का रंग देते हैं. मध्यप्रदेश को फ़िल्म में अच्छे से जोड़ा गया है.