वर्ष 1965 में भारत-पाकिस्तान के बीच चले लंबे युद्ध के बाद 11 जनवरी, 1966 को सोवियत संघ के ताशकंद में (जो अब उज्बेकिस्तान में है) जब दोनों देशों के बीच शांति समझौता हुआ, तो दोनों ही पक्षों के शांतिकर्मियों ने चैन की सांस ली, परंतु इस समझौते के लिए वहां गये भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही घंटों बाद रहस्यमय परिस्थितियों में निधन हो गया. विजयोल्लास में डूबी राजधानी दिल्ली में यह खबर शोक की ऐसी लहर की तरह आयी कि देशवासियों के लिए उसे धैर्यपूर्वक सहना कठिन हो गया.
आज भी उस प्रसंग की चर्चा चलने पर शास्त्री जी के प्रति लोगों की भावनाएं इस कदर उमड़ आती हैं कि जितने मुंह उतनी बातें हो जाती हैं. उनके व्यक्तित्व के दूसरे पहलुओं की चर्चा करें, तो उनकी सादगी, नैतिकता और ईमानदारी के अप्रतिम होने को लेकर कतई कोई दो राय सामने नहीं आती. चुनावी नैतिकताओं का मामला हो, तो बड़े से बड़े नेता भी उनसे विचलित होते देखे गये हैं, पर शास्त्री जी इनको लेकर भी अप्रतिम सिद्ध होते हैं. वर्ष 1957 में उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद सीट से चुने गये शास्त्री जी 1962 में फिर इसी सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी थे. चुनाव प्रचार के एक-दो दिन ही बचे थे और मुकाबला कड़ा न होने के बावजूद अपने सारे मतदाताओं तक पहुंचने की चाह में वे दिन-रात एक किये हुए थे. इसी क्रम में वे एक चुनाव सभा को संबोधित करके लौट रहे थे, देखा कि उनके विरुद्ध चुनाव लड़ रहे एक प्रत्याशी की जीप बीच रास्ते खराब हो गयी है और उसके समर्थक चिंतित हैं कि जब तक मिस्त्री आयेगा, जीप की मरम्मत करेगा, तब तक उनके पास सभा के निर्धारित स्थल पर पहुंचने का समय ही नहीं रह जायेगा. सभा में आये मतदाता नाराज होकर लौट जायेंगे, तो चुनावी फिजा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. प्रसंगवश, उन दिनों न आजकल जितनी जीपें व कारें हुआ करती थीं कि फौरन दूसरी का इंतजाम हो जाये, न ही यातायात के साधन इतने सुगम थे कि दूर-दराज के इलाकों में सुविधापूर्वक पहुंचा जा सके.
शास्त्री जी ने प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी को परेशानी में पड़ा और पसीना-पसीना होता देख अपनी जीप रुकवायी और उसके पास जाकर पूछा कि क्या वे उसकी कोई मदद कर सकते हैं? प्रतिद्वंद्वी को कोई उत्तर नहीं सूझा. उसकी हिचक को समझ कर शास्त्री जी ने प्रस्ताव किया कि चूंकि उन्हें भी उसी रास्ते जाना है, वे उसे अपनी जीप में बैठा कर उसकी सभा स्थल तक ले चलते हैं. वहां दोनों बारी-बारी से मतदाताओं से अपनी बात कह लेंगे. मतदाता दोनों को सुनने के बाद खुद निर्णय कर लेंगे कि उन्हें अपना वोट किसे देना है? अंततः मतदाताओं को ही तय करना है कि वे किसे अपना प्रतिनिधि चुनेंगे. प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी की हिचक ने उसे इस पर राजी नहीं होने दिया, तो भी शास्त्री जी ने उसकी मदद से मुंह नहीं मोड़ा. उधर से गुजर रही अपने एक समर्थक की जीप में वे स्वयं बैठ गये और अपनी जीप प्रतिद्वंद्वी को दे दी. एक समर्थक ने इस पर एतराज जताया, तो बोले, ‘हमारे विरोधी मतदाताओं से अपनी बात कहने नहीं जा सकें, तो चुनावी मुकाबला बराबरी का नहीं रह जायेगा. ऐसा नहीं होना चाहिए.’
उनकी नैतिकताएं ही नहीं, दृढ़ता भी गजब की थी. ताशकंद में पाकिस्तान से समझौते के दौरान उनकी और जनरल अयूब की दो छोटी-छोटी बैठकों में कोई परिणाम नहीं निकला, क्योंकि शास्त्री जी को युद्ध में भारतीय सेना द्वारा जीती हुई जमीन लौटाना हरगिज मंजूर नहीं था, परंतु बाद में वे इस पर सहमत हो गये, तो अयूब ने कश्मीर पर जोर देना शुरू कर दिया. इधर शास्त्री जी संकल्पित थे कि कश्मीर पर कोई चर्चा नहीं करनी है और उन्होंने अपने इस दृढ़संकल्प के आगे जनरल अयूब की एक नहीं चलने दी. अंततः निराश होकर जनरल अयूब ने अचानक गिड़गिड़ाते हुए से शास्त्री जी से कहा, ‘कश्मीर के मामले में कुछ ऐसा कर दीजिए कि मैं भी अपने मुल्क में मुंह दिखाने के काबिल रहूं,’ परंतु शास्त्री जी ने उनके इस ‘इमोशनल अत्याचार’ को भी नकार दिया और कहा, ‘सदर साहब, मैं क्षमा चाहता हूं, पर मैं इस मामले में आपकी कोई खिदमत नहीं कर सकता. ’
दोनों नेताओं की वार्ता के अंतिम सत्र में पाकिस्तान की तरफ से आये समझौते के मसौदे में लिखा गया था, ‘दोनों देशों के बीच सभी मुद्दे शांतिपूर्ण तरीके से संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत हल किये जायेंगे.’ शास्त्री जी ने जोर दिया कि इस टाइप किये गये मसौदे में जनरल अयूब अपने हाथ से जोड़ें कि ‘बिना हथियारों का सहारा लिये.’ अयूब ने ऐसा ही किया और समझौता संपन्न हो गया. कृतज्ञ देश द्वारा 1966 में शास्त्री जी को मरणोपरांत सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारतरत्न’ से सम्मानित किया गया.